Uttar Pradesh

StateCommission

A/2004/2015N

Kashi Ram - Complainant(s)

Versus

Uppcl - Opp.Party(s)

Alok Sinha

03 Nov 2015

ORDER

STATE CONSUMER DISPUTES REDRESSAL COMMISSION, UP
C-1 Vikrant Khand 1 (Near Shaheed Path), Gomti Nagar Lucknow-226010
 
First Appeal No. A/2004/2015N
(Arisen out of Order Dated in Case No. of District )
 
1. Kashi Ram
Jhansi
...........Appellant(s)
Versus
1. Uppcl
Jhansi
...........Respondent(s)
 
BEFORE: 
 HON'BLE MR. JUSTICE Virendra Singh PRESIDENT
 HON'BLE MR. Raj Kamal Gupta MEMBER
 
For the Appellant:
For the Respondent:
ORDER

राज्‍य उपभोक्‍ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखन

अपील संख्‍या-2004/2015

(मौखिक)

(जिला उपभोक्‍ता फोरम, झांसी द्वारा परिवाद संख्‍या 82/2009 में पारित आदेश दिनांक 15.12.2011 के विरूद्ध)

KASHI RAM

S/o Late Shri Mattu,

R/o Village-Dhimarpura,

Tehsil & District-Jhansi          ....................अपीलार्थी/परिवादी

बनाम

EXECUTIVE ENGINEER, VIDHUT VITRAN KHAND-II

Dakshiranchal Vidhut Vitran Nigam Ltd.,

Munna Lal Power House, Jhansi      ................प्रत्‍यर्थी/विपक्षी

समक्ष:-

1. माननीय न्‍यायमूर्ति श्री वीरेन्‍द्र सिंह, अध्‍यक्ष।

2. माननीय श्री राज कमल गुप्‍ता, सदस्‍य।

अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री आलोक सिन्‍हा,                                                                                                                                                

                           विद्वान अधिवक्‍ता।

प्रत्‍यर्थी की ओर से उपस्थित  : कोई नहीं।

दिनांक: 03.11.2015

माननीय न्‍यायमूर्ति श्री वीरेन्‍द्र सिंह, अध्‍यक्ष द्वारा उदघोषित

निर्णय

अपीलार्थी द्वारा यह अपील जिला उपभोक्‍ता फोरम, झांसी द्वारा परिवाद संख्‍या 82/2009 में पारित आदेश दिनांक 15.12.2011 के विरूद्ध प्रस्‍तुत की गयी है। विवादित आदेश निम्‍नवत् है:-

“परिवादी काशीराम का वाद विपक्षी अधिशाषी अभियंता विद्युत वितरण खण्‍ड द्वितीय के विरूद्ध एकपक्षीय रूप से स्‍वीकार करते हुये विपक्षी को यह निर्देश दिया जाता है, कि वह परिवादी को बिल वाणिज्यिक प्रकार के स्‍थान पर, घरेलू संयोजन के आधार पर भेजे, और परिवादी बिल प्राप्‍त होने पर 15दिन के भीतर उसका भुगतान कर   दे। तथा विपक्षी द्वारा भेजा गया बिल सं0-887800 वाई, अंकन 24341/-रू0 निरस्‍त किया जाता है। विपक्षी एक माह के भीतर आदेश का पालन करें। ”

 

 

-2-

श्री आलोक सिन्‍हा विद्वान अधिवक्‍ता अपीलार्थी को सुना गया और अभिलेख का अवलोकन किया गया।

