(सुरक्षित)
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील सं0- 1912/2017
(जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0- 386/2012 में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक 26.08.2017 के विरुद्ध)
1. Union of India through Post Master, Up Dakghar, Railway colony, Bhartiya Dak Vibhag, Gorakhpur.
2. Senior Superintendent of Post offices, Gorakhpur Division, Gorakhpur.
………Appellants
Versus
1. Surendra kumar srivastava S/o Late Ram Chandra Prasad, R/o 790-A, Vishnupuram colony, Basharatpur, District Gorakhpur.
2. Smt. Madhubala srivastava, W/o Sri Surendra kumar srivastava, R/o 790-A, Vishnupuram colony, Basharatpur, District Gorakhpur.
……….Respondents
समक्ष:-
1. माननीय श्री गोवर्धन यादव, सदस्य।
2. माननीय श्री विकास सक्सेना, सदस्य।
अपीलार्थीगण की ओर से : डॉ0 उदयवीर सिंह के
सहयोगी श्री कृष्ण पाठक,
विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से : कोई नहीं।
दिनांक:- 23.07.2021
माननीय श्री विकास सक्सेना, सदस्य द्वारा उद्घोषित
निर्णय
1. परिवाद सं0- 386/2012 सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव व एक अन्य बनाम यूनियन आफ इंडिया व एक अन्य में पारित निर्णय व आदेश दि0 26.08.2017 के विरूद्ध उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 15 के अंतर्गत यह अपील प्रस्तुत की गई है। जिला उपभोक्ता आयोग, गोरखपुर द्वारा परिवाद स्वीकार करते हुए निम्न आदेश पारित किया गया है:-
‘’परिवादीगण का यह परिवाद विरुद्ध विपक्षीगण स्वीकार किया जाता है। विपक्षीगण को आदेशित किया जाता है कि निर्णय तिथि के 45 दिनों के अन्दर परिवादी सं0- 1 के खाता सं0- 5401821 से की गयी कटौती की धनराशि मु0 80150.00रु0 पर निर्धारित ब्याज 8 प्रतिशत दिनांक 24.12.2008 तक भुगतान करे, तथा परिवादी सं0 2 के खाता सं0 5401820 से की गयी कटौती की धनराशि मु0 6000.00रू0 पर निर्धारित ब्याज 8 प्रतिशत दिनांक 09.01.2009 तक भुगतान करे।‘’
विपक्षीगण नियत तिथि के अन्दर परिवादीगण को क्षतिपूर्ति हेतु मु0 3000.00रू0 एवं वाद व्यय हेतु मु0 2000.00रु0 अदा करे। यदि विपक्षीगण द्वारा उक्त सम्पूर्ण धनराशि समयार्न्गत नहीं दिया जाता है तो परिवाद संस्थापन की तिथि से पूर्ण भु्गतान की तिथि तक 9 प्रतिशत अतिरिक्त ब्याज देय होगा।‘’
2. मामले के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण ने दि0 09.01.2006 को एम0आई0एस0 स्कीम के अंतर्गत डाकघर रेलवे कालोनी, गोरखपुर में दो खाते खोले थे जिसमें एक खाता सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव के नाम तथा दूसरा खाता मधुबाला श्रीवास्तव के नाम छ:-छ: लाख रू0 का छ: वर्ष के लिए खोला था, जिस पर 08 प्रतिशत वार्षिक ब्याज देय था। प्रत्यर्थी सं0- 2/परिवादिनी सं0- 2 श्रीमती मधुबाला के खाता पर जमा धनराशि पर अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा 36 माह तक 08 प्रतिशत ब्याज मासिक प्रदान किया गया तथा प्रत्यर्थी सं0- 1/परिवादी सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव के खाते पर 34 माह तक 08 प्रतिशत ब्याज का भुगतान किया गया, किन्तु प्रत्यर्थी