(मौखिक)
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0 लखनऊ।
अपील संख्या:184/2020
(जिला उपभोक्ता आयोग, द्धितीय, लखनऊ द्वारा परिवाद संख्या-638/2009 में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक 18-11-2019 के विरूद्ध)
मनभावन सिंह आयु लगभग 75 वर्ष, पुत्र स्व0 श्री रघुवीर सिंह, निवासी 776 एल.डी.ए. कालोनी, फेज-11, टिकैतराय आवासीय योजना सआजदगंज, लखनऊ।
.अपीलार्थी/परिवादी
बनाम्
- लखनऊ विकास प्राधिकरण, गोमती नगर, लखनऊ।
- श्रीमान उपाध्यक्ष, लखनऊ विकास प्राधिकरण, गोमती नगर, लखनऊ।
- श्रीमान सचिव, लखनऊ विकास प्राधिकरण, गोमती नगर, लखनऊ।
- श्रीमान संयुक्त सचिव एवं प्रभारी टिकैतराय आवासीय योजना, लखनऊ, गोमतीनगर, लखनऊ।
- श्रीमान सम्पत्ति प्रबन्ध अधिकारी, टिकैतराय आवासीय योजना, लखनऊ गोमती नगर, लखनऊ।
प्रत्यर्थी/विपक्षीगण
समक्ष :-
- माननीय न्यायमूर्ति श्री अशोक कुमार, अध्यक्ष।
- माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य सदस्य।
उपस्थिति :
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित- कोई उपस्थित नहीं।
प्रत्यर्थीगण ओर से उपस्थित- विद्वान अधिवक्ता श्री एस० एन० तिवारी
दिनांक : 29-08-2022
मा0 न्यायमूर्ति श्री अशोक कुमार, अध्यक्ष द्वारा उदघोषित निर्णय
प्रस्तुत अपील परिवाद संख्या-638/2009 मनभावन सिंह बनाम लखनऊ विकास प्राधिकरण व चार अन्य में जिला उपभोक्ता आयोग, द्धितीय लखनऊ द्वारा पारित निर्णय और आदेश दिनांक 18-11-2019 के विरूद्ध धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम-1986 के अन्तर्गत इस न्यायालय के सम्मुख योजित की गयी है।
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आक्षेपित निर्णय और आदेश के द्वारा जिला आयोग ने परिवाद निरस्त कर दिया है।
विद्धान जिला आयोग द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश से क्षुब्ध होकर परिवाद के परिवादी की ओर से यह अपील प्रस्तुत की गयी है।
संक्षेप में वाद के तथ्य इस प्रकार हैं कि परिवादी ने विपक्षी लखनऊ विकास प्राधिकरण की टिकैतराय आवासीय योजना में भवन संख्या-673 हेतु 20,626.86/-रू० पंजीकरण धनराशि जमा कर उक्त भवन बुक कराया, जिसका क्षेत्रफल 750 वर्गमीटर था और भवन की कीमत रू० 92,000/- थी, किन्तु उक्त भवन उपलब्ध न होने के कारण विपक्षी प्राधिकरण द्वारा परिवादी को भवन संख्या-776 टिकैतराय आवासीय योजना, लखनऊ में आवंटित किया गया और दिनांक 16-10-2001 को उसे कब्जा दिया गया। उसका कुल क्षेत्रफल 450 वर्गफिट है जबकि पूर्व में आवंटित भवन संख्या-673 का क्षेत्रफल 750 वर्गफिट था। वर्ष 1989 में विपक्षीगण द्वारा भवन संख्या-673 का विक्रय मूल्य रू0 92,000/- नियत किया गया था तथा भवन संख्या-776 का विक्रय मूल्य रू0 60,000/- नियत किया गया था। परिवादी द्वारा विपक्षीगण से लगातर मौखिक व लिखित रूप से निवेदन किया गया कि भवन संख्या-776 की निर्धारित कीमत रू0 60,000/- को परिवादी द्वारा पूर्व में जमा की गयी धनराशि में समायोजि करते हुए शेष धनराशि परिवादी से लेकर उसके पक्ष में विक्रय विलेख निष्पादित किया जावे और इस संबंध में परिवादी ने दिनांक 01-12-2003 को पत्र भी लिखा, लेकिन विपक्षी प्राधिकरण की ओर से कोई ध्यान नहीं दिया गया तब दिनांक 13-01-2009 को परिवादी ने विपक्षीगण को एक पत्र इस आशय का प्रेषित किया कि उसके द्वारा पूर्व में जमा की गयी धनराशि को समायोजित करते हुए परिवादी के पक्ष में विक्रय पत्र का
