राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या– 2835/1999
( जिला उपभोक्ता फोरम बलिया द्वारा परिवाद सं0-262/1997 में पारित निर्णय/आदेश दिनांकित-27-08-1998 के विरूद्ध)
- स्टेट बैंक आफ इंडिया चितवडागॉव ब्रान्च, जिला- बलिया द्वारा ब्रान्च मैनेजर।
- ब्रान्च मैनेजर, स्टेट बैंक आफ इंडिया, चितवडागॉव ब्रान्च, जिला- बलिया।
....अपीलार्थीगण/विपक्षीगण
बनाम
कमता प्रसाद राय, पुत्र श्री हरी हर राय, निवासी- ग्राम- उजियार, पोस्ट- कोरन्दाडीह, जिला-बलिया।
...प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
माननीय श्री राम चरन चौधरी, पीठासीन सदस्य।
माननीय श्रीमती बाल कुमारी, सदस्य।
अपीलकर्ता की ओर से उपस्थिति: कोई नहीं।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थिति : श्री राजेश चडढ़ा, विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक- 02-12-2015
माननीय श्री राम चरन चौधरी, पीठासीन सदस्य, द्वारा उद्घोषित
निर्णय
अपीलकर्ता ने यह अपील जिला उपभोक्ता फोरम बलिया द्वारा परिवाद सं0-262/1997 में पारित निर्णय/आदेश दिनांकित-27-08-1998 के विरूद्ध दिनांक 13-10-1999 को प्रस्तुत की गई है। उपरोक्त आदेश में जिला उपभोक्ता फोरम द्वारा निम्न आदेश पारित किया गया है:-
“अत: परिवाद पत्र स्वीकार किया जाता है। विपक्षीगण को निर्देशित किया जाता है कि वह परिवादी से लोन के सम्बन्ध में वार्षिक साधारण ब्याज वसूल करें तथा शारीरिक व मानसिक कष्ट के लिए 5,000-00 रूपये तथा मुकदमा खर्च के लिए 500-00 रूपये परिवादी को अदा करें।”
इस प्रकार से प्रस्तुत अपील लगभग एक वर्ष की देरी से योजित की गई और देरी अपील योजित किये जाने के सम्बन्ध में देरी माफी का प्रार्थना पत्र व साथ में शपथ पत्र भी दिया गया है, जिसमें कहा गया है कि वाद सं0-262/1997 में निर्णय/आदेश दिनांकित 27-08-1998 को बिना बैंक को सुने हुए निर्णय/आदेश पारित किया गया है और बैंक ने उक्त निर्णय/आदेश को निरस्त करने के सम्बन्ध में प्रार्थना पत्र पॉच दिन के अन्दर दे दिया था, जो 14-09-1999 तक लम्बित रहा और जिला उपभोक्ता फोरम ने दिनांक 14-09-1999 को उक्त प्रार्थनापत्र निरस्त कर दिया। निर्णय/आदेश दिनांकित 27-08-1998 की कापी दिनांक 20-09-1999 को प्राप्त हुई और आदेश दिनांकित 14-09-1999 की कापी भी 20-09-1999 को प्राप्त हुई, इसलिए अपील याजित करने में हुई देरी को माफ किया जाय।
जिला उपभोक्ता फोरम के निर्णय/आदेश दिनांकित 27-08-1999 का अवलोकन किया गया, जिसमें यह कहा गया है कि विपक्षीगण के द्वारा वादोत्तर दाखिल किया गया, जिसमें
(2)
परिवादी के दावें को स्वीकार किया गया है और कहा है कि परिवादी को लोन के रूप में कृषि उधार अधिनियम 1993 की धारा 6 (1) के अर्न्तगत 1,10,000-00 रूपये का लोन ट्रैक्टर व ट्रालीके बावत दिया गया था, जिसके एवज् में परिवादी द्वारा मौजा उजियार की जमीन रक्बा 8-60, ½ एकड़ भूमि बन्धक रखा है तथा परिवादी से हाईपोथिकशन लेटर दिनांक 31-05-1989को व डिकल्रेशन फार्म व अरन्मेंट लेटर व अन्य कागजात तहरीर किया है तथा 6 माह के अन्तराल पर ऋण परिवादी द्वारा जमा करना तहरीर किया गया है और प्रतिवाद पत्र में यह भी कहा गया है कि ब्याज की दर 12.5 प्रतिशत वीथ हाल्पयर्ली रेट पर देय होगा। जिला उपभोक्ता फोरम ने अपने निर्णयमें यह पाया है कि बैंक निश्चितरूप से कषि ऋण में चक्रवृद्धि ब्याज नहीं वसूलेगा तथा मासिक,त्रैमासिक व अर्धवार्षिक रेस्ट पर ब्याज नहीं लेगा और कृषि कार्य हेतु ट्रैक्टर के लिए ऋण लिया गया है, इसलिए वह साधारण ब्याज ही परिवादी से वसूल सकता है और जिला उपभोक्ता फोरमने परिवाद पत्र स्वीकार किया है और विपक्षीगण को निर्देशित किया है कि वह परिवादी को लोन के सम्बन्ध में वार्षिक साधारण ब्याल वसूल करें।
इस प्रकार से हम यह पाते हैं कि जिला उपभोक्ता फोरम द्वारा जो निर्णय/आदेश पारित किया गया है, वह नियम व रूलिंग को ध्यान में रखते हुए पारित किया गया है और कृषि कार्य हेतु ट्रैक्टर पर लिये गये ऋण पर साधारण ब्याज ही वसूलने की बात कही है, जो विधि सम्मत् है। इसके अलावा मौजूदा केस में दिनांक 27-08-1998 को जो निर्णय पारित किया गया है, उसमें विपक्षी/अपीलार्थी द्वारा प्रतिवाद पत्र भी दाखिल किया गया था और इस प्रकार से अपीलकर्ता ने 27-08-1998 के निर्णय के विरूद्ध दिनांक 13-10-1999 को अपील दायर किया गया है। अत: यह नहीं कहा जा सकता कि जिला उपभोक्ता फोरम में चल रहे केस के बारे में ज्ञान नहीं था, क्योंकि बैंक ने अपना प्रतिवाद पत्र दाखिल किया है।
इस सम्बन्ध में आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत
(3)
की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
इस प्रकार से उपरोक्त रूलिंग को दृष्टिगत रखते हुए और केस के तथ्यों परिस्थितियों को देखते हुए हम यह पाते हैं कि प्रतिवादी/अपीलकर्ता को जिला उपभोक्ता फोरम में चल रहे केस के सम्बन्ध में ज्ञान पहले से था और प्रस्तुत अपील जो एक साल की देरी से योजित की गई है, उसका कोई उचित कारण नहीं दिया गया है। अत: जो देरी माफी का प्रार्थना पत्र दिया गया है, वह स्वीकार होने योग्य नहीं है। अत: उपरोक्त दोनों आधारों पर अपीलकर्ता की अपील खारिज होने योग्य है।
आदेश
तद्नुसार उपरोक्त दोनों आधारों पर अपीलकर्ता की अपील खारिज की जाती है।
उभय पक्ष अपना-अपना अपील व्यय स्वयं वहन करेगें।
(आर0सी0 चौधरी) ( बाल कुमारी )
पीठासीन सदस्य सदस्य
आर.सी.वर्मा, आशु.
कोर्ट नं05