राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील सं0-८१०/२००७
(जिला मंच, गौतम बुद्ध नगर द्वारा परिवाद सं0-१८०/२००५ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक २६-०२-२००७ के विरूद्ध)
१. राय यूनिवर्सिटी (Erstwhile) (नोएडा केम्पस), नेशनल केपिटल रीजन, सैक्टर १३८, मेन ग्रेटर नोएडा एक्सप्रेस वे, गौतम बुद्ध नगर।
२. राय यूनिवर्सिटी (Erstwhile)/ राय फाउण्डेशन, ए-४१, एम.सी.आई.ई., मथुरा रोड, नई दिल्ली-११००४४. ..................... अपीलार्थीगण/विपक्षीगण।
बनाम्
कु0 शैली चौहान, निवासी ए-१३६, सैक्टर-२७, नोएडा। ........ प्रत्यर्थी/परिवादिनी।
समक्ष:-
१- मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य।
२- मा0 श्री गोवर्द्धन यादव, सदस्य।
अपीलार्थीगण की ओर से उपस्थित :- श्री अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी विद्वान अधिवक्ता के
सहयोगी अधिवक्ता श्री सलिल त्रिपाठी।
प्रत्यर्थी/परिवादिनी की ओर से उपस्थित :- श्री आर0के0 गुप्ता विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक : ०९-०२-२०१८.
मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
प्रस्तुत अपील, जिला मंच, गौतम बुद्ध नगर द्वारा परिवाद सं0-१८०/२००५ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक २६-०२-२००७ के विरूद्ध योजित की गयी है।
संक्षेप में तथ्य इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थी/परिवादिनी के कथनानुसार अपीलार्थीगण द्वारा प्रदान किए गये ब्रोशर के आधार पर अपीलार्थी को वैध रूप से मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय मानते हुए परिवादिनी ने एम0सी0ए0 की रेगूलर डिग्री प्राप्त करने के आशय से शैक्षणिक सत्र २००४ के लिए दिनांक १३-०७-२००४ को प्रवेश प्राप्त किया था। अपीलार्थी ने परिवादिनी की शैक्षिक योग्यता के आधार पर निर्धारित १,५०,०००/- रू० की वार्षिक फीस में छूट प्रदान करते हुए परिवादिनी की वार्षिक फीस १,०९,५००/- रू० निर्धारित की। परिवादिनी ने अपीलार्थीगण के निर्देशानुसार प्रोसेसिंग शुल्क के रूप में १०,६००/- रू० दिनांक १३-०७-२००४ को प्रथम सेमेस्टर की देय फीस ४९,७५०/- रू० दिनांक १९-०७-२००४ को एवं दूसरे सेमेस्टर की देय फीस दिनांक १४-१२-२००४ को तथा पुन: ५,०००/- रू० दिनांक २५-०१-२००५ को अपीलार्थी के पास जमा कर रसीदें प्राप्त कीं। अपीलार्थी ने परिवादी को प्रारम्भ से ही भ्रमित एवं गुमराह किया। अपीलार्थी द्वारा यह भी नहीं बताया गया कि विश्वविद्यालय किस प्रदेश का हे। अपीलार्थी ने रेगूलर मान्यता
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प्राप्ता डिग्री देने का आश्वासन दिया था किन्तु अपीलार्थी द्वारा जारी की गई मार्कशीट एवं अन्य अभिलेखों में रेगूलर लिखा हुआ नहीं पाया गया। अपीलार्थी रेगूलर कोर्स की फीस लेकर दूरस्थ शिक्षा की डिग्री प्रदान कर रहा है जो अपीलार्थी के अनुचित व्यापार आचरण का द्योतक है। अपीलार्थी सं0-२ ने प्रवेश के समय परिवादिनी को यूनिवर्सिटी के नोएडा केम्पस में स्थानान्तरित करने का आश्वासन दिया था जिसे भी पूरा नहीं किया। अपीलार्थी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय नहीं है। अपीलार्थी विधि द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय के मानकों को पूरा नहीं करते हैं। इसी आधार पर मा0 उच्चतम न्यायालय ने अपीलार्थीगण की मान्यता निरस्त कर दी। अपीलार्थी विश्वविद्यालय में जिस परिसर में स्थित है उस