राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या-624/2011
(मौखिक)
(जिला उपभोक्ता फोरम, मेरठ द्वारा परिवाद संख्या 150/2008 में पारित आदेश दिनांक 30.10.2010 के विरूद्ध)
Meerut Development Authority, Meerut Through its Secretary
....................अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम
Smt. Yashoda Goswami wife of Sri Chaman Goswami, resident of L-Block, House No. 1363, Shastri Nagar, Meerut through her power of attorney holder Sri Mohd. Umeed s/o Sri Babu, resident of 15, Shahghasa, Meerut City.
.................प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
1. माननीय न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष।
2. माननीय श्रीमती बाल कुमारी, सदस्य।
3. माननीय श्री राज कमल गुप्ता, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री कृष्ण कन्हैया पाल, विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : कोई नहीं।
दिनांक : 13.04.2015
माननीय न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष द्वारा उदघोषित
निर्णय
अपीलार्थी द्वारा यह अपील जिला उपभोक्ता फोरम, मेरठ द्वारा परिवाद संख्या 150/2008 में पारित आदेश दिनांक 30.10.2010 के विरूद्ध प्रस्तुत की गयी है, जिसके अन्तर्गत जिला मंच द्वारा परिवादनी का परिवाद इस आशय से स्वीकार किया गया कि सम्पूर्ण कीमत अदा करने के बावजूद भी विपक्षी द्वारा परिवादनी को आवंटित एच.आई.जी. भूखण्ड सं.-1-52 क्षेत्रफल 200 वर्ग मीटर लोहियानगर की रजिस्ट्री परिवादनी के नाम न करके सेवा में कमी की गयी, जिससे परिवादनी को मानसिक व आर्थिक हानि हुई और परिवाद योजित करना पड़ा। विवादित आदेश निम्नवत् है:-
'' परिवादनी का परिवाद विरूद्ध विपक्षी एकपक्षीय रूप से स्वीकार किया जाता है। विपक्षी को आदेशित किया जाता है कि विपक्षी इस आदेश से एक माह के अंदर परिवादनी को आवंटित एच.आई.जी. भूखण्ड सं.-1-52 क्षेत्रफल 200 वर्ग मीटर स्थित लोहिया नगर का विक्रय विलेख नियमानुसार परिवादनीया या नोमिनी के नाम एक माह में निष्पादित करे और उक्त भूखण्ड का भौतिक कब्जा परिवादनी को दे। विपक्षी अंकन-10,000/-रूपये क्षतिपूर्ति एवं अंकन-5000/-रूपये परिवाद व्यय भी परिवादनी को अदा करे। विपक्षी इस आदेश का अनुपालन निर्धारित अवधि में सुनिश्चित करे अन्यथा
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परिवादनी विपक्षी के विरूद्ध धारा-25/27 सी.पी. एक्ट 1986 के तहत कार्यवाही करने के लिए स्वतंत्र होगी।''
श्री कृष्ण कन्हैया पाल विद्वान अधिवक्ता अपीलार्थी को सुना गया और अभिलेख का अवलोकन किया गया।
पत्रावली का अवलोकन यह दर्शाता है कि दिनांक 30.10.2010 के प्रश्नगत आदेश की प्रति दिनांक 11.11.2010 को प्राप्त करने के उपरान्त अपील दिनांक 11.04.2011 को प्रस्तुत की गयी है, जो कि प्रथम दृष्ट्या समय-सीमा अवधि से बाधित है। अपीलार्थी की ओर से समय-सीमा अवधि में छूट सम्बन्धी प्रार्थना पत्र मय शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि जिला मंच द्वारा दिनांक 30.10.2010 को प्रश्नगत एकपक्षीय निर्णय पारित किया गया और दिनांक 11.11.2010 को उक्त निर्णय की प्रतिलिपि प्राप्त करने के लिए प्रार्थना पत्र दिया गया। दिनांक 10.12.2010 को एम0डी0ए0 के अधिवक्ता द्वारा प्रश्नगत निर्णय के बारे में एम0डी0ए0 अथॉरिटीज को बताया गया। दिनांक 01.02.2011 को एम0डी0ए0 अथॉरिटीज ने निर्णय लिया कि प्रश्नगत निर्णय के खिलाफ अपील दायर की जाए। दिनांक 08.02.2011 को अपील दाखिल करने के लिए ड्राफ्ट तैयार किया गया तथा कुछ समय अधिवक्ता के द्वारा लिया गया और अन्त में अपील दिनांक 11.04.2011 को दाखिल की गयी। इस कारण विलम्ब क्षमा योग्य है।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह अवलोकनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या-1166/2006 बलवन्त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्बन्धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के अलावा यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी सम्भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्यक देरी कारित न होने के लिए आवश्यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था। इसी प्रकार राम लाल तथा अन्य बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया
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गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्योंकि पर्याप्त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्बन्धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्यायालय को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि न्यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्तर पर अपील से सम्बन्धित सभी संगत तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को न्यायालय द्वारा संगत तथ्यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए।
हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्ट मास्टर जनरल तथा अन्य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्य, सिविल अपील संख्या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्पन्न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्थानों, प्रबन्धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और स्वीकार किए जाने योग्य स्पष्टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्य स्पष्टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्व होता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्त किया जाए।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011)
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CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
उपरोक्त सन्दर्भित विधिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में हमने अपीलार्थी द्वारा प्रदर्शित उपरोक्त तथ्यों का अवलोकन एवं विश्लेषण किया है और यह पाया है कि स्पष्टतया उपरोक्त सन्दर्भित स्पष्टीकरण सदभाविक स्पष्टीकरण नहीं है, ऐसा स्पष्टीकरण नहीं है जिससे अपीलार्थी अपील योजित किए जाने में हुई देरी से बच नहीं सकता था। दिनांक 30.10.2010 के विवादित आदेश की सत्य प्रतिलिपि दिनांक 11.11.2010 को प्राप्त कर लिए जाने के उपरान्त भी प्रदत्त सीमा अवधि दिनांक 11.12.2010 तक अपील न किए जाने और दिनांक 11.04.2011 को अर्थात् लगभग 05 माह बाद इस अपील को योजित किए जाने का कोई स्पष्ट औचित्य नहीं है। देरी होने सम्बन्धी तथ्य को जिस प्रकार से वर्णित किया गया है, उससे यह नहीं लगता है कि उसके अलावा कोई विकल्प अपील में देरी से बचने का नहीं था। अत: हम धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 द्वारा प्रदत्त 30 दिन की कालावधि के अवसान के पश्चात् यह अपील ग्रहण किए जाने योग्य नहीं पाते हैं क्योंकि अपीलार्थी उस अवधि के भीतर अपील न योजित करने के सम्बन्ध में पर्याप्त कारण के प्रति ऐसा स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने में विफल है,
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जिससे हमारा समाधान हो सके कि कालावधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण की जा सकती है। अत: यह अपील, अपील को अंगीकार किये जाने के प्रश्न पर सुनवाई करते हुए ही समय-सीमा से बाधित होने के कारण अस्वीकार की जाने योग्य है।
आदेश
अपील उपरोक्त अस्वीकार की जाती है। अपीलार्थी द्वारा धारा-15 के अन्तर्गत जो धनराशि इस आयोग में जमा की गयी है, वह धनराशि जिला फोरम को वापस की जाए।
(न्यायमूर्ति वीरेन्द्र सिंह) (बाल कुमारी) (राज कमल गुप्ता)
अध्यक्ष सदस्य सदस्य
जितेन्द्र आशु0
कोर्ट नं0-1