सुरक्षित
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0 लखनऊ
(जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, द्वितीय, आगरा द्वारा परिवाद संख्या 01
/2005 में पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 22.09.2011 के विरूद्ध)
अपील संख्या 484/2012
आगरा विकास प्राधिकरण ............अपीलार्थी
बनाम
मुनव्वर हुसैन . .............प्रत्यर्थी
समक्ष:-
1 मा0 श्री चन्द्र भाल श्रीवास्तव, पीठासीन सदस्य।
2 मा0 श्री जुगुल किशोर, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से विद्वान अधिवक्ता - श्री आर0के0 गुप्ता ।
प्रत्यर्थी की ओर से विद्वान अधिवक्ता - श्री उमेश कुमार श्रीवास्तव ।
दिनांक:
श्री चन्द्रभाल श्रीवास्तव, सदस्य (न्यायिक) द्वारा उदघोषित ।
निर्णय
प्रस्तुत अपील, जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम, द्वितीय, आगरा द्वारा परिवाद संख्या 01/2005 में पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 22.09.2011 के विरूद्ध प्रस्तुत की गयी है जिसके अन्तर्गत जिला फोरम ने परिवादी के परिवाद को स्वीकार करते हुए निम्नांकित आदेश पारित किया है:-
'' परिवाद पत्र स्वीकार किया जाता है। विपक्षीगण को आदेशित किया जाता है कि वह प्रश्नगत भवन संख्या 47, एलआईजी शास्त्रीपुरम् योजना प्रथम, आगरा का कब्जा इस निर्णय के 60 दिवस के भीतर परिवादी को उपलब्ध करायें तदोपरात 6 माह पश्चात बिना दण्ड व विलम्ब के प्रदेश पत्र के नियमानुसार किश्तें परिवादी से प्राप्त करें। इसके अतिरिक्त बतौर परिवाद व्यय रू0 2000.00 व क्षतिपूर्ति 3000.ऋ0 रू0 उक्त अवधि में परिवादी को अदा करें। ''
संक्षेप में, प्रकरण के आवश्यक तथ्य इस प्रकार हैं कि परिवादी भगवान सहाय कुलश्रेष्ठ का पावर आफ अटार्नी होल्डर है। परिवादी ने लोअर इनकम ग्रुप में शास्त्रीपुरम योजना में भवन आवंटन हेतु दिए गए आवेदन पर उसे भवन संख्या एल0आई0जी0 47 आवंटित किया गया । परिवादी ने विपक्षी के कार्यालय में वांछित औपचारिकतायें पूर्ण करते हुए वांछित धनराशि जमा की लेकिन उसे कब्जा निर्गत नहीं किया गया और उससे तिमाही इन्स्टालमेंट 1694.34 रू0 जमा करने को कहा गया जिसे परिवादी ने कब्जा न देने के कारण जमा नहीं किया। विपक्षी ने दिनांक 20.8.99 को उससे 87,354.74 रू0 की मांग की जो गलत है और उसके कानूनी नोटिस का भी कोई जबाव विपक्षी ने नहीं दिया है।
विपक्षी ने परिवादी के सभी आरोपों का खण्डन करते हुए कहा कि परिवादी मूल आवंटी नहीं है। उसके पास जो मुख्तारे-आम है, वह नोटरी द्वारा सत्यापित है, सब रजिस्ट्रार कार्यालय से पंजीकृत नहीं है । प्रश्नगत भवन भगवान सहाय कुलश्रेष्ठ को आवंटित किया गया था और इसी क्रम में 05 हजार रू0 प्राधिकरण कोष में जमा कराए गए हैं। मुनव्वर हुसैन को विवादित भवन आवंटित नहीं किया गया है इसलिए उसे कब्जा नहीं दिया गया है। उक्त भवन कब्जा देने के लिए अभी भी परिवादी के हक में रिक्त पड़ा है। परिवादी विपक्षी का उपभोक्ता नहीं है।
जिला मंच ने उभय पक्षों के साक्ष्य एवं अभिवचनो के आधार पर उपरोक्तानुसार परिवाद को स्वीकार कर लिया, जिससे क्षुब्ध होकर यह अपील योजित की गयी है।