परिसर में अपीलार्थी के अतिरिक्त अन्य संस्थान भी स्थित हैं। मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता निरस्त करने के पश्चात् अपीलार्थीगण ने अन्य संस्थानों अथवा विश्वविद्यालयों को डिग्री दिलाने हेतु पत्र प्रेषित कर अतिरिक्त शुल्क की मांग की गई। अपीलार्थीगण वर्तमान समय में भी किसी मान्यता प्राप्त विश्वविद्यालय से सम्बद्ध नहीं हैं। अपीलार्थीगण परिवादिनी द्वारा जमा की गई फीस को हड़पने के आशय से बिना उचित आधार के मान्यता प्राप्त डिग्री दिलाने का आश्वासन दे रहे हैं किन्तु अपीलार्थीगण को वर्तमान समय में भी विश्वाविद्यालय के रूप में विधिक मान्यता प्राप्त नहीं हो सकी है। परिणामस्वरूप अपीलार्थीगण द्वारा किए गये अनुचित व्यावसायिक आचरण एवं सेवा में कमी के कारण परिवादिनी ने अपीलार्थी के पास जमा की गई फीस १,१०,०५५/- रू० वापस दिलाए जाने एवं क्षतिपूर्ति की अदायगी हेतु परिवाद जिला मंच के समक्ष योजित किया।
अपीलार्थी सं0-१ पर्याप्त तामील के बाबजूद जिला मंच के समक्ष उपस्थित नहीं हुए और न ही प्रतिवाद पत्र प्रस्तुत किया। अत: परिवाद की कार्यवाही अपीलार्थी सं0-१ के विरूद्ध एक पक्षीय की गई।
अपीलार्थी सं0-२ द्वारा लिखित कथन जिला मंच में प्रस्तुत किया गया। अपीलार्थी सं0-२ ने परिवादिनी को विश्वविद्यालय में प्रवेश दिया जाना तथा परिवादिनी द्वारा कथित धनराशि शुल्क के रूप में जमा किया जाना स्वीकार किया किन्तु अपीलार्थी सं0-२ का यह कथन है कि परिवादिनी ने विश्वविद्यालय के प्रोस्पेक्टस एवं अभिलेखों की जांच-परख करके स्वेच्छा से अपीलार्थी विश्वविद्यालय में प्रवेश प्राप्त किया था। विश्वविद्यालय की एम0सी0ए0 की कठिन
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शिक्षा देख कर परिवादिनी ने स्वयं विश्वविद्यालय का त्याग किया। जानबूझकार द्वितीय सेमेस्टर की परीक्षा में सम्मिलित नहीं हुई। अपीलार्थी ने कभी भी परिवादिनी को किसी प्रकार से भ्रमित नहीं किया। यह विश्वविद्यालय छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा छत्तीसगढ़ निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ के अन्तर्गत जारी शासनादेश द्वारा स्थापित किया गया था जिसके अन्तर्गत अपीलार्थी डिग्री एवं डिप्लोमा प्रदान करने के लिए पूर्णत: सक्षम थे। मा0 उच्चतम न्यायालय ने प्रोफेसर यशपाल बनाम स्टेट आफ छत्तीसगढ़ के मामले में उपरोक्त अधिनियम के कुछ प्रावधानों को अवैध बताते हुए उन प्रावधानों को समाप्त कर दिया। परिणामस्वरूप अपीलार्थी विश्वविद्यालय का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। मा0 उच्चतम न्यायालय के निर्णय के प्रकाश में प्रवेश प्राप्त विद्यार्थियों के हितों को सुरक्षित रखने हेतु निरन्तर अपीलार्थी द्वारा प्रयास किए गये। अपीलार्थी द्वारा सेवा में कोई त्रुटि नहीं की गई।
विद्वान जिला मंच ने अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा सेवा में कमी किया जाना अवधारित करते हुए प्रश्नगत निर्णय द्वारा परिवाद स्वीकार किया तथा अपीलार्थीगण को निर्देशित किया कि आदेश की प्राप्ति के ४५ दिन के अन्दर परिवादिनी द्वारा जमा की गई धनराशि १,१०,०५५/- रू० ०९ प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित परिवादिनी को वापस करें। परिवादिनी अपीलार्थीगण से उक्त धन पर परिवाद पत्र के संस्थित किए जाने की तिथि से अन्तिम भुगतान तक उक्त दर पर ब्याज प्राप्त करेगी। उक्त के अतिरिक्त अपीलार्थीगण को यह भी निर्देशित किया गया कि मानसिक एवं आर्थिक क्षति के एवज में परिवादिनी को उपरोक्त अवधि के अन्तर्गत २५,०००/- रू० एवं वाद व्यय के रूप में २,०००/- रू० अदा करें।