पत्रावली का अवलोकन यह दर्शाता है कि दिनांक 15.12.2011 के प्रश्‍नगत आदेश की नि:शुल्‍क प्रति दिनांक 17.12.2011 को प्राप्‍त करने के उपरान्‍त अपील दिनांक 28.09.2015 को प्रस्‍तुत की गयी है, जो कि प्रथम दृष्‍ट्या समय-सीमा अवधि से बाधित है। अपीलार्थी की ओर से समय-सीमा अवधि में छूट सम्‍बन्‍धी प्रार्थना पत्र मय शपथ पत्र   प्रस्‍तुत किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि प्रश्‍नगत निर्णय दिनां‍क 15.12.2011 की सत्‍य प्रतिलिपि दिनांक 17.12.2011 को प्राप्‍त करने के उपरान्‍त परिवादी/अपीलार्थी ने विपक्षी से प्रश्‍नगत आदेश के अनुपालन हेतु सम्‍पर्क किया, परन्‍तु विपक्षी द्वारा न ही तो कोई जवाब दिया गया और न ही प्रश्‍नगत आदेश का अनुपालन किया गया। तत्‍पश्‍चात् परिवादी/अपीलार्थी ने जिला फोरम के समक्ष निष्‍पादन    वाद प्रस्‍तुत किया, जिसमें विपक्षी द्वारा जिला फोरम के समक्ष  दिनांक 03.09.2015 को 72,995/-रू0 का बिल प्रस्‍तुत किया गया,  जो कि जनवरी, 2015 तक देय था और पुन: दिनांक 14.11.2006 से जनवरी, 2015 तक का 1,27,193/-रू0 का बिल प्रस्‍तुत किया, जबकि परिवादी का कनैक्‍शन नवम्‍बर, 2008 में विच्‍छेदित हो चुका था। अपीलार्थी/परिवादी द्वारा यह भी कहा गया है कि प्रश्‍नगत निर्णय की पहली सत्‍य प्रतिलिपि खो गयी थी और परिवादी द्वारा प्रश्‍नगत निर्णय की द्वितीय सत्‍य प्रति दिनांक 03.09.2015 को प्राप्‍त की गयी और तत्‍पश्‍चात् अपीलार्थी/परिवादी ने अपने अधिवक्‍ता से अपील दाखिल करने हेतु सम्‍पर्क किया और अन्‍त में अपील दिनांक 28.09.2015 को दाखिल की गयी। इस कारण विलम्‍ब क्षमा योग्‍य है।

     उपरोक्‍त वर्णित तथ्‍यों के परिप्रेक्ष्‍य में यह अवलोकनीय है कि माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा सिविल अपील संख्‍या-1166/2006 बलवन्‍त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्‍य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्‍बन्‍धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के  अलावा  यह

 

 

 

-3-

सिद्ध किया जाना भी आवश्‍यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी सम्‍भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्‍यक देरी कारित न होने के लिए आवश्‍यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्‍यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्‍या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था। इसी प्रकार राम लाल तथा अन्‍य बनाम रीवा कोलफील्‍ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्‍त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्‍वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्‍योंकि पर्याप्‍त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्‍यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्‍त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्‍बन्‍धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्‍वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्‍त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्‍यायालय को यह विश्‍लेषण करने की आवश्‍यकता है कि न्‍यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्‍त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्‍तर पर अपील से सम्‍बन्धित सभी संगत तथ्‍यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्‍य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्‍वाभाविक रूप से इस अधिकार को न्‍यायालय द्वारा संगत तथ्‍यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्‍त करना चाहिए।

     हाल ही में माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्‍ट मास्‍टर जनरल तथा अन्‍य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्‍य, सिविल अपील संख्‍या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्‍पन्‍न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्‍थानों, प्रबन्‍धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और  स्‍वीकार  किए  जाने  योग्‍य

 

 

-4-

स्‍पष्‍टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्‍य में स्‍पष्‍ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्‍य स्‍पष्‍टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्‍य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्‍व होता है कि वे अपने कर्त्‍तव्‍यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से उपलब्‍ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्‍त किया जाए।

     आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्‍वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्‍यू ओखला इ‍ण्‍डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्‍यायालय को प्रत्‍येक मामले में यह देखना है और परीक्षण  करना  है  कि  क्‍या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्‍पष्‍ट किया है, क्‍या उसका कोई औचित्‍य है? क्‍योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्‍बन्‍ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्‍या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्‍या अपील में हुई देरी स्‍वाभाविक देरी है। उपभोक्‍ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्‍यक है क्‍योंकि उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्‍तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्‍य रहा है और यदि अत्‍यन्‍त देरी से प्रस्‍तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्‍न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्‍ता के अधिकारों का संरक्षण सम्‍बन्‍धी उद्देश्‍य ही विफल हो जाएगा।

 

 

-5-

     फाइजर लिमिटेड बनाम गोपी कृष्‍ण अत्री पुनरीक्षण संख्‍या-4436 वर्ष 2014 जो कि माननीय राष्‍ट्रीय उपभोक्‍ता संरक्षण आयोग द्वारा दिनांक 23.02.2015 को निर्णीत किया गया है, में माननीय राष्‍ट्रीय आयोग ने यह अवधारित किया है कि साधारणतया देरी के सम्‍बन्‍ध में अधिवक्‍ता का दोष देरी किए जाने की बावत कहा जाता है जो कि असत्‍य होता है और एक चलन सा हो गया है कि अधिवक्‍ता के ऊपर देरी किए जाने का दोष कहा जाए जो कि मात्र देरी माफी के प्रार्थना पत्र को स्‍वीकार कर लिए जाने के लिए एक बहाना होता है, जबकि धारा-5 सीमा अवधि अधिनियम में प्रयुक्‍त शब्‍द 'पर्याप्‍त कारण' को मात्र इन आधारों पर दृष्टि से ओझल नहीं किया जा सकता है कि देरी से सम्‍बन्धित ऐसे मामलों में अत्‍यधिक नम्र रुख अपनाया जाना चाहिए क्‍योंकि इससे धारा-5 सीमा अवधि अधिनियम में प्राविधित समय-सीमा सम्‍बन्‍धी प्राविधान ही निरर्थक हो जाएगा, इसलिए ऐसा कारण होना चाहिए जो पर्याप्‍त कारण की श्रेणी में रखा जा सके और जिसके आधार पर मामले को प्रस्‍तुत किए जाने में हुई देरी को माफ किया जा सके और जिससे मामले में हुई देरी का दिन-प्रति-दिन का स्‍पष्‍टीकरण स्‍वीकार किया जाने योग्‍य हो। बंशी बनाम लक्ष्‍मी नारायण – 1993 (1) आर0एल0आर0 68 में अधिवक्‍ता द्वारा की गयी देरी के अभिवचन को इस आधार पर स्‍वीकार नहीं किया गया था कि प्राथमिक कर्तव्‍य पक्षकार स्‍वयं का है कि वह अपने अधिवक्‍ता के कार्यालय जाए और अपने मामले से सम्‍बन्धित जानकारी हासिल करे। जसवन्‍त सिंह बनाम असिसटेंट रजिस्‍ट्रार, को-आपरेटिव सोसाइटीज 2000 (3) पी0एल0आर0 83 में भी ऐसी ही कहानी को अस्‍वीकार किया गया है कि अधिवक्‍ता ने अवर न्‍यायालय में यह कह दिया कि पक्षकार को न्‍यायालय में आने की आवश्‍यकता नहीं है और अधिवक्‍ता स्‍वयं पक्षकार को मामले के परिणाम से अवगत करा देंगे। भण्‍डारी दास बनाम सुशीला, 1997 (2) आर0एल0डब्‍लू0 845 में भी इस अभिवचन को अस्‍वीकार कर दिया गया था कि अधिवक्‍ता ने पक्षकार को मामले की प्रगति के बारे में अवगत नहीं कराया था और न ही कोई पत्र भेजा था। माननीय सर्वोच्‍च

 

 

