जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम-प्रथम, लखनऊ।
वाद संख्या 423/1999
श्रीमती रेशमा देवी, उम्र लगभग 25 वर्ष,
पत्नी श्री जवाहर लाल।
निवासिनी-552/462ई-1, चन्द्र नगर,
आलमबाग, लखनऊ।
......... परिवादिनी
बनाम
1. लखनऊ विकास प्राधिकरण,
द्वारा उपाध्यक्ष,
6, जगदीश चन्द्र बोस मार्ग,
लखनऊ।
2. श्रीमती चन्द्रा रावत,
पति श्री डी.एस.रावत,
निवासिनी- 46 हुसैनगंज,
नियर पुलिस स्टेशन, हुसैनगंज,
लखनऊ।
..........विपक्षीगण
वाद संख्या 424/1999
श्री जवाहर लाल, उम्र लगभग 27 वर्ष,
पुत्र श्री बुधन प्रसाद,
निवासी-552/462ई-1, चन्द्र नगर,
आलमबाग, लखनऊ।
......... परिवादी
बनाम
1. लखनऊ विकास प्राधिकरण,
द्वारा उपाध्यक्ष,
6, जगदीश चन्द्र बोस मार्ग,
लखनऊ।
-2-
2. कु0 ललिता,
पुत्री श्री डी.एस.रावत,
निवासिनी- 46 हुसैनगंज,
नियर पुलिस स्टेशन, हुसैनगंज,
लखनऊ।
..........विपक्षीगण
उपस्थितिः-
श्री विजय वर्मा, अध्यक्ष।
श्रीमती अंजु अवस्थी, सदस्या।
श्री राजर्षि शुक्ला, सदस्य।
निर्णय
परिवाद सं.423/99 एवं परिवाद सं.424/99 के तथ्य समान प्रकृति होने के कारण दोनों परिवाद एक साथ निर्णित करना समीचीन होने पर दोनों परिवादों को एक साथ निर्णीत किया जाता है।
परिवादिनी द्वारा परिवाद सं.423/99 विपक्षी सं0 1 से मकान सं.एफ-8/630 का कब्जा तथा परिवादी द्वारा परिवाद सं.424/99 विपक्षी सं0 1 से मकान सं.एफ-8/629 तथा वाद व्यय दिलाने एवं विपक्षी सं01 के विरूद्ध डिक्री पारित कराने हेतु प्र्र्र्र्र्र्र्र्रस्तुत किया गया है।
संक्षेप में परिवादिनी का परिवाद सं0 423/99 में कथन है कि उसे विपक्षी सं0 1 के कार्यालय से दिनांक 12.09.1997 को मुबलिग रू.10.00 प्रतिदिन यानि मुबलिग रू.300.00 माहवार के हिसाब से शारदा नगर योजना में रजनी खंड में एक मकान सं.एफ-8/630 आवंटित करने के संबंध में पत्र दिनांकित 12.09.1997 भेजा गया जिसमें यह कहा गया कि परिवादिनी मुबलिग रू.100.00 का जनरल स्टेम्प पेपर व मुबलिग रू.180.00 वाटर सीवर के संबंध में कार्यालय में जमा करके तीन दिन में अनुबंध कराकर भवन का कब्जा प्राप्त कर ले। परिवादिनी द्वारा विपक्षी सं0 1 के कार्यालय दिनांक 19.09.1997 मुबलिग रू.180.00 जमा करा दिये और दिनांक 20.10.1997 को विपक्षी सं0 1 के कार्यालय के संपत्ति अधिकारी द्वारा परिवादिनी को मकान का कब्जा दे दिया गया और परिवादिनी द्वारा विपक्षी सं0 1 के कार्यालय में दिनांक 19.09.1997
-3-