सं0- 1/परिवादी सं0- 1 के खाते में जमा धनराशि 6,00,000/-रू0 पर बिना किसी सूचना के ब्याज बन्द कर दिया गया और उक्त खाते से रू0 80,150/-रू0 की कटौती कर ली गई तथा प्रत्यर्थी सं0- 2/परिवादिनी सं0- 2 के खाते से बिना सूचना के 5,94,000/-रू0 चेक के द्वारा वापस कर दिया, अर्थात मु06,000/- की कटौती कर ली गई। प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण के अनुसार अपीलार्थीगण/विपक्षीगण की सेवा में कमी हुई। प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण द्वारा अधिवक्ता के माध्यम से विधिक नोटिस दि0 29.01.2009 को प्रेषित करने पर अपीलार्थीगण/विपक्षीगण द्वारा बताया गया कि जमा धनराशि नियमानुसार नहीं थी। प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण ने पुन: दि0 30.09.2009 को नोटिस भेज कर अपीलार्थीगण/विपक्षीगण से रू0 86,000/- की मांग की जिसका अपीलार्थीगण/विपक्षीगण ने भुगतान नहीं किया। अत: यह परिवाद प्रस्तुत किया गया है।
3. परिवाद में अपीलार्थीगण/विपक्षीगण ने प्रतिवाद प्रस्तुत किया जिसमें कथन किया है कि अपीलार्थी सं0-1/विपक्षी सं0- 1 ने दि0 09.01.2006 को रू0 6,00,000/- का खाता सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव तथा श्रीमती मधुबाला के नाम से संयुक्त रूप से खोला। इसी प्रकार प्रत्यर्थी सं0- 2/परिवादिनी सं0- 2 ने एक दूसरा खाता उसी दिनांक मधुबाला श्रीवास्तव तथा सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव के नाम से संयुक्त खाता खोला। इस प्रकार प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण द्वारा दोनों खातों में नामों के माध्यम से हेरा फेरी की गई। अपीलार्थीगण/विपक्षीगण द्वारा प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण को बताया गया कि एकल खाते में अधिकतम 3,00,000/-रू0 व संयुक्त खाते में अधिकतम 6,00,000/-रू0 जमा किए जा सकते हैं। प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण के एम0आई0एस0 खाते जो बाद में खुले थे दि0 24.12.2008 को नियम विरुद्ध बताते हुए उस पर भुगतान किए गए ब्याज मु0 80,150/- की कटौती कर दि0 05.04.2002 को एम0आई0एस0 के नियम 08 का अनुसरण करते हुए शेष धनराशि 5,19,850/-रू0 का भुगतान करने के लिए SB-7 फार्म दिया गया तथा खाता बन्द कर दिया गया। प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण ने बाद में खुले खाते पर नियम के विरुद्ध 36 माह तक ब्याज का भुगतान पाते रहे जब विभाग के संज्ञान में आया तो दि0 24.12.2008 को भुगतान की गई धनराशि में से रू0 80,150/- की कटौती कर शेष धनराशि का चेक द्वारा भुगतान कर खाता बन्द कर दिया गया। इसी प्रकार प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण के पूर्व खाते दि0 09.01.2009 को SB-7 फार्म विथड्राल करने पर नियमानुसार 01 प्रतिशत भुगतान कर खाता बन्द कर दिया गया। इस प्रकार अपीलार्थीगण/विपक्षीगण द्वारा सेवा में कोई कमी नहीं की गई।
4. अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता डॉ0 उदयवीर सिंह के सहयोगी श्री कृष्ण पाठक उपस्थित हैं। प्रत्यर्थीगण की ओर से कोई उपस्थित नहीं है।
5. अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता के तर्क को सुना तथा पत्रावली पर उपलब्ध अभिलेखों का परिशीलन किया गया।
6. विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने सुनवाई के उपरांत परिवाद स्वीकार करते हुए अपीलार्थीगण/विपक्षीगण को आदेशित किया कि वे खाता सं0- 5401821 में की गई कटौती की धनराशि मु080,150/- पर निर्धारित ब्याज 08 प्रतिशत दि0 24.12.2008 तक भुगतान करें। इसी प्रकार खाता सं0- 5401820 में की गई कटौती की धनराशि मु06,000/- पर निर्धारित ब्याज 08 प्रतिशत दि0 09.01.2009 तक भुगतान करें। इसके अतिरिक्त क्षतिपूर्ति हेतु रू0 3,000/-, वाद व्यय हेतु रू0 2,000/- दिलवाये जाने और 45 दिन के भीतर उक्त धनराशि न दिए जाने पर 09 प्रतिशत का अतिरिक्त ब्याज दिए जाने के आदेश पारित किए गए, जिससे व्यथित होकर यह अपील प्रस्तुत की गई है।
7. अपील में मुख्य रूप से यह आधार लिए गए हैं कि परिवाद धारा 24A उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत समय-सीमा से बाधित है। वाद का कारण दि0 09.01.2009 को उत्पन्न हुआ जब फार्म सं0- SB-7 के माध्यम से भुगतान करते हुए प्रश्नगत खाता बन्द किया गया। विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने इस तथ्य को नजरंदाज किया कि एम0आई0एस0 खाता सं0- 5401821 प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण द्वारा संयुक्त रूप से दिया गया था जिसमें प्रस्तावित परिसीमा से अधिक धनराशि जमा की गई और यह 12,00,000/-रू0 तक पहुंच गई जो विधि अनुसार मान्य नहीं थी। अपीलार्थीगण/विपक्षीगण इस गलती को दुरुस्त करने के हकदार थे और अधिक लिया गया ब्याज समायोजित किया गया, क्योंकि सरकार द्वारा जारी योजना और नियमों के अनुसार किया गया था। अपीलार्थीगण मिनिस्ट्री ऑफ फाइनेंस (DEA) के नोटिफिकेशन सं0- GSR 80 (E) दिनांकित 01.02.2000 तथा GSR 613 (E) दिनांकित 18.07.2000 DG पोस्ट लेटर सं0- 97-19/86-SB दिनांकित 27.12.1996 से बधे हुए थे। विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने इन दोनों तथ्यों को नजरंदाज करते हुए सेवा में कमी का निष्कर्ष दिया जो गलत है। प्रथम खाता सं0- 5401820 का कोई विवाद नहीं था और वह प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण ने अपनी स्वेच्छा से बन्द किया जब कि पोस्ट ऑफिस बैंक एकाउंट नियमावली 1981 के नियम 4 व 8 के अनुसार यदि एम0आई0एस0 नियम के विरुद्ध कोई खाता खोला जाता है तो वह हेड पोस्ट मास्टर के आदेश से बन्द किया जायेगा जो इस मामले में किया गया। इस मामले में खाता सं0- 5401821 प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण द्वारा नियम के उल्लंघन में खोला गया था जो बन्द किया गया। मा0 सर्वोच्च न्यायालय एवं मा0 राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग के निर्णयों के प्रकाश में अपीलार्थीगण/विपक्षीगण ने कोई सेवा में कमी नहीं की है, इसलिए प्रश्नगत निर्णय व आदेश निरस्त किए जाने योग्य है। अपीलार्थीगण/विपक्षीगण द्वारा सद्भावी त्रुटि के कारण खाता खोला गया था और प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण नियमों के उल्लंघन में कोई लाभ पाने के अधिकारी नहीं हैं। अत: प्रश्नगत निर्णय व आदेश अपास्त किए जाने एवं अपील स्वीकार किए जाने योग्य है।
8. अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि मिनिस्ट्री ऑफ फाइनेंस (DEA) के नोटिफिकेशन सं0- GSR 80 (E) दिनांकित 01.02.2000 तथा GSR 613 (E) दिनांकित 18.07.2000 DG पोस्ट लेटर सं0- 97-19/86-SB दिनांकित 27.12.1996 के प्रकाश में पोस्ट ऑफिस के मंथली सेविंग स्कीम में अधिकतम धनराशि 6,00,000/-रू0 संयुक्त खाते में जमा किए जाने का नियम है, जिस पर अधिक ब्याज देय होता है। इस प्रकार उपरोक्त नोटिफिकेशन एवं नियम साधारण खण्ड अधिनियम के अनुसार संविधि (Statute) की श्रेणी में आते हैं जिसके ज्ञान होने की अवधारणा पोस्ट आफिस एवं उपभोक्ता दोनों के लिए की जाती है। यदि कोई करार किसी संविधि (Law) के उल्लंघन में किया जाता है तो करार का उतना भाग अवैध माना जायेगा। इस संविधि में भारतीय संविदा अधिनियम 1872 की धारा 23 में यह भी अवधारणा दी गई है कि ‘’करार का प्रतिफल या उद्देश्य विधिपूर्ण है, सिवाय जब कि वह विधि द्वारा निषिद्ध हो; अथवा वह ऐसी प्रकृति का हो कि यदि वह अनुज्ञात किया जाए तो वह किसी विधि के उपबंधों को विफल कर देगा।‘’ धारा 23 निम्नलिखित प्रकार से है:- What Cosiderations and objects one lawful and what not – The considerations or object of the agreement is lawful, unless-
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Is of such a notes that if permitted, it would defeat the provisions if any law i or
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भारतीय संविदा अधिनियम का यह सिद्धांत भी है कि करार का जितना भाग विधि पूर्ण है उतना भाग विधि पूर्ण संविदा बनाता है और पक्षकार उसे मानने के लिए बाध्य हैं, किन्तु करार का जितना भाग विधि के अनुसार नहीं है पक्षकार उसे मानने के लिए बाध्य नहीं हैं और करार का उतना भाग शून्य हो जायेगा। प्रस्तुत मामले में पोस्ट आफिस के बचत खाते में जमा किए गए 6,00,000/-रू0 की धनराशि नियम के अनुकूल है। अत: उतनी धनराशि पर देय ब्याज दोनों पक्षों के मध्य हुई संविदा के अनुरूप दिया जायेगा, किन्तु 6,00,000/-रू0 से अधिक धनराशि का भाग जो नियमों के विरुद्ध है उस सम्बन्ध में करार शून्य रहेगा और उस पर करार में दिए गए ब्याज को देने के लिए अपीलार्थीगण बाध्य नहीं हैं तथा सान्या की दृष्टि से प्रचलित सेविंग बैंक दर पर ब्याज दिया जाना उचित है। इस सम्बन्ध में अपीलार्थीगण की ओर से मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा पारित निर्णय Union of India & Anr. V/s Rajinder singh 2016 CJ(NCDRC)64 प्रकाशित किया गया है, जिसमें पोस्ट आफिस (Monthly Income Account Rules) 1987 के नियम 4 पर आधारित करते हुए यह प्रदान किया गया कि जिस स्थिति पर पोस्ट आफिस को यह संज्ञान में आया कि उक्त नियम का उल्लंघन करते हुए 6,00,000/-रू0 से अधिक धनराशि पोस्ट आफिस में संचित की गई है तो 6,00,000/-रू0 से अधिक की धनराशि पर मात्र सेविंग बैंक दर से देय ब्याज पोस्ट आफिस को देना होगा, क्योंकि नियमत: धनराशि पर नियमानुसार संविदा के अनुसार ब्याज देय होगा। पोस्ट आफिस को अधिक धनराशि का संज्ञान होने के उपरांत भी जिस तिथि तक धनराशि नहीं लौटायी गई उस तिथि तक ब्याज अधिक देय होगा, क्योंकि यह पोस्ट आफिस की गलती है, क्योंकि उसने ज्ञात होने के उपरांत भी धनराशि क्यों नहीं लौटायी?
