सुरक्षित
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
अपील संख्या-1055/2004
(जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, शाहजहॉंपुर द्वारा परिवाद संख्या-156/2002 में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक 31-12-2003 के विरूद्ध)
Managing Director, Mahindra& Mahindra Limited, through Area Manager, Automotive Centre, 5th floor, Saran Chambers, 5-Park Road, Hazratganj, Lucknow.
अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम्
- Smt. Mamta Agnihotri wife of Sri Kunj Bihari Agnihotri.
- Kunj Bihari Agnihotri Son of Sri Radhey Shyam Agnihotri.
Both residents of C/o Umakant Agnihotri Cantt. Road, Civel Lines First, Shajahanpur.
प्रत्यर्थीगण/परिवादी
- Managing Director, M/s Auto Wheels Limited, Rampur Road, Bareilly.
- Manager The New India Insurance Company Limited, Rampur Road, Bareilly.
- Tata Finance Ltd, Rampur Road, Bareilly.
- Sangam Automobiles, Negohi Road, Shahjahanpur.
प्रत्यर्थीगण/विपक्षीगण
समक्ष :-
1- मा0 श्री चन्द्र भाल श्रीवास्तव, पीठासीन सदस्य।
2- मा0 श्रीमती बाल कुमारी, सदस्य।
1- अपीलार्थी की ओर से उपस्थित – श्री काशी नाथ शुक्ला।
2- प्रत्यर्थी संख्या 1 व 2 की ओर से उपस्थित- श्री बी0के0 उपाध्याय।
3- प्रत्यर्थी संख्या-4 की ओर से उपस्थित- श्री नीरज पालीवाल।
दिनांक : 09-01-2015
मा0 श्रीमती बाल कुमारी, सदस्य द्वारा उदघोषित निर्णय
अपीलाथी ने प्रस्तुत अपील विद्धान जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, शाहजहॉंपुर द्वारा परिवाद संख्या-156/2002 में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक 31-12-2003 के विरूद्ध प्रस्तुत की है जिसमें निम्न आदेश पारित किया गया –
''परिवाद विपक्षी संख्या-4, 5 व 6 के विरूद्ध खारिज किया जाता है परन्तु वे वाद व्यय अपना-अपना स्वयं वहन करेंगे।
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परिवाद विपक्षी संख्या-1, 2 व 3 के विरूद्ध एकपक्षीय रूप से स्वीकार किया जाता है। इन तीनों विपक्षीगण को आदेशित किया जाता है कि आज से एक माह में वांछित धनराशि अंकन 4,08,750/-रू0 का भुगतान परिवादी संख्या-1 को कर दें। बाद गुजरने मियाद इस पर नौ प्रतिशत वार्षिक साधारण ब्याज भी देय होगा। तद्नुसार भुगतान किये जाने के बाद प्रश्नगत जीप का कब्जा विपक्षी संख्या-1 लगायत 3 सम्मिलित या एकल रूप से प्राप्त करने के अधिकारी होंगे, से क्षुब्ध होकर यह अपील योजित की गयी है।
संक्षेप में इस केस के तथ्य इस प्रकार हैं कि परिवादी ने विपक्षी कम्पनी महेन्द्रा एण्ड महेन्द्रा लि0 द्वारा निर्मित एक जीप जिसका विवरण परिवाद के प्रस्तर 3 में दिया है, विपक्षी संख्या-3 से जो निर्माता कम्पनी विपक्षी संख्या-1 व 2 का डीलर है से खरीदी थी तथा अंकन 3,66,868.28 रूपये का भुगतान विपक्षी संख्या-3 को दिया। यह जीप यू0पी0-27 सी-5298 के पंजीकरण नम्बर पर पंजीकृत की गयी थी। दिनांक 11-12-2000 को क्रय किये जाने के दो माह बाद ही दिनांक 12-02-2001 को इस जीप की चेचिस क्रेक हो गयी जिसे बदलने के लिए विपक्षीसंख्या-3 से कहा गया परन्तु विपक्षी संख्या-3 ने कोई कार्यवाही नहीं की। बाद में पता चला कि इस जीप में चेचिस किसी एक्सीडेंट की गाड़ी की रिपेयर करके लगा दी गयी इसलिए यह खराबी आई और प्रश्नगत जीप सड़क पर चलने लायक ही नहीं रही है। बैटरी भी इसकी खराब निकली और चेचिस भी नहीं बदली और बैटरी भी नहीं बदली। इस प्रकार परिवादी का कुल अंकन 4,08,750/-रू0 की क्षति हुई। विपक्षी संख्या-4 बीमा कम्पनी विपक्षी संख्या-5 फाइनेंस कम्पनी एवं विपक्षी संख्या-6 शाहजहॉंपुर की इकाई है इसलिए उन्हें पक्षकार बनाया गया है।
विपक्षी संख्या-4 ने उत्तर पत्र दाखिल किया है और कहा है कि विवाद बीमा से संबंधित नहीं है क्योंकि प्रश्नगत जीप दुर्घटनाग्रस्त नहींहै। विपक्षी संख्या-5 ने उत्तर पत्र दाखिल किया और कहा है कि उनका इस विवाद से कोई संबंध नहींहै और उनके विरूद्ध कोई अनुतोष ही नहीं चाहा है। विपक्षी संख्या-6 का भी कोई विवाद नहीं है।
विपक्षी संख्या-1 लगायत 3 द्वारा वाद तामीला कोई भी उत्तर पत्र दाखिल नहीं किया गया जबकि अनुतोष उन्हीं के विरूद्ध चाहा गया है। उनके विरूद्धपरिवादी द्वारा प्रस्तुत एकपक्षीय साक्ष्य पर अविश्वास करने का कोई कारण नहीं है।
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अपीलार्थी की ओर से विद्धान अधिवक्ता श्री काशीनाथ शुक्ला एवं प्रत्यर्थी संख्या-1 व 2 की ओर से श्री बी0 के0 उपाध्याय एवं प्रत्यर्थी संख्या-4 की ओर से श्री नीरज पालीवाल उपस्थित आए।