-6-

न्‍यायालय द्वारा हाल ही में संजय सिदगोण्‍डा पाटिल बनाम ब्रांच मैनेजर, नेशनल इंश्‍योरेंस कम्‍पनी लिमिटेड तथा अन्‍य, स्‍पेशल लीव टू अपील (सिविल) नं0 37183 वर्ष 2013 जो कि दिनांक 17.12.2013 को निर्णीत हुई है, में माननीय राष्‍ट्रीय आयोग के आदेश को सम्‍पुष्‍ट किया गया है, जिसमें माननीय राष्‍ट्रीय आयोग ने 13 दिन मात्र की देरी को क्षमा करने से मना कर दिया था। इसी प्रकार 78 दिन की देरी को माननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय ने माफ किया जाना, मैसर्स अम्‍बादी इण्‍टरप्राइजेज लिमिटेड बनाम श्रीमती राज लक्ष्‍मी सुब्रमण्‍यम एस0एल0पी0 नं0 19896 वर्ष 2013 निर्णय तिथि 12.07.2013 में मना कर दिया है। चीफ आफीसर नागपुर हाउस एण्‍ड एरिया डवलपमेंट बनाम गोपीनाथ कावड़ू भगत एस0एल0पी0 संख्‍या 33792 वर्ष 2013 जो कि दिनांक 19.11.2013 को निर्णीत हुई है, में भी 77 दिन की देरी को क्षमा के योग्‍य नहीं पाया गया।

     उपरोक्‍त सन्‍दर्भित विधिक सिद्धान्‍तों के परिप्रेक्ष्‍य में हमने अपीलार्थी द्वारा प्रदर्शित उपरोक्‍त तथ्‍यों का अवलोकन एवं विश्‍लेषण किया है और यह पाया है कि स्‍पष्‍टतया उपरोक्‍त सन्‍दर्भित स्‍पष्‍टीकरण सदभाविक स्‍पष्‍टीकरण नहीं है, ऐसा स्‍पष्‍टीकरण नहीं है जिससे अपीलार्थी अपील योजित किए जाने में हुई देरी से बच नहीं सकता था। दिनांक 15.12.2011 के विवादित आदेश की नि:शुल्‍क प्रतिलिपि दिनांक 17.12.2011 को प्राप्‍त कर लिए जाने के उपरान्‍त भी प्रदत्‍त सीमा अवधि दिनांक 17.01.2012 तक अपील न किए जाने और दिनांक 28.09.2015 को अर्थात् लगभग 03 वर्ष 09 माह 11 दिन बाद इस अपील को योजित किए जाने का कोई स्‍पष्‍ट औचित्‍य नहीं है। देरी होने सम्‍बन्‍धी तथ्‍य को जिस प्रकार से वर्णित किया गया है, उससे यह नहीं लगता है कि उसके अलावा कोई विकल्‍प अपील में देरी से बचने का नहीं था। अत: हम धारा-15 उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम 1986 द्वारा प्रदत्‍त 30 दिन की कालावधि के अवसान के पश्‍चात् यह अपील ग्रहण किए जाने योग्‍य नहीं पाते हैं क्‍योंकि अपीलार्थी उस अवधि के भीतर अपील न योजित करने के सम्‍बन्‍ध में पर्याप्‍त  कारण  के  प्रति  ऐसा

 

 

-7-

स्‍पष्‍टीकरण प्रस्‍तुत करने में विफल है, जिससे हमारा समाधान हो सके कि कालावधि के अवसान के पश्‍चात् अपील ग्रहण की जा सकती है। अत: यह अपील, अपील को अंगीकार किये जाने के प्रश्‍न पर सुनवाई करते हुए ही समय-सीमा से बाधित होने के कारण अस्‍वीकार की जाने योग्‍य है।

आदेश

     अपील उपरोक्‍त अस्‍वीकार की जाती है।

 

 

     (न्‍यायमूर्ति वीरेन्‍द्र सिंह)               (राज कमल गुप्‍ता)       

     अध्‍यक्ष                          सदस्‍य          

जितेन्‍द्र आशु0

कोर्ट नं०-1

 
 
[HON'BLE MR. JUSTICE Virendra Singh]
PRESIDENT
 
[HON'BLE MR. Raj Kamal Gupta]
MEMBER

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