राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील सं0-1107/2011
(जिला उपभोक्ता फोरम, गाजियाबाद द्वारा परिवाद संख्या—०७/२००९ में पारित निर्णय/आदेश दिनांक-१८/०५/२०११ के विरूद्ध)
हरजीत सिंह बी-१२८, पुष्पांजलि एनक्लेव पीतमपुरा दिल्ली-११००३४।
.............अपीलार्थी
बनाम
- उत्तर प्रदेश हाउसिंग एण्ड डेवलपमेंट बोर्ड वसुन्धरा काम्प्लेक्स सेक्टर १६-ए, वसुन्धरा गाजियाबाद-२०१०१२ ।
.........विपक्षीसं0-१/प्रत्यर्थी सं0-1
- असिसटेंट हाउसिंग कमिश्नर (एस्टेट मैनेजमेंट आफिस) उत्तर प्रदेश हाउसिंग एण्ड डेवलपमेंट बोर्ड हाल एस-१ वसुन्धरा काम्प्लेक्स सेक्टर १६-ए वसुन्धरा गाजियाबाद।
...........विपक्षी सं0-२/प्रत्यर्थी सं0-२
समक्ष:-
- माननीय श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठा0सदस्य
- माननीय श्री महेश चन्द, सदस्य ।
अपीलकर्ता की ओर से उपस्थित : कोई नहीं ।
प्रत्यर्थीगण की ओर से उपस्थित: श्री मनोज मोहन विद्वान अधिवक्ता ।
दिनांक:.20/09/2016
माननीय श्री महेश चन्द, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
प्रस्तुत अपील विद्वान जिला उपभोक्ता फोरम, गाजियाबाद द्वारा परिवाद संख्या—०७/२००९ हरजीत सिंह बनाम उ0प्र0 हाउसिंग एण्ड डेवलपमेंट बोर्ड में पारित निर्णय/आदेश दिनांक-१८/०५/२०११ के विरूद्ध प्रस्तुत की गयी है।
संक्षेप में तथ्य इस प्रकार हैं कि परिवादी ने उ0प्र0 आवास एवं विकास परिषद की वसुन्धरा योजना, गाजियाबाद में भवन/फ्लैट के आवंटन हेतु दिनांक १६/१२/१९८२ को पंजीकरण कराया था और उक्त पंजीकरण हेतु उसने दिनांक १६/१२/१९८२ को रू0३०००/- की धनराशि जमा की । बाद में उसने पुन: दिनांक ०४/०४/१९८६ को पंजीकरण मद में बढ़ी हुई धनराशि रू0 ५०००/- जमा कराई। विपक्षी ने पंजीकरण धनराशि में पुन: वृद्धि के फलस्वरूप जुलाई १९९७ में रू0 १५०२०/- की अतिरिक्त धनराशि जमा कराई। इस प्रकार विपक्षी द्वारा पंजीकरण मद में कुल रू0 २३०२०/- जमा किए गए। इतनी लंबी अवधि में योजना के बदलते स्वरूप के कारण प्रस्तावित भवन के मूल्य में भी वृद्धि हो गयी। पूर्व में जहां प्रश्नगत भवन की अनुमानित कीमत १६०००/-रू0 से २५०००/-रू0 बतायी गयी थी। १९९७ में उसकी अनुमानित कीमत ६ लाख ५ हजार रूपये से ६ लाख ७५ हजार रूपये तक आकलित की गयी। नई कीमतों पर भवन आवंटन करने के संबंध में विपक्षी द्वारा परिवादी से सहमति मांगी गयी किन्तु परिवादी ने नई कीमत पर उक्त भवन के आवंटन के संबंध में अपनी सहमति नहीं दी। अत: विपक्षी ने अपने पत्र दिनांक २०/१२/२००१ के द्वारा परिवादी का पंजीकरण निरस्त कर दिया और उसे सूचित किया कि वह चाहे तो अपनी पंजीकरण धनराशि वापस ले सकता है। इसके उपरांत दिनांक २८/०४/२००५ को चेक सं0-६८३२०३ दिनांक २७/०४/२००५ के द्वारा पंजीकरण की धनराशि ब्याज सहित अंकन रू0 ३०७७५/-रू0 वापस कर दी गयी और परिवादी ने उस चेक को विरोध सहित प्राप्त कर लिया। परिवादी ने इसे विपक्षी के स्तर पर सेवा में कमी मानते हुए जिला उपभोक्ता फोरम में एक परिवाद दायर कर दिया और उक्त परिवाद में परिवादी का पंजीकरण पुनर्जीवित कर आवास विकास परिषद की पुरानी स्कीम में भवन/फ्लैट आवंटित करने का अनुरोध किया गया ।