इस निर्णय से क्षुब्ध होकर यह अपील योजित की गई।
हमने अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता श्री अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी के सहयोगी अधिवक्ता श्री सलिल त्रिपाठी एवं प्रत्यर्थी/परिवादिनी के विद्वान अधिवक्ता श्री आर0के0 गुप्ता के तर्क सुने तथा अभिलेखों का अवलोकन किया।
अपीलार्थीगण के विद्वान अधिवक्ता द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि शिक्षा को वस्तु नहीं माना जा सकता और न ही शिक्षण संस्थान सेवा प्रदाता की श्रेणी में माना जा सकता है। तद्नुसार विद्यार्थी को उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं माना जा सकता। अत: अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता के अनुसार प्रश्नगत परिवाद उपभोक्ता मंच में पोषणीय नहीं था। इस
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सन्दर्भ में अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता ने मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा बिहार स्कूल एक्जामिनेशन बोर्ड बनाम सुरेश प्रसाद सिन्हा, IV (2009) CPJ 34 (SC) में पारित निर्णय दिनांक ०४-०९-२००९ तथा महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी बनाम सुरजीत कौर, III (2010) CPJ 19 (SC) के मामले में दिए गये निर्णयों पर विश्वास व्यक्त किया। हमने उक्त मामलों में मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गये निर्णयों का अवलोकन किया। इन निर्णयों से सम्बन्धित मामलों के तथ्य एवं परिस्थितियॉं प्रस्तुत परिवाद के तथ्य एवं परिस्थितियों से भिन्न हैं। इन मामलों में विचारणीय बिन्दु भी भिन्न थे। बिहार स्कूल बोर्ड के मामले में मा0 उच्चतम न्यायालय के समक्ष विचारणीय बिन्दु यह था कि स्कूल एक्जामिनेशन बोर्ड उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अन्तर्गत आता है अथवा नहीं। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णीत किया गया कि बिहार स्कूल एक्जामिनेशन बोर्ड द्वारा आयोजित की जाने वाली परीक्षा, उत्तर पुस्तिका का मूल्यांकन, अंक पत्रों का प्रदान किया जाना उसके संविधीय कृत्य हैं। इन संविधीय कृत्यों को सम्पादित करने के लिए बोर्ड को सेवा प्रदाता नहीं माना जा सकता और न ही परीक्षार्थी को उपभोक्ता माना जा सकता। इसी प्रकार महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी के मामले में मा0 उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि यूनिवर्सिटी द्वारा बी.एड. डिग्री प्रदान किये जाने का विवाद उपभोक्ता मंच में पोषणीय नहीं है, क्योंकि कोई भी न्यायालय विधिक प्रावधानों के विरूद्ध निर्देश पारित नहीं कर सकता। मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गये उपरोक्त निर्णयों में यह निर्णीत नहीं किया गया है कि शिक्षण संस्थान द्वारा सेवा में त्रुटि किए जाने की स्थिति में उपभोक्ता मंच द्वारा अनुतोष प्रदान नहीं किया जा सकता।
मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा निर्णीत निम्नलिखित मामलों में मामलों के तथ्यों एवं परिस्थितियों का अवलोकन करने के उपरान्त शिक्षण संस्थानों द्वारा लापरवाही एवं सेवा में कमी किया जाना पाते हुए क्षतिपूर्ति दिलाए जाने हेतु आदेश पारित किया गया :-
