Uttar Pradesh

StateCommission

A/499/2015

Brajesh Dwivedi - Complainant(s)

Versus

Union of India - Opp.Party(s)

Mahendra Kumar Mishra

07 Feb 2023

ORDER

STATE CONSUMER DISPUTES REDRESSAL COMMISSION, UP
C-1 Vikrant Khand 1 (Near Shaheed Path), Gomti Nagar Lucknow-226010
 
First Appeal No. A/499/2015
( Date of Filing : 17 Mar 2015 )
(Arisen out of Order Dated 22/11/2014 in Case No. C/171/2011 of District Kanpur Nagar)
 
1. Brajesh Dwivedi
R/O 289/11 Babu Purwa Colony Kanpur
...........Appellant(s)
Versus
1. Union of India
Sanchar Bhwan New Delhi
...........Respondent(s)
 
BEFORE: 
 HON'BLE MR. Rajendra Singh PRESIDING MEMBER
 HON'BLE MR. SUSHIL KUMAR JUDICIAL MEMBER
 
PRESENT:
 
Dated : 07 Feb 2023
Final Order / Judgement

राज्‍य उपभोक्‍ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।

सुरक्षित

अपील सं0-499/2015

 

(जिला उपभोक्‍ता आयोग, कानपुर नगर (अस्‍थायी अतिरिक्‍त पीठ) द्वारा परिवाद सं0-171/2011 में पारित प्रश्‍नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 22-11-2014 के विरूद्ध)

बृजेश द्विवेदी पुत्र कृष्‍ण कुमार द्विवेदी, निवासी 289/11 बाबूपुरवा कालोनी, कानपुर।                                   ...........अपीलार्थी/परिवादी।  

बनाम

1. यूनियन आफ इण्डिया द्वारा सैक्रेटरी, मिनिस्‍टी आफ कम्‍युनिकेशन, संचार भवन, नई दिल्‍ली।

2. पोस्‍ट मास्‍टर जनरल, कानपुर रीजन, हैड पोस्‍ट आफिस, कानपुर।

3. पोस्‍ट मास्‍टर नवाबगंज, पोस्‍ट आफिस नवाबगंज, कानपुर।

                                ............      प्रत्‍यर्थीगण/विपक्षीगण।   

समक्ष:-

1.  मा0 श्री राजेन्‍द्र सिंह, सदस्‍य।

2.  मा0 श्री सुशील कुमार, सदस्‍य।

 

अपीलार्थी की ओर से उपस्थित  : श्री महेन्‍द्र कुमार मिश्रा विद्वान अधिवक्‍ता।

प्रत्‍यर्थीगण की ओर से उपस्थित : डॉ0 यू0वी0 सिंह विद्वान अधिवक्‍ता के 

                             कनिष्‍ठ अधिवक्‍ता श्री श्रीकृष्‍ण पाठक।  

 

दिनांक :- 14-02-2023.    

 

मा0 श्री राजेन्‍द्र सिंह, सदस्‍य द्वारा उदघोषित

 

निर्णय

यह अपील, जिला उपभोक्‍ता आयोग, कानपुर नगर (अस्‍थायी अतिरिक्‍त पीठ) द्वारा परिवाद सं0-171/2011 में पारित प्रश्‍नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 22-11-2014 के विरूद्ध योजित की गयी है।

संक्षेप में अपीलार्थी का कथन है कि विद्वान जिला आयोग ने इस तथ्‍य को नहीं देखा कि पोस्‍ट आफिस (मन्‍थली इन्‍कम एकाउण्‍ट) रूल्‍स 1987 के नियम 10 के अन्‍तर्गत किसी भी खाते को अवधि पूर्व बन्‍द करने के लिए अलग प्रार्थना पत्र की आवश्‍यकता होती है। विद्वान जिला आयोग का आदेश विधि विरूद्ध है। अपीलार्थी/परिवादी ने 3 एम0आई0एस0 एकाउण्‍ट्स नवाबगंज

 

 