परिवादी के इस परिवाद का विपक्षी द्वारा प्रतिवाद किया गया और परिवाद पत्र में उल्लिखित इस कथन को स्वीकार किया कि परिवादी ने दिनांक १६/१२/१९८२ को एलआईजी भवन प्राप्त करने हेतु अपना पंजीकरण कराया था और विपक्षीगण ने परिवादी को पंजीकरण की धनराशि ब्याज सहित दिनांक २८/०४/२००५ को वापस कर दी थी। प्रतिवाद पत्र में यह भी कहा गया कि चूंकि परिवादी का उक्त परिवाद ०४ वर्ष के बाद दायर किया गया है अत: कालातीत होने के कारण खण्डित होने योग्य है। विपक्षी ने परिवादी से भवन आवंटन हेतु सहमति मांगी थी किन्तु परिवादी ने भवन आवंटन के संबंध में अपनी सहमति नहीं दी, इसलिए विपक्षी ने परिवादी का किसी प्रकार कोई उत्पीड़न अथवा सेवा में कोई कमी नहीं की है। प्रतिवाद पत्र मे यह भी कहा गया है कि परिवादी द्वारा जमा की गयी पंजीकरण की धनराशि वापस की जा चुकी है। उसको पुनर्जीवित नहीं किया जा सकता है। विपक्षी परिवादी का परिवाद कालातीत होने के कारण खारिज किए जाने का अनुरोध किया है।
उभय पक्षों के विद्वान अधिवक्ता एवं पत्रावली में उपलब्ध साक्ष्यों का परिशीलन करने के उपरांत जिला मंच ने यह कहा कि तकनीकी रूप से यह परिवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानों में निर्धारित सीमा अवधि के बाद दायर किया गया है लेकिन मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों के आलोक में यह एक उचित मामला है जिसमें परिवाद प्रस्तुत करने में हुए विलंब के दोष को विलुप्त कर दिया जाय और तदनुसार विलंब को क्षमा कर दिया किन्तु परिवाद को इस आधार पर खण्डित कर दिया कि चूंकि परिवादी को विपक्षी द्वारा भवन आवंटित नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में परिवादी उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आता है और परिवादी किसी प्रकार का कोई अनुतोष पाने का अधिकारी नहीं है और परिवाद को खण्डित कर दिया।
इस आदेश से क्षुब्ध होकर यह अपील योजित की गयी है।
अपीलकर्ता के विद्वान अधिवक्ता उपस्थित नहीं है। प्रत्यर्थी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री मनोज मोहन उपस्थित हैं। उनके तर्कों को सुना गया एवं पत्रावली पर उपलब्ध अभिलेखों का परिशीलन किया गया।
अपीलकर्ता ने अपील में उन सभी बातों को दोहराया है जो उसने अपने प्रतिवाद पत्र में वर्णित किए हैं।
अपीलकर्ता ने यह भी कहा है कि वह लगभग २२ वर्ष तक एक मकान प्राप्त करने के लिए प्रतीक्षा करता रहा किन्तु उसके साथ विपक्षी ने धोखा किया और २२ वर्ष तक उसे कोई मकान आवंटित नहीं किया गया बल्कि उसका पंजीकरण भी निरस्त कर दिया गया। अपीलकर्ता ने अपनी अपील में यह भी कहा कि विद्वान जिला मंच ने परिवाद दायर करने में हुए विलंब को क्षमा कर दिया है किन्तु विद्वान जिला मंच ने परिवादी को उपभोक्ता न मानकर उसका परिवाद खण्डित करके त्रुटि की है।
