राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0 प्र0 लखनऊ।
मौखिक
अपील सं0-२१६२/२०१५
(जिला फोरम, लखीमपुर-खीर द्वारा परिवाद सं0-१६/२०१० में पारित निर्णय/आदेश दिनांक १९-१२-२०१३ के विरूद्ध)
महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा सोनी ट्रैक्टर्स, बाईपास, लखीमपुर खीरी द्वारा प्रौपराइटर अनूप सोनी।
........... अपीलार्थी/विपक्षी।
बनाम
ओम प्रकाश पाण्डेय पुत्र श्री श्रीधर पाण्डेय निवासी ग्राम व पोस्ट बंजरिया, लखीमपुर खीरी।
......... प्रत्यर्थी/परिवादी।
समक्ष:
१. मा0 न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष।
२. मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री ओ0पी0 श्रीवास्तव विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : कोई नहीं।
दिनांक : १९-१०-२०१५.
मा0 न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष द्वारा उदघोषित।
निर्णय
अपीलार्थी/विपक्षी की ओर से यह अपील, जिला फोरम, लखीमपुर-खीरी द्वारा परिवाद सं0-१६/२०१० में पारित निर्णय/आदेश दिनांक १९-१२-२०१३ के विरूद्ध योजित की गयी है। विवादित आदेश निम्नवत् उद्धरित किया जा रहा है :-
‘’ परिवाद एक पक्षीय रूप से स्वीकार करते हुये विपक्षी को निर्देश दिया जाता है कि वह परिवादी को मु0-७१००/-रू० वाद योजन के दिनांक ०४-११-२००९ से वास्तविक भुगतान की तिथि तक ९ प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित एक माह के अन्दर अदा करे। इसके अतिरिक्त परिवादी को मानसिक कष्ट व वाद व्यय हेतु मु०-५०००/-रू० भी इसी एक माह की अवधि में अदा करे। ‘’
श्री ओ0पी0 श्रीवास्तव विद्वान अधिवक्ता अपीलार्थी को इस अपील को अंगीकार किए जाने के प्रश्न पर सुना गया और अभिलेख का अवलोकन किया गया।
पत्रावली का अवलोकन दर्शाता है कि दिनांक १९-१२-२०१३ के प्रश्नगत आदेश की प्रति दिनांक ०१-०१-२०१४ को प्राप्त करने के उपरान्त अपील दिनांक १५-१०-२०१५ को प्रस्तुत की गयी है, जो कि प्रथम दृष्ट्या समय-सीमा अवधि से बाधित है। अपीलार्थी की ओर से समय-सीमा अवधि में
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छूट सम्बन्धी प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया गया है, जिसमें यह कहा गया है कि जिला मंच के प्रश्नगत निर्णय की प्रति दिनांक ०१-०१-२०१४ को प्राप्त हुई तथा अपील दाखिल करने में काफी विलम्ब है और विलम्ब जानबूझकर नहीं किया गया है, जो क्षमा योग्य है, परन्तु हम प्रार्थना पत्र में वर्णित कारणों को पर्याप्त आधार विलम्ब क्षमा हेतु नहीं पाते हैं क्योंकि प्रार्थना पत्र में यह कहना कि प्रश्नगत निर्णय के सम्बन्ध में निष्पादन वाद सं0-४२/२०१४ की नोटिस दिनांक २५-०९-२०१५ को प्राप्त होने पर जानकारी हुई, तब अपने अधिकवक्ता से कानूनी राय लेकर यह अपील योजित की गयी। ये ऐसे आधार हैं जिनको समय-सीमा अवधि में छूट सम्बन्धी प्राविधान के प्रति निम्नलिखित विधि सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में स्वीकार किए जाने योग्य नहीं पाया जाता है।
उपरोक्त वर्णित तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह अवलोकनीय है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या-1166/2006 बलवन्त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्बन्धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के अलावा यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी सम्भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्यक देरी कारित न होने के लिए आवश्यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था। इसी प्रकार राम लाल तथा अन्य बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्योंकि पर्याप्त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्बन्धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्यायालय को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि न्यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्तर पर अपील से सम्बन्धित सभी संगत तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को न्यायालय द्वारा संगत तथ्यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्त
-३-
करना चाहिए।
हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्ट मास्टर जनरल तथा अन्य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्य, सिविल अपील संख्या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्पन्न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्थानों, प्रबन्धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और स्वीकार किए जाने योग्य स्पष्टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्य स्पष्टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्व होता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्त किया जाए।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
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मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा फाइनेंसियल सर्विसेज लि0 बनाम नरेश सिंह, I(2013) CPJ (NC), जहॉं ७१ दिन का विलम्ब था, में यह विधिक सिद्धान्त दिया गया कि - “ condonation cannot be a matter to routine and the petitioner is required to explain delay for each and every date after expiry of the period of limitation. ” इसके अतिरिक्त यू.पी. आवास एवं विकास परिषद बनाम बृज किशोर पाण्डेय, IV (2009) CPJ 217(NC), जहॉं १११ दिन के विलम्ब का दिन-ब-दिन स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था, में भी मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा इसी प्रकार का विधिक सिद्धान्त दिया गया। मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा दिल्ली डेवलपमेण्ट अथॉरिटी बनाम वी.पी. नारायणन IV (2011) CPJ 155 (NC), जहॉं ८४ दिन का विलम्ब था, में यह विधिक सिद्धान्त दिया गया है कि- "this is enough to demonstrate that there was no reason for this delay, much less a sufficient cause to warrant its condonation". माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अन्शुल अग्रवाल बनाम नोएडा, IV(2011) CPJ 63 (SC), में निम्नवत् विधिक सिद्धान्त दिया गया है :-
"it is also apposite to observe that while deciding an application filed in such cases for condonation of delay, the court has to keep in mind that the special period of limitation has been prescribed under the Consumer Protection Act, 1986 for filing appeals and revisions in consumer matters and the object of expeditious adjudication of the consumer disputes will get defeated if this court was to entertain highly belated petition filed against the orders of the Consumer Fora."
उपरोक्त सन्दर्भित विधिक सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में हमने अपीलार्थी द्वारा प्रदर्शित उपरोक्त तथ्यों का अवलोकन एवं विश्लेषण किया है और यह पाया है कि स्पष्टतया उपरोक्त सन्दर्भित स्पष्टीकरण सदभाविक स्पष्टीकरण नहीं है, ऐसा स्पष्टीकरण नहीं है जिससे अपीलार्थी अपील योजित किए जाने में हुई देरी से बच नहीं सकता था। दिनांक १९-१२-२०१३ के विवादित आदेश की सत्य प्रतिलिपि दिनांक ०१-०१-२०१४ को प्राप्त कर लिए जाने के उपरान्त भी प्रदत्त सीमा अवधि में अपील न किए जाने और दिनांक १५-१०-२०१५ को अर्थात् लगभग एक वर्ष ०९ माह बाद इस अपील को योजित किए जाने का कोई स्पष्ट औचित्य नहीं है। देरी
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होने सम्बन्धी तथ्य को जिस प्रकार से वर्णित किया गया है, उससे यह नहीं लगता है कि उसके अलावा कोई विकल्प अपील में देरी से बचने का नहीं था। अत: हम धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 द्वारा प्रदत्त 30 दिन की कालावधि के अवसान के पश्चात् यह अपील ग्रहण किए जाने योग्य नहीं पाते हैं क्योंकि अपीलार्थी उस अवधि के भीतर अपील न योजित करने के सम्बन्ध में पर्याप्त कारण के प्रति ऐसा स्पष्टीकरण प्रस्तुत करने में विफल है, जिससे हमारा समाधान हो सके कि कालावधि के अवसान के पश्चात् अपील ग्रहण की जा सकती है। अत: यह अपील, अंगीकार किये जाने के प्रश्न पर सुनवाई करते हुए प्रत्यर्थी पक्ष को नोटिस निर्गत किए बिना ही समय-सीमा से बाधित होने के कारण अस्वीकार की जाने योग्य है।
आदेश
अपील उपरोक्त अस्वीकार की जाती है।
(न्यायमूर्ति वीरेन्द्र सिंह)
अध्यक्ष
(उदय शंकर अवस्थी)
सदस्य
प्रमोद कुमार
वैय0सहा0ग्रेड-१,
कोर्ट-१.