को मुबलिग रू.180.00 जमा करा दिये और दिनांक 20.10.1997 को विपक्षी सं0 1 के संपत्ति अधिकारी द्वारा परिवादिनी को मकान का कब्जा दे दिया गया और इस बात का प्रमाण पत्र भी दिनांक 20.10.1997 को दे दिया गया। परिवादिनी और विपक्षीगण द्वारा एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर किये गये और गवाह के भी हस्ताक्षर कराये गये। परिवादिनी द्वारा विपक्षी सं0 1 के यूको बैंक में अकाउंट में प्रत्येक माह रू.300.00 जमा कराये गये और दिनांक 26.03.1999 तक मुबलिग रू.4,800.00 विपक्षी सं0 1 के खाते में यूको बैंक में जमा कराये गये। दिनांक 19.03.1999 को परिवादिनी अपना मकान देखने शारदा नगर देखने गयी तो उसने देखा कि विपक्षी सं0 2 मकान के अंदर रह रही थी। परिवादिनी द्वारा पूछने पर उनके द्वारा बताया गया कि विपक्षी सं0 1 के संपत्ति अधिकारी द्वारा विपक्षी सं0 2 के नाम उपरोक्त भवन आवंटित किया गया है और विपक्षी सं01 के कर्मचारियों द्वारा उसे कब्जा भी दिया गया है। परिवादिनी द्वारा मकान के कागजात की प्रति दिखाने के लिए कहने पर विपक्षी सं0 2 ने परिवादिनी को कागजात दिखाने से साफ इंकार कर दिया। दिनांक 26.03.1999 को परिवादिनी विपक्षी सं0 1 के कार्यालय में गयी और एक प्रार्थना पत्र दिया कि विपक्षी सं0 2 को किस आधार पर मकान आवंटित किया गया है जिस पर विपक्षी सं0 1 के वरिष्ठ अधिकारी द्वारा कहा गया कि वह 15 दिन बाद आये उसे मकान का दूसरा कब्जा दे दिया जायेगा। परिवादिनी द्वारा दिनांक 15.04.1999 को विपक्षी सं0 1 के कार्यालय में प्रार्थना पत्र दिया गया कि चूंकि मकान सं.एफ-8/630 उसे आवंटित किया जा चुका है और वह हर माह रू.300.00 की किश्त जमा कर रही है, अतः उसके मकान को खाली कराकर मकान का कब्जा दिया जाये, परंतु कोई कार्यवाही नहीं की गयी। परिवादिनी दिनांक 20.03.1999 को विपक्षी सं0 1 के अध्यक्ष से मिली तो उनके द्वारा कहा गया कि उपरोक्त मकान किसी अन्य को आवंटित किया जा चुका है और उसे कोई अन्य मकान आवंटित कर दिया जायेगा। परिवादिनी द्वारा कहा गया कि यह सब कार्यालय के कर्मचारियों व अधिकारियों की सांठ-गांठ से किया जा रहा है जिसकी जांच करायी जाये, परंतु विपक्षी सं0 1 द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी। अतः परिवादिनी द्वारा यह परिवाद विपक्षी सं0 1 से मकान सं.एफ08/630 का कब्जा तथा वाद व्यय दिलाने एवं विपक्षी सं01 के विरूद्ध डिक्री पारित कराने हेतु प्र्र्र्र्र्र्र्र्रस्तुत किया है।
-4-
विपक्षी सं0 1 द्वारा अपना जवाबदावा दाखिल किया गया जिसमें मुख्यतः यह कथन किया गया है कि उनके विभाग द्वारा श्रीमती ललिता रावत नामक महिला को भवन सं.8/630 का आवंटन नहीं किया गया और न ही कब्जा प्रदान किया गया। परिवादिनी द्वारा न तो विपक्षी सं0 1 को कोई पत्र दिया गया और न ही उसके द्वारा विभाग में संपर्क करने का कोई अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध है। परिवादिनी ने योजना की मुख्य विशेषताओं की धारा-3 का उल्लंघन करने तथा पंजीकरण की पात्रता संबंधी घोषणा पत्र की धारा-2 