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निबन्धन किया जाय जो संलग्नक संख्या-3 के रूप में पत्रावली पर उलपब्ध है।
परिवाद पत्र के उत्तर में विपक्षी ने पत्र दिनांक 06-04-2009 प्रेषित किया एवं उसके भवन संख्या-776 की प्रथम किश्त के रूप में रू० 97,376/- एवं द्धितीय किश्त के रूप में रू० 1,94,751/- की मांग की एवं उक्त पत्र में यह उल्लिखित किया कि उक्त किश्त दिनांक-15-06-2009 तक जमा कर दें अन्यथा दण्ड ब्याज देय होगा। परिवादी ने विपक्षीगण से मिलकर यह निवेदन किया कि बहुत अधिक धनराशि उससे निराधार तरीके से मांगी जा रही है जब कि परिवादी से सन 1989 में प्रचलित सम्पत्ति के मूल्य को ही मांगा जा सकता है क्योंकि परिवादी के पक्ष में सम्पत्ति का आवंटन सन 1989 में हुआ है।
विपक्षीगण की ओर से प्रतिवाद पत्र प्रस्तुत किया गया जिसमें परिवादी के कथनों को निराधार एवं गलत बताया गया साथ ही यह भी कहा गया कि परिवादी को आवंटित भवन संख्या-776 का मूल्य रू० 1,32,400/- था जिसका रजिस्टर्ड अनुबंध दिनांक 11-01-2000 को कराया गया था जो कि उप निबंधक प्रथम, लखनऊ के कार्यालय में बही संख्या-। जिल्द संख्या-2 के पृष्ठ 283 में नम्बर 175 पर आ0फा0 बुक 1 जिल्द संख्या-70 के पृष्ठ 937/964 पर दिनांक 11-01-2000 को पंजीकृत है। विपक्षीगण ने यह भी कहा है कि पूर्व आवंटित भवन 673 का मूल्य रू० 60,000/- न होकर रू० 92,000/- था परिवादी को अनुबंध के अन्तर्गत पूर्व भवन के स्थान पर भवन संख्या-776/2 आवंटित किया गया था तब उसे समस्त तथ्यों तथा भवन के मूल्य से पूर्णतया अवगत करा दिया गया था तथा पूर्णतया अवगत होने के बाद ही उसके व लखनऊ विकास प्राधिकरण के मध्य रू0 1,32,400/- में अनुबंध पत्र
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दिनांक 11-01-2000 को पंजीकृत हुआ था। परिवादी ने समस्त तथ्यों से अवगत होने के बाद ही अपने पक्ष में अनुबंध पत्र पंजीकृत कराया था जिसमें भवन का मूल्य रू0 1,32,400/- है जिससे वह पूर्णतया बाधित है। परिवादी द्वारा समय पर किश्तों का भुगतान नहीं किया गया है जिस कारण निरंतर ब्याज बढ़ता रहा तब लखनऊ विकास प्राधिकरण की ओर से पत्र दिनांक 06-04-2009 प्रेषित किया गया। परिवादी द्वारा अब कोई भुगतान नहीं किया जा रहा है जिस कारण किश्तों पर ब्याज की वृद्धि हो रही है। परिवादी द्वारा अनुबंध पत्र अपने पक्ष में निष्पादित करवाने से पूर्व मात्र रू० 20,626.85/- दिनांक 16-11-2009 को अनुबंध पत्र रू० 1,32,400/- के लिये किया गया है तथा उसके बाद अब तक आवंटी द्वारा कोई भुगतान नहीं किया गया तथा परिवादी द्वारा निरंतर अनुबंध पत्र में दी गयी शर्तों का उल्लंघन किया गया है। परिवादी यदि किसी भी प्रकार से प्राधिकरण की शर्तों से सहमत नहीं था तो उसे अनुबंध पत्र अपने पक्ष में निष्पादित नहीं करवाना चाहिए था तथा वह अपने द्वारा जमा राशि नियमानुसार ब्याज के साथ/अथवा कटौती के साथ लेने को पूर्णरूप से स्वतंत्र था लेकिन उसने सभी शर्तो की विधिवत जानकारी होने के बाद भी अपने पक्ष में अनुबंध पत्र निष्पादित करवाया तथा उसके बाद अब भवन का मूल्य कम करने के लिए वाद प्रस्तुत कर दिया है जो पूरी तरह से गलत व अवैधानिक है। परिवादी ने आवंटित भवन के संबंध में जिसका अनुबंध अपने पक्ष में लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा निष्पादित करवाया गया है उसके बाद कोई भी किश्त जमा न करने के कारण आवंटित भवन के मूल्य/किश्त में ब्याज की निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है जिसके अनुसार ओ०टी०एस० रिपोर्ट के अनुसार दिनांक 15-06-2009 तक रू० 2,92,127/- परिवादी को देय था जिसमें प्रथम किश्त रू० 97,376/- एवं द्धितीय किश्त के