1. Madan Lal Arora versus Ah. Dharm Pal Ji and others, 2013 SCC On Line NCDRC 363 decided on 15-04-2013.
2. St. Aloysus College versus Harsharaj Gatty, I (2016) CPJ 371 (NC).
3. Registrar Shanmuga Arts versus Consumer Protection Council, II (2015) CPJ 301 (NC).
4. Ashish Jain versus Institute of Business Management, IV (2015) CPJ 63 (NC).
5. Chaitanya Educational Institution versus Govind Prasa rath, II (2016) CPJ 35 (NC).
ऐसी परिस्थिति में अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता का यह तर्क स्वीकार किए जाने
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योग्य नहीं है कि प्रश्नगत परिवाद उपभोक्ता मंच के समक्ष पोषणीय नहीं था।
जहॉं प्रस्तुत मामले का प्रश्न है इस मामले में विचारणीय बिन्दु यह है कि क्या अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय की मान्यता के सन्दर्भ में प्रत्यर्थी/परिवादी को भ्रमित किया गया। तद्नुसार अनुचित व्यापार प्रथा कारित की गई और मान्यता के विषय में सम्पूर्ण स्थिति स्पष्ट न करते हुए परिवादिनी को भ्रमित रखते हुए प्रवेश दिलाया गया एवं फीस प्राप्त की गई तथा परिवादिनी द्वारा जमा की गई फीस वापस न करके सेवा में त्रुटि की गई।
अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि प्रत्यर्थी/परिवादिनी को अपीलार्थी विश्वविद्यालय की मान्यता के सम्बन्ध में भ्रमित नहीं किया गया। इस विश्वविद्यालय का सृजन छत्तीसगढ़ निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ के अन्तर्गत छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा जारी शासनादेश विज्ञप्ति सं0-एफ-७३-६४/२००३/एच0ई0/३८ दिनांकित ३०-०५-२००३ के अन्तर्गत हुआ। प्रत्यर्थी/परिवादिनी ने अपीलार्थी के दिल्ली सेण्टर में दिनांक १३-०७-२००५ को प्रवेश प्राप्त किया तथा परिवादिनी ने एम0सी0ए0 कोर्स के द्वितीय सेमेस्टर की पढ़ाई भी पूर्ण की। तदोपरान्त परिवादिनी ने अपनी स्वेच्छा से इस कोर्स की पढ़ाई को कठिन महसूस करते हुए संस्थान को छोड़ दिया। दिनांक ११-०२-२००५ को मा0 उच्चतम न्यायालय ने रिट याचिका, प्रोफेसर यशपाल व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य व अन्य में छत्तीसगढ़ निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ की धारा-५ व ६ को अवैध घोषित कर दिया। परिणामस्वरूप इस अधिनियम के अन्तर्गत सृजित सभी विश्वविद्यालयों का अस्तित्व समाप्त हो गया। विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों का हित सुरक्षित रखने हेतु विश्वविद्यालय द्वारा सभी प्रयास किए गये। अन्तरिम व्यवस्था हेतु अपीलार्थी ने आई0ए0एस0ई0 एवं यू0जी0सी0 द्वारा मान्यता प्राप्त डीम्ड विश्वविद्यालय में भी सम्पर्क किया। मा0 उच्चतम न्यायालय के निर्देशानुसार विश्वविद्यालय को विभिन्न राज्य विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध कराने का भी प्रयास किया गया। इस प्रयास में अपीलार्थी ने महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी रोहतक से वायबिलटी सर्टिफिकेट भी प्राप्त किया तथा ए0आई0सी0टी0ई से वन टाइम एप्रूवल भी प्राप्त किया। अपीलार्थी की ओर से यह तर्क भी प्रस्तुत किया गया कि विद्वान जिला मंच द्वारा दिया गया यह निष्कर्ष त्रूटिपूर्ण है कि विश्वविद्यालय में प्रवेश पाते समय प्रत्यर्थी/परिवादिनी को विश्वविद्यालय की मान्यता से सम्बन्धित अन्तर्निहित कमियॉं नहीं बताईं। परिवादिनी ने दिनांक १३-०७-२००४ को प्रवेश प्राप्त