व 3 तथ्यों को छिपाकर पति-पत्नी नाम से अलग-अलग पंजीकरण कराकर आश्रयहीन भवनों का आवंटन कराया गया है। बकाया किश्तों की धनराशि जमा न करने तथा तथ्यों को छिपाने के कारण परिवादिनी का आवंटन निरस्त किया जा चुका है। परिवादिनी प्रार्थना पत्र देकर नियमानुसार अपनी जमा धनराशि वापस प्राप्त कर सकती है। परिवादिनी द्वारा मांगा गया अनुतोष स्वीकार किये जाने योग्य नहीं है क्योंकि परिवादिनी ने तथ्यों को छिपाकर मनगढंत तथ्यों के आधार पर उपरोक्त परिवाद दाखिल किया है। परिवादिनी किसी भी प्रकार का अनुतोष पाने का अधिकारी नहीं है तथा परिवादिनी का परिवाद सव्यय निरस्त किये जाने योग्य है।
परिवादिनी द्वारा विपक्षी सं0 1 के जवाब दावे का प्रतिउत्तर मय संलग्नक 3 भी दाखिल किया गया।
परिवाद सं.424/99 के तथ्य परिवाद सं.423/99 के समान है केवल मकान सं. भिन्न है जो कि एफ8/629 है।
विपक्षी सं0 1 द्वारा परिवाद सं.424/99 में अपना जवाबदावा दाखिल किया गया जिसके तथ्य परिवाद सं.423/99 में दाखिल किये गये जवाबदावे के समान है केवल यह तथ्य भिन्न है कि इस परिवाद में प्रश्नगत भवन सं.8/629 भरत खेर मिन्टू नामक व्यक्ति को उपरोक्त भवन का आवंटन नहीं किया गया और न ही कब्जा प्रदान किया गया।
विपक्षी सं0 2 को नोटिस की तामीली नहीं हो पायी, अतः समाचार पत्र में विज्ञापन दिया गया जिसके बावजूद भी उनकी ओर से कोई उपस्थित नहीं हुआ, अतः उनके विरूद्ध एकपक्षीय कार्यवाही आदेश दिनांक 06.02.2015 के अनुसार चली।
परिवाद सं.423/99 में परिवादिनी द्वारा अपना शपथ पत्र मय 7 संलग्नक दाखिल किया गया। विपक्षी सं0 1 की ओर से श्री वीरेन्द्र सिंह, अनुभाग अधिकारी, लखनऊ विकास प्राधिकरण का शपथ पत्र मय
-5-
संलग्नक 16 दाखिल किया गया। परिवाद सं.424/99 में परिवादी द्वारा अपना शपथ पत्र मय 8 संलग्नक दाखिल किया गया। विपक्षी सं0 1 की ओर से श्री वीरेन्द्र सिंह, अनुभाग अधिकारी, लखनऊ विकास प्राधिकरण का शपथ पत्र मय संलग्नक 16 दाखिल किया गया।
उभय पक्ष के विद्वान अधिवक्तागण की बहस सुनी गयी एवं पत्रावली का अवलोकन किया गया।
इस प्रकरण में परिवादीगण को लखनऊ विकास प्राधिकरण की शारदा नगर योजना में मकान सं.एफ-8/630 एवं एफ-8/629 आवंटित किये गये थे और परिवादीगण द्वारा उपरोक्त भवनों के लिए प्रति माह रू.300.00 जमा कराये जाने के आधार पर दिनांक 26.03.1999 तक रू.4,800.00 परिवादिनी श्रीमती रेशमा देवी तथा रू.4,500.00 परिवादी श्री जवाहर लाल द्वारा मकान के संबंध में विपक्षी सं01 द्वारा यूको बैंक में जमा कराये गये थे। परिवादीगण को मकान का कब्जा भी दे दिया गया था, किंतु बाद में दिनांक 19.03.1999 को जब वे अपना मकान देखने गये तो उन्हांेने मकान सं.