9. प्रस्तुत मामले पर मा0 राष्ट्रीय आयोग का निर्णय लागू होता है। इस मामले में यह ज्ञात होने पर कि प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण ने खाता सं0- 5401820 में 6,00,000/-रू0 की धनराशि सुरेन्द्र कुमार श्रीवास्तव एवं श्रीमती मधुबाला श्रीवास्तव के नाम से संयुक्त रूप से खोल लिया है। पुन: इसी स्कीम में एक अन्य खाता 5401821 भी नामों के क्रम को बदलते हुए पुन: खोला गया जब कि पोस्ट आफिस Monthly Income Account Rules 1987 के नियम 4 के अनुसार उन्हीं व्यक्तियों द्वारा संयुक्त खाते में 6,00,000/-रू0 से अधिक रूपये पर उक्त अधिक ब्याज का लाभ नहीं मिलेगा क्योंकि नियम के अनुसार संयुक्त खाते में धनराशि की सीमा 6,00,000/-रू0 है।
10. इस सम्बन्ध में मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय Arulmighu Dhandayudha Paniswamy Vs. Director General of Post Offices & Ors. III (2006) CPJ 118 (SC) के वाद में पारित निर्णय भी यहां पर प्रासंगिक है। निर्णय में मा0 सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पोस्ट आफिस सेविंग स्कीम के नियम 17 में प्रदान की गई अधिकतम सीमा से अधिक धनराशि जमा की गई थी। मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि अधिकतम सीमा से अधिक धनराशि यदि जमा की गई है तो पोस्ट आफिस उक्त सीमा से अधिक धनराशि पर नियम के अनुसार ब्याज देने के लिए बाध्य नहीं है। प्रस्तुत मामले में खाता सं0- 5401820 में अधिक दिया गया ब्याज वापस लिया गया एवं इसी प्रकार खाता सं0- 5401821 की सम्पूर्ण धनराशि पोस्ट आफिस द्वारा वापस कर दी गई जिसमें से पूर्व में दी गई अधिक ब्याज की धनराशि को घटा दिया गया।
11. अपीलार्थीगण के अनुसार खाता सं0- 5401820 में धनराशि प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण द्वारा विथड्राल करने पर नियमानुसार 01 प्रतिशत भुगतान करते हुए खाता बन्द किया गया है। अत: खाता सं0- 5401821 में प्रदान किए गए नियम विरुद्ध ब्याज को अपीलार्थीगण द्वारा वापस लिया जाना अनुचित नहीं माना जा सकता है तथा अधिक धनराशि पर नियमानुसार ब्याज दिया गया है वह भी उचित प्रतीत होता है। प्रश्नगत निर्णय व आदेश में नियम विरुद्ध द्वितीय खाता सं0- 5401821 में की गई कटौती जो नियम विरुद्ध ब्याज दिया गया था उसको वापस लेकर धनराशि को दिलाया जाना गलत माना है, जब कि नियम विरुद्ध ब्याज प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण को दिलाया जाना मा0 सर्वोच्च न्यायालय एवं मा0 राष्ट्रीय आयोग के निर्णय के अनुसार उचित नहीं है। अत: प्रश्नगत निर्णय व आदेश उचित नहीं पाया जाता है जो अपास्त किए जाने योग्य है तथा अपील स्वीकार किए जाने योग्य है।
आदेश
अपील स्वीकार की जाती है। जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा पारित निर्णय व आदेश अपास्त किया जाता है एवं प्रत्यर्थीगण/परिवादीगण का परिवाद अपील स्तर पर निरस्त किया जाता है।
अपील में उभयपक्ष अपना-अपना व्यय स्वयं वहन करेंगे।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय/आदेश को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।
(गोवर्धन यादव) (विकास सक्सेना)
सदस्य सदस्य
शेर सिंह, आशु0,
कोर्ट नं0- 2