अपील के आधारों में यह कहा गया है कि परिवादी मुनव्वर हुसैन भगवान सहाय कुलश्रेष्ठ की पावर आफ अटार्नी होल्डर हैं, उन्हें परिवाद प्रस्तुत करने का अधिकार नहीं था क्योंकि प्रश्नगत भवन भगवान सहाय कुलश्रेष्ठ को आवंटित किया गया था। भगवान सहाय कुलश्रेष्ठ द्वारा ही धनराशि जमा की गयी थी । परिवादी को कब्जा भी दे दिया गया है। परिवादी को अनुमानित मूल्य एवं वास्तविक मूल्य जमा करने हेतु नोटिस जारी की गयी थी, परिवादी आवर आफ अटार्नी के कारण उपभोक्ता नहीं है।
हमने उभय पक्ष के विद्वान अधिवक्तागण की बहस सुन ली है एवं अभिलेख का ध्यानपूर्ण अनुशीलन कर लिया है।
अभिलेख के अनुशीलन से स्पष्ट है कि प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश दिनांक 22.9.2011 को पारित किया गया है जिसकी सत्य प्रतिलिपि अपीलार्थी को दिनांक 30.9.2011 को प्राप्त हुयी है। अपीलार्थी द्वारा यह अपील पर्याप्त विलम्ब से दिनांक 12.3.2012 को दाखिल की गयी है। अपीलार्थी द्वारा विलम्ब क्षमा आवेदन में यह आधार लिया गया है कि पक्षकारों के बीच समझौते की बात हो रही थी। परिवादी द्वारा निष्पादन वाद दाखिल करने पर अपील दाखिल करने का निर्णय लिया गया। अपीलार्थी का विभागीय क्लर्क चुनाव डयूटी पर था, इन्हीं सब कारणों से अपील दाखिल करने में विलम्ब हुआ। विलम्ब का जो आधार लिया गया है, उसके प्रथम दृष्टया अवलोकन से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त आधार मात्र विलम्ब के औचित्य को सिद्ध करने हेतु गढ़े गए हैं, जोकि किसी भी रूप में संतोषजनक नहीं हैं।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सिविल अपील संख्या-1166/2006 बलवन्त सिंह बनाम जगदीश सिंह तथा अन्य में यह अवधारित किया गया है कि समय-सीमा में छूट दिए जाने सम्बन्धी प्रकरण पर यह प्रदर्शित किया जाना कि सदभाविक रूप से देरी हुई है, के अलावा यह सिद्ध किया जाना भी आवश्यक है कि अपीलार्थी के प्राधिकार एवं नियंत्रण में वह सभी सम्भव प्रयास किए गए हैं, जो अनावश्यक देरी कारित न होने के लिए आवश्यक थे और इसलिए यह देखा जाना आवश्यक है कि जो देरी की गयी है उससे क्या किसी भी प्रकार से बचा नहीं जा सकता था। इसी प्रकार राम लाल तथा अन्य बनाम रीवा कोलफील्ड्स लिमिटेड, AIR 1962 SC 361 पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि बावजूद इसके कि पर्याप्त कारण देरी होने का दर्शाया गया हो, अपीलार्थी अधिकार स्वरूप देरी में छूट पाने का अधिकारी नहीं हो जाता है क्योंकि पर्याप्त कारण दर्शाया गया है ऐसा अवधारित किया जाना न्यायालय का विवेक है और यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित नहीं हुआ है तो अपील में आगे कुछ नहीं किया जा सकता है तथा देरी को क्षमा किए जाने सम्बन्धी प्रार्थना पत्र को मात्र इसी आधार पर अस्वीकार कर दिया जाना चाहिए। यदि पर्याप्त कारण प्रदर्शित कर दिया गया है तब भी न्यायालय को यह विश्लेषण करने की आवश्यकता है कि न्यायालय के विवेक को देरी क्षमा किए जाने के लिए प्रयुक्त किया जाना चाहिए अथवा नहीं और इस स्तर पर अपील से सम्बन्धित सभी संगत तथ्यों पर विचार करते हुए यह निर्णीत किया जाना चाहिए कि अपील में हुई देरी को अपीलार्थी की सावधानी और सदभाविक परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में क्षमा किया जाए अथवा नहीं। यद्यपि स्वाभाविक रूप से इस अधिकार को न्यायालय द्वारा संगत तथ्यों पर कुछ सीमा तक ही विचार करने के लिए प्रयुक्त करना चाहिए।
हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आफिस आफ दि चीफ पोस्ट मास्टर जनरल तथा अन्य बनाम लिविंग मीडिया इण्डिया लि0 तथा अन्य, सिविल अपील संख्या-2474-2475 वर्ष 2012 जो एस.एल.पी. (सी) नं0 7595-96 वर्ष 2011 से उत्पन्न हुई है, में दिनांक 24.02.2012 को यह अवधारित किया गया है कि सभी सरकारी संस्थानों, प्रबन्धनों और एजेंसियों को बता दिए जाने का यह सही समय है कि जब तक कि वे उचित और स्वीकार किए जाने योग्य स्पष्टीकरण समय-सीमा में हुई देरी के प्रति किए गए सदभाविक प्रयास के परिप्रेक्ष्य में स्पष्ट नहीं करते हैं तब तक उनके सामान्य स्पष्टीकरण कि अपील को योजित करने में कुछ महीने/वर्ष अधिकारियों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया के परिप्रेक्ष्य में लगे हैं, को नहीं माना जाना चाहिए। सरकारी विभागों के ऊपर विशेष दायित्व होता है कि वे अपने कर्त्तव्यों का पालन बुद्धिमानी और समर्पित भाव से करें। देरी में छूट दिया जाना एक अपवाद है और इसे सरकारी विभागों के लाभार्थ पूर्व अनुमानित नहीं होना चाहिए। विधि का साया सबके लिए समान रूप से उपलब्ध होना चाहिए न कि उसे कुछ लोगों के लाभ के लिए ही प्रयुक्त किया जाए।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
उपर्युक्त सम्मानित विधि व्यवस्थाओं के प्रकाश में हम यह पाते हैं कि अपीलार्थी द्वारा अपील दाखिल करने में हुए विलम्ब का जो आधार लिया गया है, वह पर्याप्त एवं संतोष-जनक नहीं है और इस प्रकार अपील काल-बाधित होने के आधार पर ही निरस्त किए जाने के योग्य है।
जहां तक अपील के गुण-दोष का प्रश्न है, अपीलार्थी द्वारा मूलत: यह कहा गया है कि परिवादी भगवान सहाय कुलश्रेष्ठ का पावर आफ अटार्नी होल्डर मुनव्वर हुसैन को परिवाद दाखिल करने का अधिकार नहीं था, किन्तु विद्वान अधिवक्ता के इस तर्क में कोई बल प्रतीत नहीं होता है। अभिलेख पर पावर आफ अटार्नी की प्रतिलिपि दाखिल की गयी है जिसमें पावर आफ अटार्नी को सभी प्रकार के मुकदमें आदि दाखिल करने हेतु अधिकृत किया गया है। जिला फोरम ने अपने प्रश्नगत निर्णय में इन सभी बिन्दुओं का सम्यक् विवेचन किया है।
जहां तक पक्षकारों की देयता का प्रश्न है, जिला फोरम ने अपने प्रश्नगत आदेश में स्पष्ट किया है कि कब्जा देने के उपरांत विपक्षी परिवादी से नियमानुसार शेष किश्ते प्राप्त कर सकता है, किंतु दण्ड व ब्याज लेने से मना किया गया है, जोकि अपीलार्थी द्वारा की गयी सेवा में देखते हुए उपयुक्त प्रतीत होता है। जिला फोरम द्वारा 3000.00 रू0 क्षतिपूर्ति हेतु एवं 2000.00 रू0 परिवाद-व्यय हेतु आरोपित किया गया है, जोकि उचित है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अपील कालबाधित होने के साथ-साथ गुण-दोष के आधार पर भी अस्वीकार किए जाने के योग्य है।
आदेश
प्रस्तुत अपील तद्नुसार अस्वीकार की जाती है।
उभय पक्ष इस अपील का अपना-अपना व्यय स्वयं वहन करेंगे।
इस निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि पक्षकारों को नियमानुसार नि:शुल्क उपलब्ध करा दी जाए।
(चन्द्र भाल श्रीवास्तव) (जुगुल किशोर)
पीठा0 सदस्य (न्यायिक) सदस्य
कोर्ट-1
(S.K.Srivastav,PA)