एफ-8/630 में चन्द्रा रावत और एफ-8/629 में ललिता रावत को रहते हुए पाया जिस पर उनके द्वारा विपक्षी सं0 1 से मकान को खाली कराकर कब्जा दिलाने हेतु कहा गया, किंतु उनके द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी। विपक्षी सं0 1 द्वारा मुख्यतः यह आपत्ति उठायी गयी है कि परिवादीगण द्वारा सही तथ्यों को छिपाते हुए पति-पत्नी के नाम से अलग-अलग पंजीकरण कराकर आश्रयहीन भवनों का आवंटन कराया गया था तथा बकाया किश्तों की धनराशि जमा न करके तथा तथ्यों को छिपाने के कारण परिवादीगण के आवंटन निरस्त किये गये। सर्वप्रथम तो इस प्रकरण में यह देखा जाना है कि क्या परिवादीगण श्रीमती रेश्मा देवी एवं श्री जवाहर लाल द्वारा पति-पत्नी होते हुए उनके द्वारा अलग-अलग पंजीकरण कराकर आश्रयहीन भवनों का आवंटन अवैधानिक रूप से कराया गया है अथवा नहीं यदि हां तो क्या इसी आधार पर जो परिवादीगण के आवंटन निरस्त किये गये है उसमें किसी भी प्रकार की कोई अनुचित व्यापार प्रक्रिया या सेवा में कमी विपक्षी सं0 1 द्वारा की गयी है या नहीं?
इस प्रकरण में परिवादीगण श्रीमती रेशमा देवी एवं श्री जवाहर लाल स्वीकृत रूप से पति-पत्नी है, किंतु उनके द्वारा अलग-अलग पंजीकरण कराकर विपक्षीगण के आश्रयहीन भवनों के आवंटन हेतु
-6-
शारदा नगर, लखनऊ की योजना में आवंटन हेतु आवेदन किया गया था जिस पर उन्हें भवन सं.एफ-8/630 एवं एफ-8/629 आवंटित किये गये थे, किंतु यह तथ्य बाद में विपक्षीगण के समक्ष प्रकाश में आया कि परिवादीगण पति-पत्नी है। नियमतः योजना में एक घोषणा पत्र आवेदक द्वारा दाखिल करना होता है कि उसके परिवार के किसी सदस्य ने पहले प्राधिकरण की किसी योजना के अंतर्गत पंजीकरण नहीं कराया है। इसके अतिरिक्त पंजीकरण की पात्रता संबंधी नियमों में से एक नियम यह भी है कि उपरोक्त योजना में वही व्यक्ति सम्मिलित हो सकते हैं जिनके पास अपने नाम/अपनी पत्नी के नाम अथवा अव्यस्क बच्चों के नाम इस नगर में पहले से कोई मकान न हो और उत्तर प्रदेश में एक से अधिक भूखंड न हो और इस संबंध में प्रार्थी को निर्धारित प्रारूप में एक शपथ पत्र प्रस्तुत करना होगा। इसी में आगे योजना की मुख्य विशेषताओं में से एक यह है कि पंजीकरण एक से अधिक या संयुक्त नाम से नहीं किया जा सकता है। ”केवल पति-पत्नी के नाम से संयुक्त पंजीकरण कराया जा सकता है।“ प्रश्नगत योजना की उपरोक्त शर्तों से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि पति-पत्नी के नाम से मात्र संयुक्त पंजीकरण ही कराया जा सकता है न कि अलग-अलग पंजीकरण जैसा कि इस संबंध में परिवादीगण की ओर से कराया गया है। परिवादीगण के अधिवक्ता द्वारा यह तर्क दिया गया है कि परिवादीगण द्वारा अलग-अलग पंजीकरण भले ही कराया गया हो, किंतु उसके पूर्व उनके द्वारा कोई पंजीकरण नहीं कराया गया था अथवा उनके