राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या-2520/2014
(मौखिक)
(जिला उपभोक्ता फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद संख्या 202/2013 में पारित आदेश दिनांक 08.08.2014 के विरूद्ध)
भारत संघ द्वारा महाप्रबन्धक, पूर्वी रेलवे कोलकाता ....................अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम
रामदरश पुत्र स्व0 रामप्रीति, पता- द्वारा दीन दयाल शुक्ल म0नं0-436, राप्ती नगर, स्पोर्ट कालेज, चतुर्थ चरण, पो0-चरगवां, जिला-गोरखपुर .................प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
1. माननीय न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष।
2. माननीय श्री जुगुल किशोर, सदस्य।
3. माननीय श्री राज कमल गुप्ता, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री प्रेम प्रकाश श्रीवास्तव, विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : कोई नहीं।
दिनांक : 19.02.2015
माननीय न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष द्वारा उदघोषित
निर्णय
अपीलार्थी द्वारा यह अपील जिला उपभोक्ता फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद संख्या 202/2013 में पारित आदेश दिनांक 08.08.2014 के विरूद्ध प्रस्तुत की गयी है। विवादित आदेश निम्नवत् है:-
'' परिवादी का परिवाद विरूद्ध विपक्षी स्वीकार किया जाता है। परिवादी, विपक्षी से 112000.00 (एक लाख बारह हजार रू0) की क्षतिपूर्ति की धनराशि प्राप्त करने का अधिकारी है। विपक्षी को निर्देशित किया जाता है कि वह निर्णय व आदेश के दिनांक से एक माह की अवधि के अंतर्गत समस्त आज्ञप्ति की धनराशि परिवादी को प्रदान करे अथवा बैंक ड्राफ्ट के माध्यम से मंच में जमा करे, जो परिवादी को दिलाई जा सके। नियत अवधि में आदेश का परिपालन न किए जाने की स्थिति में परिवादी समस्त आज्ञप्ति की धनराशि पर 09 प्रतिशत साधारण वार्षिक ब्याज प्रार्थनापत्र के दिनांक से अंतिम वसूली तक विपक्षी से प्राप्त करने का अधिकारी होगा एवं समस्त आज्ञप्ति की धनराशि विपक्षी से विधि अनुसार वसूल की जाएगी।''
श्री प्रेम प्रकाश श्रीवास्तव विद्वान अधिवक्ता अपीलार्थी को सुना गया और अभिलेख का अवलोकन किया गया।
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पत्रावली का अवलोकन यह दर्शाता है कि दिनांक 08.08.2014 के प्रश्नगत आदेश की प्रति दिनांक 22.08.2014 को प्राप्त करने के उपरान्त अपील दिनांक 02.12.2014 को प्रस्तुत की गयी है, जो कि प्रथम दृष्ट्या समय-सीमा अवधि से बाधित है। अपीलार्थी की ओर से समय-सीमा अवधि में छूट सम्बन्धी प्रार्थना पत्र मय शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि रेल अधिवक्ता ने निर्णय की सत्यापित प्रतिलिपि दिनांक 08.08.2014 को प्राप्त की और दिनांक 11.08.2014 को विपक्षी के कार्यालय में भेजा, जो विपक्षी के कार्यालय में सम्बन्धित लिपिक को दिनांक 21.08.2014 को प्राप्त हुई। सम्बन्धित लिपिक ने पत्रावली सम्बन्धित अधिकारी के समक्ष पेश की और सम्बन्धित अधिकारी ने दिनांक 22.08.2014 को प्रश्नगत आदेश के विरूद्ध अपील करने हेतु पत्रावली निर्णय की प्रतिलिपि के साथ विधि अनुभाग भेजने का आदेश दिया। पत्रावली दिनांक 01.09.2014 को सम्बन्धित लिपिक को विधि अनुभाग पूर्व रेलवे कोलकाता से अपील दाखिल करने की सहमति के साथ प्राप्त हुई तथा रेलवे अधिवक्ता से भी राय लेने को कहा गया और सम्बन्धित लिपिक द्वारा अपने अधिकारी के समक्ष पत्रावली दिनांक 02.09.2014 को प्रस्तुत की गयी और सम्बन्धित अधिकारी ने दिनांक 03.09.2014 को पत्रावली रेल अधिवक्ता उत्तर रेलवे लखनऊ के पास विधिक राय हेतु भेजने का आदेश्ा दिया और दिनांक 04.09.2014 को पत्रावली रेल अधिवक्ता लखनऊ के पास भेजी गयी और जो दिनांक 05.09.2014 को रेल अधिवक्ता को प्राप्त करायी गयी। दिनांक 11.09.2014 को रेल अधिवक्ता द्वारा अपील दाखिल करने की राय दी गयी। कुछ समय 25000/-रू0 का बैंक ड्राफ्ट बनवाने तथा अपील को तैयार करने में लगा और अन्त में अपील दिनांक 02.12.2014 को दाखिल की गयी। अपील दाखिल करने में विलम्ब जानबूझकर नहीं किया गया है। इस कारण विलम्ब क्षमा योग्य है।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह अवलोकनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या-1166/2006 बलवन्त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्बन्धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के अलावा यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी
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सम्भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्यक देरी कारित न होने के लिए आवश्यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था। इसी प्रकार राम लाल तथा अन्य बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्योंकि पर्याप्त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्बन्धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्यायालय को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि न्यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्तर पर अपील से सम्बन्धित सभी संगत तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को न्यायालय द्वारा संगत तथ्यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए।
हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्ट मास्टर जनरल तथा अन्य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्य, सिविल अपील संख्या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्पन्न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्थानों, प्रबन्धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और स्वीकार किए जाने योग्य स्पष्टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्य स्पष्टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्व होता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित
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भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्त किया जाए।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
उपरोक्त सन्दर्भित विधिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में हमने अपीलार्थी द्वारा प्रदर्शित उपरोक्त तथ्यों का अवलोकन एवं विश्लेषण किया है और यह पाया है कि स्पष्टतया उपरोक्त सन्दर्भित स्पष्टीकरण सदभाविक स्पष्टीकरण नहीं है, ऐसा स्पष्टीकरण नहीं है जिससे अपीलार्थी अपील योजित किए जाने में हुई देरी से बच नहीं सकता था। दिनांक 08.08.2014 के विवादित आदेश की सत्य प्रतिलिपि दिनांक 22.08.2014 को प्राप्त कर लिए जाने के उपरान्त भी प्रदत्त सीमा अवधि दिनांक 22.09.2014 तक अपील न किए जाने और दिनांक 02.12.2014 को अर्थात् लगभग 03 माह 10 दिन बाद इस अपील को योजित किए जाने का कोई स्पष्ट औचित्य नहीं है। देरी होने सम्बन्धी
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तथ्य को जिस प्रकार से वर्णित किया गया है, उससे यह नहीं लगता है कि उसके अलावा कोई विकल्प अपील में देरी से बचने का नहीं था। अत: हम धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 द्वारा प्रदत्त 30 दिन की कालावधि के अवसान के पश्चात् यह अपील ग्रहण किए जाने योग्य नहीं पाते हैं क्योंकि अपीलार्थी उस अवधि के भीतर अपील न योजित करने के सम्बन्ध में पर्याप्त कारण के प्रति ऐसा स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने में विफल है, जिससे हमारा समाधान हो सके कि कालावधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण की जा सकती है। अत: यह अपील, अपील को अंगीकार किये जाने के प्रश्न पर सुनवाई करते हुए ही समय-सीमा से बाधित होने के कारण अस्वीकार की जाने योग्य है।
आदेश
अपील उपरोक्त अस्वीकार की जाती है। अपीलार्थी द्वारा धारा-15 के अन्तर्गत जो धनराशि इस आयोग में जमा की गयी है, वह धनराशि जिला फोरम को वापस की जाए।
(न्यायमूर्ति वीरेन्द्र सिंह) (जुगुल किशोर) (राज कमल गुप्ता)
अध्यक्ष सदस्य सदस्य
जितेन्द्र आशु0
कोर्ट नं0-1
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील संख्या-२५२०/२०१४
(जिला मंच, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0-२०२/२००३ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक ०८-०८-२०१४ के विरूद्ध)
भारत संघ द्वारा महाप्रबन्धक, पूर्वी रेवले कोलकाता।
.............. अपीलार्थी/विपक्षी।
बनाम्
रामदरश पुत्र स्व0 रामप्रीति, पता- द्वारा दीन दयाल शुक्ल म0नं0-४३६, राप्ती नगर, स्पोर्ट कालेज, चतुर्थ चरण, पो0-चरगवां, जिला-गोरखपुर।
............... प्रत्यर्थी/परिवादी।
समक्ष:-
१. मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य।
२. मा0 महेश चन्द, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित :- श्री पी0पी0 श्रीवास्तव विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित :- श्री एस0के0 वर्मा विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक : २७-०४-२०१६.
मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
माननीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा पुनरीक्षण याचिका सं0-६९७/२०१५ में पारित आदेश दिनांक २०-१०-२०१५ द्वारा अपील के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब को क्षमा करते हुए गुणदोष के आधार पर अपील का निस्तारण किए जाने हेतु निर्देशित किया गया है।
प्रस्तुत अपील, जिला मंच, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0-२०२/२००३ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक ०८-०८-२०१४ के विरूद्ध योजित की गयी है।
संक्षेप में तथ्य इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थी/परिवादी रामदरश के पिता स्व0 रामप्रीति अपने जीवनकाल में कोलकता में प्राईवेट कार्य करते थे। कार्य कि सिलसिले में दिनांक ०७-११-२०११ को परिवादी के पिता ने कोलकता से अकबरपुर तक की रेल यात्रा के लिए टिकट खरीदा तथा कोलकता से यात्रा प्रारम्भ की। यात्रा के मध्य मुगलसराय रेलवे स्टेशन से पूर्व उनके पेट में असहनीय दर्द हो
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गया, जिसके सम्बन्ध में अन्य यात्रियों द्वारा ट्रेन में यात्रा कर रहे रेलवे के कर्मचारियों को सूचना दी गयी, किन्तु यात्रा के दौरान् रेल विभाग के कर्मचारियों द्वारा परिवादी के पिता को किसी प्रकार की चिकित्सा सहायता या सुविधा समय से उपलब्ध नहीं करायी गयी, जिसके कारण परिवादी के पिता की मृत्यु यात्रा के मध्य हो गयी। परिवादी ने क्षतिपूर्ति हेतु अपीलार्थी को नोटिस भेजी, किन्तु कोई क्षतिपूर्ति अदा नहीं की गयी। अत: परिवाद योजित किया गया।
विद्वान जिला मंच ने परिवाद को स्वीकार करते हुए अपीलार्थी को निर्देशित किया कि वह परिवादी को १,१२,०००/- रू० क्षतिपूर्ति की धनराशि ३० दिन के अन्दर अदा करे। निर्धारित अवधि में धनराशि की अदायगी न किए जाने पर परिवादी आज्ञप्त धनराशि पर ०९ प्रतिशत साधारण वार्षिक ब्याज प्रार्थना पत्र के दिनांक से अन्तिम वसूली तक विपक्षी से प्राप्त करने का अधिकारी होगा। इस निर्णय से क्षुब्ध होकर यह अपील योजित की गयी है।
हमने अपीलार्थी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री पी0पी0 श्रीवास्तव एवं प्रत्यर्थी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री एस0के0 वर्मा के तर्क सुने तथा अभिलेखों का अवलोकन किया।
अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि प्रश्नगत परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार जिला मंच, गोरखपुर को प्राप्त नहीं था, क्योंकि परिवादी के पिता ने प्रश्नगत यात्रा के सम्बन्ध में कोलकता से अकबरपुर का टिकट खरीदा था। मुगलसराय रेलवे स्टेशन के पहले अचानक पेट में दर्द होना बताया गया तथा मुगलसराय रेलवे स्टेशन पहुँचने से पहले ही परिवादी के पिता का देहान्त हो गया। जनपद गोरखपुर में कोई वादकारण उत्पन्न नहीं हुआ।
प्रत्यर्थी की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा-११ के अनुसार विपक्षी का जहॉं मुख्यालय हो, वहॉं परिवाद प्रस्तुत किया जा सकता है। प्रश्नगत प्रकरण में विपक्षी का मुख्यालय गोरखपुर
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में है, अत: परिवाद जनपद गोरखपुर में योजित किया गया।
अपीलार्थी की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि प्रश्नगत मामले में परिवादी के पिता द्वारा कोलकता-जम्मूतवी एक्सप्रेस कोलकता से अकबरपुर की यात्रा किया जाना बताया गया है तथा मुगलसराय रेलवे स्टेशन के समीप की घटना बतायी गयी है, जो पूर्व मध्य रेलवे के अन्तर्गत आता है, जिसका मुख्यालय गोरखपुर में न होकर कोलकता में है। उनके द्वारा यह तर्क भी प्रस्तुत किया गया कि वाद कारण गोरखपुर से किसी भी प्रकार सम्बन्धित न होने के बाबजूद मात्र मुख्यालय अथवा शाखा कार्यालय स्थिति होने के आधार पर क्षेत्राधिकार निर्धारित नहीं किया जा सकता। इस सन्दर्भ में उनके द्वारा सिविल अपील सं0-१५६०/२००४ सोनिक सर्जीकल बनाम नेशनल इंश्योरेंस कं0लि0 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय दिनांक २०-१०-२००९ पर विश्वास व्यक्त किया गया। अधिवक्ता अपीलार्थी द्वारा इस निर्णय के आधार पर