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रूप में रू० 1,94,751/- की मांग की गयी जो कि उचित एवं नियमानुसार है । विपक्षी ने यह भी कहा कि यदि परिवादी ने किश्तों का भुगतान सही से किया होता तो उसके ऊपर किश्तों की धनराशि जमा करने की जिम्मेदारी नहीं होती। विपक्षीगण द्वारा सेवा में कोई कमी नहीं की गयी है। अत: परिवाद सव्यय निरस्त किये जाने योग्य है।
विद्वान जिला आयोग ने उभय-पक्ष को सुनने के उपरान्त निष्कर्ष अंकित किया है कि पत्रावली के अवलोकन करने से यह स्पष्ट होता है कि परिवादी एवं विपक्षीगण के मध्य एक अनुबंध दिनांक 11-01-2000 को हुआ था जिसके अनुसार एल0आई0जी0 भवन संख्या-776/2 टिकैतराय आवासीय योजना में परिवादी को आवंटित किया गया था। अनुबंध की शर्तों के अनुसार परिवादी को सम्पूर्ण धनराशि रू0 1236/- प्रतिमाह की किश्तानुसार 15 वर्षों तक अदा करना था लेकिन परिवादी द्वारा अनुबंध के बाद उक्त धनराशि जमा नहीं की गयी जिससे परिवादी के ऊपर देय धनराशि बढ़ती गयी और ओ0टी0एस0 के अनुसार परिवादी को प्रथम किश्त रू0 97,376/- एवं दूसरी किश्त रू0 1,94,751/- जमा करनी थी। परिवादी की सहमति के आधार पर उसे प्रथम भवन संख्या-673/2 जिसका परित्याग होने के कारण ही उसे दूसरा भवन संख्या-776/2 उपलब्ध कराया गया जिसका अनुबंध पत्र लिखा गया, उसके अनुसार सम्पूर्ण धनराशि अदा करनी थी लेकिन परिवादी द्वारा धनराशि जमा नहीं की गयी। इसलिए परिवादी के साथ विपक्षीगण द्वारा कोई भी व्यापार विरोधी प्रक्रिया नहीं अपनायी गयी है और न ही सेवा में कमी की गयी है, अतएव परिवादी का परिवाद निरस्त किये जाने योग्य नहीं है।
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प्रत्यर्थी के विद्धान अधिवक्ता का तर्क है कि विद्धान जिला आयोग द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश विधि अनुसार है जिसमें हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं है।
हमने पत्रावली पर उपलब्ध समस्त प्रपत्रों का भली भॉंति परिशीलन एवं परीक्षण किया। पत्रावली के परिशीलनोंपरान्त हम इस मत के हैं कि परिवादी और विपक्षीगण के बीच आपसी सहमति से अनुबंध पत्र निष्पादित किया गया था और अनुबंध की शर्तों को मानना दोनों पक्षों के लिए आवश्यक था फिर भी परिवादी द्वारा अनुबंध की शर्तों का अनुपालन नहीं किया गया है जब कि परिवादी को अनुबंध की शर्तों का पालन करते हुए धनराशि जमा करना चाहिए था।
उपरोक्त समस्त तथ्यों एवं परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए हमारे विचार से विद्धान जिला आयोग द्वारा समस्त तथ्यों का सम्यक परीक्षण करने के पश्चात विधि अनुसार निर्णय पारित किया गया है जिसमें हमारे द्वारा हस्तक्षेप हेतु उचित आधार नहीं हैं, तदुनसार प्रस्तुत अपील निरस्त किये जाने योग्य है।
आदेश
प्रस्तुत अपील निरस्त की जाती है।
अपील में उभयपक्ष अपना-अपना वाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय/आदेश को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।
(न्यायमूर्ति अशोक कुमार) (सुशील कुमार)
अध्यक्ष सदस्य
कृष्णा,आशु0 कोर्ट न0-1 .