-2-

पोस्‍ट आफिस, कानपुर में 6 वर्ष के लिए खोले थे जो 6 वर्ष बीतने पर परिपक्‍व होने थे और इसे 10 प्रतिशत बोनस के साथ वापस किया जाना था। विपक्षी द्वारा दिनांक 17-11-2007 और दिनांक 10-01-2008 को पूर्व परिपक्‍वता आहरण स्‍वीकार किया गया था और इसके लिए कोई प्रार्थना पत्र नहीं दिया गया था। पत्र दिनांक 08-05-2009 एवं 05-12-2009 परिवादी ने भुगतान के लिए परिपक्‍वता अवधि के बाद लिखे और इसके पश्‍चात् कोई प्रार्थना पत्र पूर्वपरिपक्‍वता अवधि के आहरण का नहीं दिया गया। विद्वान जिला आयोग ने यह नहीं देखा कि यह मामला पूर्व अवधि बंदी का था। विपक्षी पक्षकारों ने एजेण्‍ट के साथ दुरभि संधि करके पूर्व परिपक्‍व आहरण नगर रूप से कर लिया जबकि नियम 10 पोस्‍ट आफिस (मन्‍थली इन्‍कम एकाउण्‍ट) रूल्‍स 1987 के अन्‍तर्गत एक अलग प्रार्थना पत्र देने की आवश्‍यकता होती है। अत: माननीय आयोग से निवेदन है कि विद्वान जिला फोरम का प्रश्‍नगत निर्णय अपास्‍त करते हुए अपील स्‍वीकार की जाए। 

हमने उभय पक्ष के विद्वान अधिवक्‍तागण की बहस सुनी तथा पत्रावली का सम्‍यक रूप से परिशीलन किया।

हमने विद्वान जिला फोरम के प्रश्‍नगत निर्णय एवं आदेश का अवलोकन किया। यह पाया गया कि खाता परिपक्‍व हो जाने के बाद परिवादी उनका भुगतान लेने गया तो विपक्षी पोस्‍ट आफिस द्वारा उसे सूचित किया गया कि उक्‍त खाता को प्री-मेच्‍योर बंद करके खाता की धनराशि का भुगतान परिवादी को किया जा चुका है। परिवादी के अनुसार उसने न तो अपना खाता प्री-मेच्‍योर बंद किया और न ही जमा धनराशि को निकाला। परिवाद पत्र के अनुसार सम्‍बन्धित पोस्‍ट आफिस एवं सेविंग बैंक एजेण्‍ट राजेन्‍द्र द्विवेदी ने आपसी मिलीभगत करके परिवादी के खाता से उपरोक्‍त धनराशि अवैध रूप से निकाल लिया।

विपक्षीगण ने अपने प्रतिवाद पत्र में कहा कि परिवादी ने

 

 

-3-

एम0आई0एस0 एकाउण्‍ट नं0-6794 सितम्‍बर, 2003 में तथा खाता सं0-7171 तथा 7172 नवम्‍बर 2003 में खोला था। पोस्‍ट आफिस के नियमों के अनुसार खाता खोलने के एक वर्ष बाद खाता धारक के आवेदन पर प्री-मेच्‍योर बंद किया जा सकता है और उसका भुगतान खाता धारक को दिया जा सकता है। विपक्षी के अनुसार परिवादी ने पोस्‍ट आफिस में लिखित प्रार्थना पत्र देकर अपना खाता बंद कराया तथा अपने हस्‍ताक्षरों से विदड्रॉल फार्म देकर खाते की धनराशि को नकद प्राप्‍त कर लिया। खाता को बन्‍द करने का कार्य स्‍वयं परिवादी के लिखित प्रार्थना पत्र पर किया गया है। परिवादी के हस्‍ताक्षरयुक्‍त विदड्रॉल फार्म पर खाता की धनराशि परिवादी को नकद भुगतान की गई है।

विद्वान जिला आयोग ने यह पाया कि तीनों खाता का धन निकासी हेतु भरे गये तीनों विदड्रॉल फार्म की छायाप्रति भी पत्रावली में उपलब्‍ध है। इन पर भी खाता धारक/परिवादी के हस्‍ताक्षर हैं। खाताधारक/परिवादी ने यह नहीं कहा है कि विदड्रॉल फार्म पर उसके हस्‍ताक्षर नहीं हैं एवं कथित हस्‍ताक्षर जाली व कूटरचित हैं। खाता धारक/परिवादी ने हस्‍तलेख विशेषज्ञ का ऐसा कोई साक्ष्‍य भी नहीं दिया है, जिसके आधार पर माना जा सके कि विदड्रॉल फार्म पर उसके वास्‍तविक हस्‍ताक्षर नहीं, वरन् जाली व कूटरचित हस्‍ताक्षर हैं।