अपीलकर्ता ने लखनऊ विकास प्राधिकरण बनाम एम0के0 गुप्ता (१९९४) एआईआर ७८७ १९९४ एससीसी (१) २४३ में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश दिनांक ०५/११/१९९३ को उदृत किया और कहा कि उक्त निर्णय में उपभोक्ता की श्रेणी को भलीभांति परिभाषित किया है। उक्त निर्णय के आलोक में उसका परिवाद निरस्त किया जाना त्रुटिपूर्ण है।
प्रत्यर्थी के विद्वान अधिवक्ता ने कहा कि अपीलकर्ता प्रत्यर्थी द्वारा समय समय पर सूचना भेजी गयी और यह अवश्य है कि उक्त आवासीय योजना लंबे समय तक लंबित रही और उ0प्र0 आवास एवं विकास परिषद की नीतियों के अनुसार समय समय पर पंजीकरण की धनराशि में वृद्धि हुई और स्कीम में परिवर्तन हुआ। फलस्वरूप समय के अनुसार संपत्ति की कीमतों में वृद्धि भी हुई । बढ़ी हुई कीमतों पर भवन आवंटित करने से पूर्व परिवादी से पूछा गया कि क्या वह बढ़ी हुई दरों पर प्रस्तावित भवन आवंटित किए जाने के लिए सहमत है तो उसने उक्त के संबंध में कोई सहमति नहीं दी। विपक्षी के पास सिवाय इसके कोई विकल्प उपलब्ध नहीं था कि वह परिवादी का पंजीकरण निरस्त कर देता और उसके द्वारा जमा की गयी पंजीकरण धनराशि अनुमन्य ब्याज दरों पर ब्याज सहित वापस कर दी। चूंकि परिवादी का परिवाद कालातीत था और उसका पंजीकरण निरस्त किए जाने के ०४ वर्ष की अवधि के बाद दायर किया गया था यद्धपि विद्वान जिला मंच ने उक्त विलंब के दोष को विलुप्त कर दिया किन्तु गुण-दोष के आधार पर परिवादी का कोई हित प्रश्गनत भवन आवंटन में नहीं था, अत: वह उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आता है। जब तक किसी व्यक्ति को कोई भवन आवंटित नहीं होता, वह मात्र पंजीकरण के आधार पर उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आ सकता। इस संबंध में मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा समय-समय पर यह अवधारित किया जा चुका है कि पंजीकरण के आधार पर किसी को उपभोक्ता नहीं माना जा सकता और इस मामले में उसकी पंजीकरण धनराशि भी वापसकी जा चुकी है। अत: वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम १९८६ की धारा २डी के अन्तर्गत उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है।
उपरोक्त तथ्यों एवं परिस्थितियों के आलोक में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि प्रश्नगत प्रकरण विद्वान जिला मंच द्वारा पारित निर्णय में किसी प्रकार की कोई त्रुटि नहीं है। तदनुसार अपील निरस्त किए जाने योग्य है।
आदेश
अपील निरस्त की जाती है। जिला उपभोक्ता फोरम, गाजियाबाद द्वारा परिवाद संख्या—०७/२००९ हरजीत सिंह बनाम उ0प्र0 हाउसिंग एण्ड डेवलपमेंट बोर्ड में पारित निर्णय/आदेश दिनांक-१८/०५/२०११ की पुष्टि की जाती है।
उभयपक्ष अपना-अपना वाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
उभयपक्षों को इस निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि नियमानुसार नि:शुल्क उपलब्ध कराई जाए।
(उदय शंकर अवस्थी) ( महेश चन्द )
पीठा0सदस्य सदस्य
सत्येन्द्र, आशु0 कोर्ट नं0-४