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किया जबकि मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त रिट याचिका में निर्णय दिनांक ११-०२-२००५ को पारित किया। ऐसी परिस्थिति में इस निर्णय में उल्लिखित तथ्यों की जानकारी दिनांक १३-०७-२००४ को अपीलार्थी को होनी सम्भव नहीं थी। अपीलार्थी की ओर से यह तर्क भी प्रस्तुत किया गया कि पक्षकारों के मध्य निष्पादित संविदा के आलोक में प्रत्यर्थी/परिवादिनी फीस वापस प्राप्त करने की अधिकारिणी नहीं मानी जा सकती।
अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत किए गये उपरोक्त तर्कों से यह स्पष्ट है कि अपीलार्थी ने मुख्य रूप से अपीलार्थी विश्वविद्यालय को छत्तीसगढ़ निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ के अन्तर्गत जारी किए गये शासनादेश के अन्तर्गत सृजित होने के आधार पर विधिक रूप से सृजित होना बताया है। इस परिपेक्ष्य में अपीलार्थी की ओर से यह कहा गया कि यह नहीं माना जा सकता कि अपीलार्थी विश्वविद्यालय का सृजन विधि विरूद्ध किया गया और प्रत्यर्थी/परिवादिनी को भ्रमित करके प्रवेश प्राप्त कराया गया।
उल्लेखनीय है कि यह तथ्य निर्विवाद है कि रिट याचिका प्रोफेसर यशपाल व अन्य बनाम छत्तीसगढ़ राज्य व अन्य में मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय दिनांकित ११-०२-२००५ द्वारा छत्तीसगढ़ निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ की धारा-५ व ६ को अवैध घोषित किया गया एवं तद्नुसार इस अधिनियम के अन्तर्गत सृजित प्रत्येक विश्वविद्यालय का अस्तित्व समाप्त कर दिया गया। मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त रिट याचिका में दिए गये निर्णय की प्रति अपील मेमो के साथ अपीलार्थी द्वारा दाखिल की गई है। इस निर्णय के अवलोकन से यह विदित होता है कि मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा इस मामले में यह निर्णीत किया गया कि उक्त अधिनियम के अन्तर्गत निजी विश्वविद्यालयों के संचालन में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियन्त्रण की कोई व्यवस्था नहीं की गई। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मानकों के अनुपालन की व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की गई। इन निजी विश्वविद्यालयों द्वारा चलाए जा रहे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों पर नियन्त्रणकारी संस्थानों All India Council of Technical Education, Medical Council of India, Dental Council of India or any other statutory authority से पूर्व अनुमति की कोई व्यवस्था तथा इन संस्थानों की इन विश्वविद्यालयों पर नियन्त्रण की कोई व्यवस्था सुनिश्चित नहीं की गई,