इसके पश्‍चात् परिवाद खरिज किया गया।

उपरोक्‍त तथ्‍यों को दृष्टिगत रखते हुए हमारे विचार से गुणदोष के आधार पर वर्तमान अपील तदनुसार निरस्‍त होने योग्‍य है।

वर्तमान मामले में प्रत्‍यर्थीगण की ओर से यह आपत्ति की गई कि यह अपील विलम्‍ब से प्रस्‍तुत की गई है और विलम्‍ब क्षमा करने के लिए प्रार्थना पत्र भी नहीं दिया गया है। विद्वान जिला आयोग का निर्णय दिनांक 22-11-2014 का है जिसकी नि:शुल्‍क प्रमाणित प्रति दिनांक 23-02-2015 को निर्गत होना लिखा है किन्‍तु इसी प्रमाणित प्रति पर दो मुहर और भी हैं जहॉं पर वादी व प्रतिवादी को निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि दिनांक 28-11-2014 को

 

 

-4-

दिया जाना अंकित है। अपीलार्थी ने कहा है कि उसे नहीं मालूम कि यह मुहर कहॉं से लगी है। अत्‍यन्‍त आश्‍चर्य का विषय है कि जब परिवादी ने निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि प्रस्‍तुत की तब उसे मालूम हुआ कि ये दो मुहरें कैसे लगीं।

जिला आयोग के समक्ष विपक्षीगण उपस्थित हुए और अपना प्रतिवाद पत्र भी प्रस्‍तुत किया है तब यह प्रश्‍न स्‍वाभाविक है कि दिनांक 22-11-2014 के निर्णय की प्रति उसके द्वारा दिनांक 23-02-2015 को अर्थात् 03 महीने बाद क्‍यों ली गई। अपीलार्थी ने उत्‍तर दिया कि निर्णय की प्रति मिलने के दिनांक से अवधि की गणना की जाएगी जो उचित नहीं है क्‍योंकि यदि कोई व्‍यक्ति एक साल या दो साल या कई-कई साल निर्णय की प्रति प्राप्‍त न करे और फिर यह कहे कि उसे निर्णय की प्रति कई साल बाद मिली है तब उसे निर्णय की प्रति लेने के दिनांक से अवधि की छूट नहीं मिलेगी।

इस आयोग में अपील दिनांक 17-03-2015 को प्रस्‍तुत की गई अर्थात् लगभग 04 माह के विलम्‍ब से। अपीलार्थी की ओर से विलम्‍ब क्षमा प्रार्थना पत्र नहीं दिया गया है और यह कहा गया कि जब विलम्‍ब पर कोई आपत्ति नहीं है तब न्‍यायालय को इसे सुनने का अधिकार नहीं है। कालबाधन का प्रश्‍न एक विधिक प्रश्‍न है जिसका संज्ञान न्‍यायालय स्‍वत: ले सकती है। यदि पक्षकार आपस में दुरभि संधि कर अत्‍यन्‍त विलम्बित अपील पर आपत्ति न करें तो क्‍या न्‍यायालय यह मान ले कि कोई विलम्‍ब नहीं हुआ है।

सर्वप्रथम हम उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम के उद्देश्‍यों पर विचार करते हैं :-

Now before going to the time limit and effect of delay in filing appeal, it is better to understand the object of The Consumer Protection Act.

The Consumer Protection Act 1986 was enacted to provide for better protection of the interests of consumers and for that purpose to make provision for the establishment of Consumers

 

-5-

Councils and other authorities for the settlement of consumers’ disputes and for matters connected therewith (Preamble).

The Act Inter alia, seeks to promote and protect the rights of consumers such as —

(1) right to be protected against marketing of goods which are hazardous to life and property;
 (2) right to be informed about the quality, quantity, potency, purity, standard and price of goods to protect the consumer against unfair trade practices;
(3) right to be assured, wherever possible, access to variety of goods at competitive prices;
(4) right to be heard and to assured that customers’ interests will receive due consideration at appropriate forums.
(5) Right to seek redressal against unfair practices or unscrupulous exploitation of consumers; and
(6) Right to consumer education

The objects are sought to be promoted and protected by the Consumer Protection Councils to be established at the Central and State levels.