उपभोक्ता आयोग मुम्बई द्वारा अपील सं0-ए/१०/१४४ हेमन्त वसन्त भवसार बनाम इन्चार्ज सेण्टर रेलवे बुकिंग आफिस व अन्य में दिए गये निर्णय दिनांक ३१-०३-२०११ पर भी विश्वास व्यक्त किया गया। अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा सन्दर्भित उपरोक्त निर्णयों का हमने अवलोकन किया। इन निर्णयों में यह मत व्यक्त किया गया है कि वाद कारण से किसी भी प्रकार सम्बन्धित न होने के बाबजूद मात्र शाखा कार्यालय के किसी जनपद में स्थित होने के आधार पर उस जनपद में परिवाद पोषणीय नहीं माना जा सकता। प्रस्तुत मामले में निर्विवाद रूप से परिवादी के पिता ने कोलकता से अकबरपुर की यात्रा हेतु टिकट खरीदा था तथा कोलकता से यात्रा प्रारम्भ की। मुगलसराय रेलवे स्टेशन के समीप पेट में दर्द होने के उपरान्त उनकी मृत्यु हो गयी। परिवादी के कथनानुसार रेलवे के कर्मचारियों को सहयात्रियों द्वारा परिवादी के पिता के गम्भीर रूप से बीमार होने की सूचना दिए जाने के बाबजूद कोई सहायता रेलवे के कर्मचारियों द्वारा उपलब्ध नहीं करायी गयी। इस प्रकार यह
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स्पष्ट है कि वाद कारण जनपद गोरखपुर में नहीं उत्पन्न हुआ। परिवादी के कथनानुसार जनपद गोरखपुर में अपीलार्थी का मुख्यालय स्थित होने के कारण परिवाद गोरखपुर में योजित किया गया। अपीलार्थी का यह कथन है कि प्रश्नगत मामले से सम्बन्धित रेलवे का मुख्यालय कोलकता है न कि गोरखपुर। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत उपरोक्त निर्णय के आलोक में हमारे विचार से प्रश्नगत परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार जिला मंच, गोरखपुर को प्राप्त नहीं था।
यह भी उल्लेखनीय है कि परिवादी के कथनानुसार उसके पिता की अस्वस्था से सम्बन्धित एवं उपचार की व्यवस्था किए जाने हेतु सहसात्रियों द्वारा रेलवे के कर्मचारियों को सूचना दी गयी, किन्तु प्रश्नगत निर्णय के अवलोकन से यह विदित नहीं होता कि परिवादी द्वारा जिला मंच के समक्ष इस सम्बन्ध में कोई साक्ष्य प्रस्तुत की गयी कि परिवादी के पिता की अस्वस्थता की सूचना किसे दी गयी तथा किसके द्वारा दी गयी। प्रश्नगत निर्णय में जी0आर0पी0 मुख्यालय द्वारा पुलिस अधीक्षक इलाहाबाद को प्रेषित की गयी जांच आख्या का उल्लेख किया गया है, जिसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला गया कि परिवादी के पिता की अस्वस्थता की सूचना सहयात्रियों द्वारा रेलवे के कर्मचारियों को दी गयी। इस जांच आख्या की प्रति अपीलार्थी द्वारा दाखिल की गयी। इस जांच आख्या के अवलोकन से यह विदित होता है कि जांच आख्या में ऐसा कोई तथ्य उल्लिखित नहीं है कि परिवादी के पिता की अस्वस्थता के सम्बन्ध में किस सहयात्री ने किस कर्मचारी को सूचना प्रेषित की, जबकि अपीलार्थी द्वारा जिला मंच के समक्ष प्रस्तुत किए गये प्रतिवाद पत्र में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित किया गया कि परिवादी के पिता के दौरान् यात्रा अस्वस्थ होने एवं उन्हें चिकित्सीय उपचार उपलब्ध कराये जाने की सूचना किसी सहयात्री द्वारा रेलवे के किसी कर्मचारी को उपलब्ध नहीं करायी गयी। रेल यात्रा के मध्य किसी यात्री की मृत्यु हो जाना नि:सन्देह अत्यन्त दु:खदायी है, किन्तु
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मात्र मृत्यु हो जाने के आधार पर अपीलार्थी द्वारा सेवा में त्रुटि किया जाना नहीं माना जा सकता। हमारे विचार से विद्वान जिला मंच ने पत्रावली पर उपलब्ध साक्ष्य का उचित परिशीलन न करते हुए प्रश्नगत निर्णय पारित किया है। तद्नुसार अपील स्वीकार करते हुए जिला मंच का प्रश्नगत आदेश अपास्त होने योग्य है।
आदेश
प्रस्तुत अपील स्वीकार की जाती है। जिला मंच, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0-२०२/२००३ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक ०८-०८-२०१४ अपास्त किया जाता है।
अपील व्यय के सम्बन्ध में कोई आदेश पारित नहीं किया जा रहा है।
उभय पक्ष को इस निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि नियमानुसार उपलब्ध करायी जाय।
(उदय शंकर अवस्थी)
पीठासीन सदस्य
(महेश चन्द)
सदस्य
प्रमोद कुमार
वैय0सहा0ग्रेड-१,
कोर्ट-५.