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जिसके परिणामस्वरूप ऐसे निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ आ गई जिन्होंने इन नियन्त्रणकारी संस्थाओं द्वारा निर्धारित मानकों की अनदेखी करते हुए विश्वविद्यालयों का संचालन प्रारम्भ कर दिया तथा यू0जी0सी0 की मान्यता के बिना स्वनिर्धारित डिग्रियॉं देना प्रारम्भ कर दिया। ऐसी डिग्रियों को विद्यार्थियों एवं शिक्षा व्यवस्था के साथ मा0 उच्चतम न्यायालय ने धोखा माना। मा0 उच्चतम न्यायालय ने सम्पूर्ण प्रकरण की विस्तृत विवेचना के उपरान्त छत्तीसगढ़ निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ की धारा-५ व ६ को अवैध घोषित किया तथा इस अधिनियम के अन्तर्गत सृजित सभी विश्वविद्यालयों के अस्तित्व को समाप्त कर दिया। स्वाभाविक रूप से इस निर्णय के उपरान्त अपीलार्थी विश्वविद्यालय का अस्तित्व भी समाप्त हो गया किन्तु इस निर्णय के पैरा-४५ में ऐसे निजी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे छात्रों के हितों को सुरक्षित करने हेतु यह निर्देशित किया कि राज्य सरकार ऐसे विश्वविद्यालयों को छत्तीसगढ़ राज्य में पूर्व स्थित राज्य विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध करने हेतु प्रयास कर सकती है किन्तु इस सन्दर्भ में मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा यह स्पष्ट किया गया कि – ‘’ It is, however, made clear that the benefit of affiliation of an institution shall be extended only if it fulfills the requisite norms and standards laid down for such purpose and not to every kind of institution. Regarding technical, medical or dental colleges etc. affiliation may be accorded if they have been established after fulfilling the prescribed criteria laid down by the All India Council of Technical Education, Medical Council of India, Dental Council of India or any other statutory authority and with their approval of sanction as prescribed by law. ‘’
अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा इस सन्दर्भ में यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि मा0 उच्चतम न्यायालय के इस निर्देश के आलोक में विद्यार्थियों का हित सुरक्षित करने हेतु अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा प्रयास किया गया। तद्नुसार ऑल इण्डिया काउन्सिल आफ टेक्नीकल एजूकेशन से वन टाइम एप्रूवल प्राप्त किया गया। महर्षि दयानन्द यूनिवर्सिटी रोहतक से वायबिलटी सर्टिफिकेट प्राप्त किया गया। इस सन्दर्भ में अपील मेमो के साथ संलग्न, संलग्नक-बी की ओर हमारा ध्यान आकृष्ट किया गया। इन अभिलेखों के अवलोकन से यह नहीं विदित होता है कि अपीलार्थी विश्वविद्यालय ने प्रत्यर्थी/परिवादिनी द्वारा चयनित पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में किसी विश्वविद्यालय से सम्बद्धता प्राप्त की।
यदि वास्तव में अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा
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निर्धारित मानकों की पूर्ति की जा रही होती, अन्य सम्बन्धित नियन्त्रक संस्थानों द्वारा अपेक्षित मानकों की पूर्ति की जा रही होती तब स्वाभाविक रूप से मा0 उच्चतम न्यायालय द्वारा उपरोक्त रिट याचिका में पारित उपरोक्त निर्देश के अनुसार अपीलार्थी को किसी अन्य विश्वविद्यालय से सम्बद्धता प्राप्त हो जाती।