The Act applies to all goods and services, except if otherwise provided by the Central Government by Notification. To provide speedy and simple redressal of consumer disputes, a quasi judicial machinery is set up at the District, State and Central levels. The three tier system of quasi judicial bodies will observe the principle of natural justice and are empowered to give relief of a specific nature and to award, wherever appropriate, compensation to

 

-6-

consumers. Penalties for non-compliance of the orders given by the quasi judicial bodies have also been provided.

Thus the Consumer Protection Act is to serve the interests of the consumers. Consumer education and redressal of consumers’ grievances are the two aspects of the Act. It makes good the loss a consumer suffers and increases the feeling of responsibility of the manufacturer, trader, supplier or businessman.

The provisions of the Act have to be construed in favor of the consumer to achieve the purpose of enactment as it is social benefit oriented legislation. The primary duty of the Court while construing the provisions of such an Act is to adopt a constructive approach subject to that it should not do violence to the language of the provisions and not contrary to attempted objective of the enactment.

Extent of Consumer Protection:

While other legislations may be either punitive or preventive, the Consumer Protection Act compensates the consumer. The provisions of the Act are in addition to and not in derogation of the provisions of any law at the time being in force (Sec 3). In Maine Container Services South Pvt Ltd v Go Garments 1998 (3) SCC 247 it has been held that the Contract Act applies to all litigants before the Commissioner under the Consumers Protection Act. Passengers traveling in train suffering injuries and loss of Jewelry as a result of assault by unruly crowd are eligible for filing of complaint before State Commission is

 

-7-

maintainable notwithstanding the provisions of sections 100 and 103 of Railways Act, 1889. The Consumer Protection Act therefore gives the consumer an additional remedy besides those which may be available under other existing laws. Existence of an arbitration clause in the agreement is no bar to the entertainment of complaint by the Redressal Agency as the remedy under the Act is in addition to the provisions of any other law. However, the Consumer Forums under the Act have not taken over the jurisdiction of civil Courts. If the dispute between the parties is pending in Civil Court no Consumer Forum will adjudicate the dispute. Similarly if evidence be laid by the parties to the dispute is voluminous or complicated the parties will be referred to the appropriate Civil Court.

Consumers Protection Act, thus enshrines the rights of a consumer to be informed about the quality, quantity, potency, price etc., of the goods to be protected against unfair trade practices, to seek inexpensive and expeditious redressal of grievances before the Consumer Forums. Consumer Protection Act is a benevolent piece of legislation to protect a large body of consumers from exploitation.

     इसके पश्‍चात् हम उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम के उन प्राविधानों को देखते हैं, जिनमें परिवाद और अपील प्रस्‍तुत करने के सम्‍बन्‍ध में धाराऐं हैं। सर्वप्रथम एक परिवाद प्रस्‍तुत करने के सम्‍बन्‍ध में धारा 24 (ए) कहती है :-

 ["24-A. Limitation period- (1) The District Forum, the State Commission or the National Commission shall not admit a complaint unless it is filed within two years from the

 

 

 

-8-

date on which the cause of action has arisen.

(2) Notwithstanding anything contained in sub-section (1), a complaint may be entertained after the period specified in sub-section (1), if the complainant satisfies the District Forum, the State Commission or the National Commission, as the case may be, that he had sufficient cause for not filing the complaint within such period;

Provided that no such complaint shall be entertained unless the National Commission, the State Commission or the District Forum, as the case may be, records its reasons for condoning such delay]

From perusal of the aforesaid section, it transpires that the period of limitation is two years from the date on which the cause of action arose.

अपील प्रस्‍तुत करने के सम्‍बन्‍ध में धारा-15 में व्‍यवस्‍था को स्‍पष्‍ट करती है जो निम्‍नप्रकार है :-

As far as filing of appeal is concerned the provision is as follows:

“15.       Appeal. — Any person aggrieved by an order made by the District Forum may prefer an appeal against such order to the State Commission within a period of thirty days from the date of the order, in such form and manner as may be prescribed:

Provided that the State Commission may entertain an appeal after the expiry of the said period of thirty days if it is satisfied that there was sufficient cause for not finding it within that period.