द्वारा कोई भी अनियमितता नहीं की गयी है, किंतु यहां पर यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उभर कर आता है कि पति-पत्नी द्वारा अलग-अलग पंजीकरण क्यों कराया गया और यदि दोनों को ही आवंटन हो गया तो उनके द्वारा एक पंजीकरण निरस्त करने हेतु कोई कार्यवाही क्यों नहीं की गयी। निरस्त करने हेतु कार्यवाही किया जाना तो दूर जब परिवादीगण द्वारा दाखिल किये गये परिवाद पत्रों में किये गये कथनों का अवलोकन किया गया तो यह तथ्य दृष्टिगत होता है कि एक ही तिथि अर्थात्् दिनांक 20.10.1997 को परिवादिनी श्रीमती रेशमा देवी एवं उनके पति परिवादी श्री जवाहर लाल द्वारा भी भवन का कब्जा दिनांक 20.10.1997 को ही लिया गया था। यही नहीं उनके द्वारा अपने परिवाद में यह भी कहा गया है कि वो कब्जे प्राप्त करके उसमें
-7-
रहने लगे और जब होली में दिनांक 10.03.1999 को अपने गांव चले गये और वहां से लौटकर दिनांक 19.03.1999 को आए तो दोनों के मकान का ताला खुला हुआ था जिसमें परिवादिनी श्रीमती रेशमा देवी के मकान में चंद्रा रावत एवं परिवादी श्री जवाहर लाल के मकान में ललिता रावत रहते हुए पाये गये जिस पर परिवादीगण द्वारा विपक्षीगण से कब्जा लेकर उन्हें दिलाये जाने हेतु प्रार्थना की गयी। यहां पर यह उल्लेखनीय है कि यह समझ से परे है कि न केवल पति-पत्नी अलग-अलग आवेदन पत्र पर भवन का आवंटन कराते है, बल्कि अलग-अलग ही भवनों का कब्जा लेते हैं और उसमें अपना-अपना अलग-अलग ताला डाल देते हैं। प्रश्न यह उठता है कि जब पति-पत्नी साथ है तो उनके द्वारा दो भवनों का कब्जा लेकर उसमें कैसे अलग-अलग रहने की बात कही जा रही है। यह तथ्य इसलिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि विपक्षी सं0 1 एल0डी0ए0 की ओर से जो शपथ पत्र दाखिल किये गये हैं उनमें यह स्पष्ट रूप से कथन किया गया है कि परिवादी द्वारा योजना की मुख्य विशेषताओं की धारा 3 का उल्लंघन करके तथा पंजीकरण की पात्रता संबंधी घोषणा पत्र की धारा 2 व 3 के तथ्यों को छिपाकर पति व पत्नी के नाम अलग-अलग पंजीकरण कराकर आश्रयहीन भवन प्राप्त किये गये। अतः उपरोक्त कारणों से ही परिवादीगण द्वारा निर्देशों का पालन न करने के कारण विपक्षी सं0 1 द्वारा भवन के आवंटन निरस्त किये गये हैं। विपक्षी सं0 1 की ओर से शपथी के रूप में श्री वीरेन्द्र सिंह के शपथ पत्र के संबंध में कोई प्रति शपथ पत्र जिससे विपक्षी सं0 1 द्वारा किये गये कथन गलत सिद्ध हो परिवादीगण की ओर से दाखिल नहीं किये गये हैं। ऐसे में स्पष्ट रूप से पति-पत्नी के रूप में परिवादीगण द्वारा अवैधानिक रूप से प्रश्नगत भवनों का आवंटन अपने पक्ष में कराया गया और यह गलत होने के बावजूद भी दोनों ही परिवादीगण के पक्ष में भवन आवंटित किये जा चुके उनमें से किसी एक के द्वारा भी भवन के आवंटन को निरस्त कराने हेतु कोई कार्यवाही नहीं की गयी। विधि का यह प्रतिपादित सिद्धांत है कि वादकारी को स्वच्छ हाथों ;बसमंद ींदकेद्ध के साथ वाद में अनुतोष प्राप्त करने हेतु संपूर्ण तथ्य सत्यता से रखे जाने चाहिए अन्यथा वह अनुतोष पाने का अधिकारी नहीं रह जाता। इस प्रकरण में परिवादीगण ने अवैधानिक रूप से सही तथ्य को छिपाते