अपीलार्थी का यह कथन नहीं है कि प्रत्यर्थी/परिवादिनी से सम्बन्धित पाठ्क्रम के सन्दर्भ में अपीलार्थी संस्थान किसी अन्य विश्वविद्यालय से सम्बद्ध किया गया है। सम्भवत: अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा निर्धारित मानकों का अनुपालन न किए जाने के कारण अथवा प्रत्यर्थी/परिवादिनी द्वारा चयनित पाठ्यक्रम से सम्बन्धित नियन्त्रक संस्थाओं द्वारा निर्धारित मानकों की पूर्ति न किए जाने के कारण किसी राज्य विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्रदान नहीं की गई, अत: स्वाभाविक रूप से अपीलार्थी विश्वविद्यालय प्रत्यर्थी/परिवादिनी को उसके द्वारा चयनित पाठ्यक्रम के लिए मान्यता प्राप्त डिग्री प्रदान करने के लिए सक्षम नहीं था।
मात्र छत्तीसगण निजी क्षेत्र विश्वविद्यालय अधिनियम २००२ के अन्तर्गत विश्वविद्यालय सृजित होने के आधार पर स्वत: यह प्रमाणित नहीं माना जा सकता कि अपीलार्थी विश्वविद्यालय को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा अथवा अन्य नियन्त्रक संस्थाओं द्वारा मान्यता प्रदान की गई। इन संस्थानों द्वारा मान्यता के अभाव में परिवादिनी को जारी की जाने वाली डिग्री का परिवादिनी अथवा किसी विद्यार्थी के लिए कोई उपयोग नहीं होगा।
प्रश्नगत निर्णय के अवलोकन से यह विदित होता है कि जिला मंच के समक्ष अपीलार्थी द्वारा ऐसा कोई अभिलेख प्रस्तुत नहीं किया गया जिससे यह प्रमाणित माना जाय कि अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी/परिवादिनी को अपनी मान्यता से सम्बन्धित अप्रकट एवं अन्तर्निहित कमियों से अवगत कराया हो। ऐसी परिस्थिति में विद्वान जिला मंच का यह निष्कर्ष कि अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा अनुचित व्यापार प्रथा कारित की गई, हमारे विचार से त्रुटिपूर्ण नहीं है। क्योंकि अपीलार्थी विश्वविद्यालय द्वारा प्रत्यर्थी/परिवादिनी द्वारा चयनित पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में विधिक मान्यता प्राप्त डिग्री प्राप्त कराने की सक्षमता प्रमाणित नहीं है। ऐसी परिस्थिति में हमारे विचार से प्रत्यर्थी/परिवादिनी अपीलार्थी से चयनित पाठ्यक्रम के सन्दर्भ में जमा की गई धनराशि वापस प्राप्त करने की अधिकारिणी है।
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प्रश्नगत निर्णय के अवलोकन से यह विदित होता है कि विद्वान जिला मंच ने प्रत्यर्थी/परिवादिनी द्वारा जमा की गई धनराशि की ०९ प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित अदायगी हेतु आदेशित किया है। साथ ही २५,०००/- रू० क्षतिपूर्ति हेतु दिलाए जाने हेतु भी आदेशित किया है। क्योंकि जमा की गई फीस की धनराशि ब्याज सहित अदा कराई जा रही है, अत: अलग से क्षतिपूर्ति की अदायगी हेतु निर्देशित किये जाने का कोई औचित्य नहीं होगा। अत: २५,०००/- रू० की अदायगी हेतु पारित आदेश अपास्त किए जाने योग्य है। अपील तद्नुसार आंशिक रूप से स्वीकार किए जाने योग्य है।
आदेश
प्रस्तुत अपील, आंशिक रूप से स्वीकार की जाती है। जिला मंच, गौतम बुद्ध नगर द्वारा परिवाद सं0-१८०/२००५ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक २६-०२-२००७ इस प्रकार संशोधित किया जाता है कि जिला मंच द्वारा २५,०००/- रू० क्षतिपूर्ति के रूप में अदायगी का आदेश अपास्त किया जाता है। शेष आदेश की यथावत् पुष्टि की जाती है।
अपीलीय व्यय-भार उभय पक्ष अपना-अपना वहन करेंगे।
पक्षकारों को इस निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि नियमानुसार उपलब्ध करायी जाय।
(उदय शंकर अवस्थी)
पीठासीन सदस्य
(गोवर्द्धन यादव)
सदस्य
प्रमोद कुमार
वैय0सहा0ग्रेड-१,
कोर्ट-३.