Provided further that no appeal by a person, who is required to pay any amount in terms of an order of the District Forum, shall be entertained by the State

 

 

 

-9-

Commission unless the appellant has deposited in the prescribed manner fifty per cent. of that amount or twenty-five thousand rupees, whichever is less: ”

अब उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम के उद्देश्‍य और परिवाद तथा अपील प्रस्‍तुत करने के प्राविधानों के सम्‍बन्‍ध में कुछ न्‍यायिक दृष्‍टान्‍तों पर विचार किया जाता है, जो निम्‍नप्रकार है :-

 

The Hon'ble Supreme Court of India was pleased to hold in Civil Appeal No.2067 of 2002, State Bank of India vs. M/s B.S. Agricultural (I) dated 20.3.2009 at paras 15 and 16 that:

"On its plain averments, the complaint is barred by time and ought to have been dismissed as such but curiously this aspect was not examined by any of the consumer fora although specific plea to this effect was taken by the Bank.

          Since the complaint is barred by time and liable to be dismissed on that count, it would be unnecessary to examine the other grounds of challenge." 

 

          Considering the totality of the circumstances and view of the

provisions contained under Section 24(A) of the C.P. Act and the ruling laid down by the Hon'ble Apex Court in State Bank of India vs. M/s B.S. Agricultural (I), we are of the considered view that the complaint is barred by limitation and is liable to be dismissed. Hence, it is dismissed at the admission stage as barred by limitation.

In Anshul Agarwal Vs. New Okhla Industrial Development Authority, IV (2011) CPJ 62 (SC), it was observed by the Hon'ble Apex Court that "it is also apposite to observe that while deciding an application filed in such cases for condonation of delay, the Court has to keep in mind that special period of

 

 

 

-10-

limitation has been  prescribed in the Consumer Protection Act for filing appeals and revisions in consumer matter and the objection of expeditious adjudication of consumer disputes will get defeated if this court was to entertain highly belated petition against the orders of Consumer Fora."

साथ ही साथ यह भी देखना है कि क्‍या समय का महत्‍व अत्‍यधिक है ? इस सम्‍बन्‍ध में उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम की धारा-13(2)(ए) के सम्‍बन्‍ध में मानननीय सर्वोच्‍च न्‍यायालय की संविधान पीठ ने अपना निर्णय दिनांक 04-03-2020 द्वारा एक सुस्‍पष्‍ट और विस्‍तृत निर्णय समय के महत्‍व के सम्‍बन्‍ध में दिया है :-  

A Constitutional Bench ( 5 JJ ) of the Hon’ble Supreme Court  In the Case of New India Assurance Complainant Vs Hilli Multipurpose Cold Storage Private Limited , Civil Appeal no 10941 -10942 of 2013 along with other many related Civil Appeals( judgment 04.03.2020 ) held ;

“The reference made to this Constitution Bench relates to the grant of time for filing response to a complaint under the provisions of the Consumer Protection Act, 1986 (for short ‘the Act’).  

The first question referred is as to whether Section 13(2)

(a)   of   the   Consumer   Protection   Act,   which   provides     for   the respondent/opposite party filing its response to

      the complaint within 30 days or such extended period,   

      not exceeding 15 days, should be read as mandatory or

     directory;   i.e.,   whether  the District Forum has power   

     to extend the time for filing the response beyond the

     period of 15 days, in addition to 30 days.

    The Second question which  is referred is as  to what 

     would be the commencing point of limitation of 30 days 

    stipulated under the aforesaid Section.