उभयपक्ष के विद्धान अधिवक्तागण को विस्तार से सुना गया और अभिलेख का अवलोकन किया गया।
पत्रावली का अवलोकन यह दर्शाता है कि दिनांक 31-12-2003 के प्रश्नगत आदेश की प्रति दिनांक 10-03-2004 को प्राप्त करने के उपरान्त अपील दिनांक 24-05-2004 को प्रस्तुत की गयी है, जो कि प्रथम दृष्टया समय-सीमा अवधि से बाधित है।
अपीलार्थी की ओर से विद्धान अधिवक्ता उपस्थित आये और उनकी ओर से स्थगन हेतु प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया गया है और प्रश्नगत अपील अंगीकरण के स्तर पर लगभग 10 वर्षों से विचाराधीन है।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह अवलोकनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या-1166/2006 बलवन्त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्बन्धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के अलावा यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी सम्भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्यक देरी कारित न होने के लिए आवश्यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था। इसी प्रकार राम लाल तथा अन्य बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्योंकि पर्याप्त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्बन्धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्यायालय को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि न्यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्तर पर अपील से सम्बन्धित सभी संगत तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को
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न्यायालय द्वारा संगत तथ्यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए।
हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्ट मास्टर जनरल तथा अन्य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्य, सिविल अपील संख्या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्पन्न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्थानों, प्रबन्धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और स्वीकार किए जाने योग्य स्पष्टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्य स्पष्टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्व होता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से
उपलब्ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्त किया जाए।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के
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प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
उपरोक्त सन्दर्भित विधिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में हमने अपीलार्थी द्वारा प्रदर्शित उपरोक्त तथ्यों का अवलोकन एवं विश्लेषण किया है और यह पाया है कि स्पष्टतया उपरोक्त सन्दर्भित स्पष्टीकरण सदभाविक स्पष्टीकरण नहीं है, ऐसा स्पष्टीकरण नहीं है जिससे अपीलार्थी अपील योजित किए जाने में हुई देरी से बच नहीं सकता था।
दिनांक 31-12-2003 के विवादित आदेश की सत्य प्रति दिनांक 10-03-2004 को प्राप्त कर लिये जाने के उपरान्त भी प्रदत्त सीमा अवधि तक अपील न किये जाने और दिनांक 24-05-2004 को अर्थात् लगभग दो माह बाद इस अपील को योजित किए जाने का कोई स्पष्ट औचित्य नहीं है। देरी होने सम्बन्धी तथ्य को जिस प्रकार से वर्णित किया गया है, उससे यह नहीं लगता है कि उसके अलावा कोई विकल्प अपील में देरी से बचने का नहीं था। अत: हम धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 द्वारा प्रदत्त 30 दिन की कालावधि के अवसान के पश्चात् यह अपील ग्रहण किए जाने योग्य नहीं पाते हैं क्योंकि अपीलार्थी उस अवधि के भीतर अपील न योजित करने के सम्बन्ध में पर्याप्त कारण के प्रति ऐसा स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने में विफल है, जिससे हमारा समाधान हो सके कि कालावधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण की जा सकती है। अत: यह अपील, अपील को अंगीकार किये जाने के प्रश्न पर सुनवाई करते हुए ही समय-सीमा से बाधित होने के कारण अस्वीकार की जाने योग्य है।
आदेश
अपील उपरोक्त अस्वीकार की जाती है।
उभयपक्ष अपना-अपना अपीलीय व्ययभार स्वयं वहन करेंगे।
पक्षकारों को निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि नियमानुसार उपलब्ध करायी जाए।
( चन्द्र भाल श्रीवास्तव ) ( बाल कुमारी )
पीठासीन सदस्य सदस्य
कोर्ट नं0-4
प्रदीप मिश्रा