-8-
हुए गलत तरीके से आश्रयहीन भवनों का आवंटन कराया गया है और ऐसे में जो भवनों का आवंटन विपक्षी सं0 1 द्वारा निरस्त किया गया है उसे गलत नहीं कहा जा सकता। इसके अतिरिक्त विपक्षी सं0 1 के रूप में जो संलग्नक परिवादिनी श्रीमती रेशमा देवी के परिवाद में संलग्नक सं0 7 के रूप में है और परिवादी श्री जवाहर लाल के परिवाद में संलग्नक सं0 8 के रूप में है जिससे स्पष्ट होता है कि परिवादीगण द्वारा भवन की लागत रू.30,500.00 के सापेक्ष मात्र रू.5,700.00 जमा किये गये थे और अवशेष धनराशि रू.24,800.00 को जमा करने हेतु उनसे कहा गया था। इस प्रकार संपूर्ण धनराशि भी परिवादीगण की ओर से जमा किया जाना नहीं स्पष्ट होता है और उपरोक्त कारण से भी परिवादीगण के आवंटन विपक्षी सं0 1 द्वारा निरस्त किये गये थे। इस प्रकार विपक्षी सं0 1 द्वारा जो उपरोक्त कारणों से आवंटन निरस्त किये गये उनके लिए यह नहीं कहा जा सकता कि विपक्षी सं0 1 द्वारा अनुचित व्यापार प्रक्रिया एवं सेवा में कमी की गयी है, किंतु इस प्रकरण में यह भी दृष्टिगत होता है कि जब विपक्षी सं0 1 द्वारा परिवादीगण के आवंटन निरस्त कर दिये गये तो ऐसी स्थिति में विपक्षी सं0 1 को उनके द्वारा जमा की गयी धनराशि को वापस कर दिया जाना चाहिए था, किंतु उनके द्वारा ऐसा किया जाना दृष्टिगत नहीं होता है। अतः इस संबंध में विपक्षी सं0 1 द्वारा सेवा में कमी की गयी है। परिणामस्वरूप परिवादीगण उनके द्वारा जमा की गयी धनराशि मय ब्याज प्राप्त करने के अधिकारी है। साथ ही परिवादीगण वाद व्यय भी प्राप्त करने के अधिकारी है।
आदेश
दोनों परिवाद आंशिक रूप से स्वीकार किये जाते हैं। विपक्षी सं0 1 को आदेशित किया जाता है कि वे प्रत्येक परिवादी द्वारा जमा की गयी धनराशि रू.5,700.00.00 (रूपये पंाच हजार सातै सौ मात्र) का भुगतान 7 प्रतिशत प्रतिवर्ष ब्याज सहित जमा करने की अंतिम तिथि दिनांक 29.12.1997 से अंतिम भुगतान की तिथि तक परिवादीगण को अदा करें।
साथ ही विपक्षी सं0 1 को यह भी आदेशित किया जाता है कि वे प्रत्येक परिवादी को वाद व्यय के रूप में रू.3,000.00 (रूपये तीन हजार मात्र) अदा करें।
-9-
विपक्षी सं0 1 उपरोक्त आदेश का अनुपालन एक माह में करें।
इस निर्णय की एक प्रति परिवाद सं.424/99 में भी रखी जाय।
(अंजु अवस्थी) (विजय वर्मा)
सदस्या अध्यक्ष
दिनांकः 27 जुलाई, 2015