 

 

 

-11-

The first question was referred by a two Judges bench of this Court vide an order dated 11.02.2016 passed in Civil Appeal No (s) 10831084 of 2016 , M/S Bhasin Infotech and Infrastructure Pvt Ltd Vs  M/S  Grand Venezia Buyers Association ( Reg), the relevant portion of which is as under :

“there is an apparent conflict between the decision of this Court in Topline Shoes Limited  vs  Corporation Bank [(2002)6 SCC 33], Kailash  vs  Nankhu [(2005)4 SCC 480] , Salem advocate Bar Association VS Union of India [(2005) 6 SCC 344] on the one hand and  J J Merchan  & Ors vs Shrinath Chaturvedi [(2002) 6 SCC 635)] and NIA Vs Hilli Multipurpose Cold Storage [ 2014 AIOL 4615] on the other in so far as the power of the courts to extend time for filing of Written Statement/reply to a complaint is concerned. The earlier mentioned line of decision take the view that the relevant provisions including those of Order 8 Rule 1 of the Civil Procedure Code 1908 are directory in nature and the Courts concerned have the power to extend time for filing the written statement. The second line of decisions which are also of coordinate Benches however takes a contrary view and hold that when it comes to power of the Consumer Fora to extend the time for filing a reply there is no such power. Since the question that falls for determination here often arises before the Consumer Fora and Commissions all over the country it will be more appropriate if the conflict is resolved by an authoritative judgement. Further since the conflict is between Benches comprising three Judges we deem it fit to refer these appeals to a five – Judge Bench to resolve the conflict once and for all. While we do so we are mindful of the fact that in the ordinary course a two –

 

 

 

 

-12-

Judge Bench ought to make a reference to a three – Judge Bench in the first place but in the facts and circumstances of the case and keeping in view the fact that the conflict is between coordinate benches That comprising three Judges a reference to 3 Judges may not suffice”

The Hon’ble Supreme Court in para 41 of the judgement has held :

“ To conclude, we hold that our answer to the first question is that The District Forum has no power to extend the time for filing the response to the complainant beyond the period of 15 days in addition to 30 days as envisaged under section 13 of the Consumer Protection Act ; and the answer to the second question is that the commencing point of limitation of 30 days under Section 13 of the Consumer Protection Act would be from the date of receipt of the notice accompanied with the complainant by the opposite party and not mere receipt of the notice of the complainant.”

The Hon’ble Supreme Court in para 40 of the judgement has held :

“………….. we may, however, clarified that the objection of not having received a copy of the complaint along with the notice should be raised on the first date itself and not thereafter, otherwise permitted to be raised at any point later on defeat the very purpose of the Act, which is to provide simple and speedy Redressal of consumer disputes.”

यह अपीलार्थी पर निर्भर था कि वह अधिनियम के आज्ञापक प्रावधानों को ध्‍यान में रखता। दिन-प्रति-दिन विलम्‍ब का स्‍पष्‍टीकरण दिया जाना चाहिए, जिसको देने में अपीलार्थी असफल रहा है। उपभोक्‍ता संरक्षण अधिनियम में समयावधि अत्‍यधिक महत्‍वपूर्ण है। ऐसी स्थिति में हम इस

 

 

 

-13-

निष्‍कर्ष पर पहुँचते हैं कि विलम्‍ब क्षमा करने का कोई आधार नहीं है। साथ ही साथ उपरोक्‍त परिस्थितियों में वर्तमान अपील उपरोक्‍त न्‍यायिक दृष्‍टान्‍तों के अनुसार कालबाधित होने के आधार पर निरस्‍त होने योग्‍य है।

आदेश

वर्तमान अपील गुणदोष एवं कालबाधित होने के आधार पर निरस्‍त की जाती है।

अपील व्‍यय उभय पक्ष पर।

      उभय पक्ष को इस निर्णय की प्रमाणित प्रति नियमानुसार उपलब्‍ध करायी जाय।

      वैयक्तिक सहायक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।

 

 

                   (सुशील कुमार)                (राजेन्‍द्र सिंह)

                      सदस्‍य                         सदस्‍य                    

 

निर्णय आज खुले न्‍यायालय में हस्‍ताक्षरित, दिनांकित होकर उद्घोषित किया गया।

 

 

                   (सुशील कुमार)                (राजेन्‍द्र सिंह)

                      सदस्‍य                        सदस्‍य                    

 

 

 

प्रमोद कुमार

वैय0सहा0ग्रेड-1,

कोर्ट नं.-2.      

 

 

 

 

 

 

 
 
[HON'BLE MR. Rajendra Singh]
PRESIDING MEMBER
 
 
[HON'BLE MR. SUSHIL KUMAR]
JUDICIAL MEMBER
 

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