(सुरक्षित)
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
अपील संख्या-1959/2003
डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ पुत्र श्री आर.एस. कुलश्रेष्ठ, निवासी 1/58, दिल्ली गेट, आगरा।
अपीलार्थी/विपक्षी सं0-1
बनाम्
1. कैलाश चन्द्र शर्मा निवासी ग्राम कलवारी, बोदल रोड, जिला आगरा।
2. दि न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कं0लि0, 2/214, सिविल लाइन्स, एम.जी. मार्ग, आगरा।
3. श्रीमती सुधा शर्मा, मेम्बर, कन्ज्यूमर डिस्प्यूट रेड्रेसल फोरम II, आगरा।
4. संजीव कुमार सिसोदिया, मेम्बर, कन्ज्यूमर डिस्प्यूट रेड्रेसल फोरम II, आगरा।
प्रत्यर्थीगण/परिवादी/विपक्षी सं0-2
एवं
अपील संख्या-2110/2003
न्यू इण्डिया एश्योरेंस कं0लि0, 2/214, सिविल लाइन्स, एम.जी. मार्ग, आगरा।
अपीलार्थी/विपक्षी सं0-2
बनाम्
1. कैलाश चन्द शर्मा निवासी ग्राम कलवारी, बोदल रोड, जिला आगरा।
2. डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ (बोन एक्सपर्ट) दिल्ली गेट, इन्फ्रंट आफ मधुबन, आगरा।
प्रत्यर्थीगण/परिवादी/विपक्षी सं0-1
एवं
अपील संख्या-1990/2003
कैलाश चन्द्र शर्मा निवासी ग्राम कलवारी, बोदल रोड, जिला आगरा।
अपीलार्थी/परिवादी
बनाम्
1. डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ, आर्थोपेडिक स्पेशलिस्ट, दिल्ली गेट, अपोजिट मधुबन होटल, आगरा।
2. दि न्यू इण्डिया इंश्योरेंस कं0लि0, 2/214, सिविल लाइन्स, एम.जी. रोड, आगरा।
प्रत्यर्थीगण/विपक्षीगण
समक्ष:-
1. माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य।
2. माननीय श्रीमती सुधा उपाध्याय, सदस्य।
दिनांक: 29.08.2024
माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य द्वारा उद्घोषित
निर्णय
1. परिवाद संख्या-762/1996, कैलाश चन्द्र शर्मा बनाम डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ (हड्डी रोग विशेषज्ञ) तथा एक अन्य में विद्वान जिला आयोग, द्वितीय आगरा द्वारा पारित निर्णय/आदेश दिनांक 30.06.2003 के विरूद्ध अपील संख्या-1959/2003, डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ की ओर से तथा अपील संख्या-2110/2003, बीमा कंपनी की ओर से निर्णय/आदेश को अपास्त करने के लिए प्रस्तुत की गई हैं, जबकि अपील संख्या-1990/2003, परिवादी की ओर से अनुतोष में बढ़ोत्तरी के लिए प्रस्तुत की गई है।
2. उपरोक्त अपीलें एक ही निर्णय/आदेश के विरूद्ध प्रस्तुत की गई हैं, इसलिए तीनों अपीलों का निस्तारण एक ही निर्णय द्वारा किया जा रहा है, इस हेतु अपील संख्या-1959/2003 अग्रणी अपील होगी।
3. परिवाद के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं कि दिनांक 10.12.1995 को सड़क दुर्घटना में परिवादी का दाहिना पैरा घायल हो गया, इसी तिथि को डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ के नर्सिंग होम में परिवादी को भर्ती कराया गया। विपक्षी डा0 के कथन से प्रभावित होकर आपरेशन कराने की सहमति दे दी गई। विपक्षी डा0 द्वारा थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद तीन आपरेशन किए गए और तीन महीने की लम्बी अवधि तक अस्पताल
में भर्ती रखा गया। दिनांक 11.3.1996 को यह कहते हुए डिसचार्ज कर दिया गया कि परिवादी बिल्कुल ठीक है, परन्तु छ: माह पश्चात परिवादी के पैर में असहनीय पीड़ा शुरू हो गई तब पुन: दिनांक 18.9.1996 को विपक्षी डा0 के पास गया और पैर दिखाया तब बताया गया कि पैर में पस पड़ गया है। पुन: दिनांक 20.9.1996 को दिखाया गया तब एक्स-रे प्लेट देखने के बाद कहा गया कि पैर की टूटी हड्डी नहीं जुड पाई है, इसलिए पुन: आपरेशन करना होगा तथा पैर में लीजारो नामक मशीन डालनी पड़ेगी, जिसका खर्च अंकन 50,000/-रू0 होगा। दिनांक 2.10.1996 को अंकन 50,000/-रू0 की व्यवस्था न होने की बात कहने पर डा0 द्वारा दुव्यर्वहार किया गया। विवश होकर डा0 अनिल कुमार वार्ष्णेय, हड्डी रोग विशेषज्ञ को दिखाया गया, उनके द्वारा एक्स-रे प्लेट देखकर बताया गया कि पैर की हड्डी में ड्रिल मशीन का एक टुकड़ा अन्दर रह गया है, जिसकी वजह से पैर में पस पड़ गया है। अगर ड्रिल बिट मशीन का टुकड़ा नहीं निकलवाया गया तब अन्दर गलाव पड़ने की वजह से पैर काटना पड़ सकता है। दिनांक 10.10.1996 को डा0 वार्ष्णेय द्वारा ड्रिल बिट का टुकड़ा बाहर निकाला गया। इस दौरान अंकन 30,000/-रू0 खर्च हुए। इस प्रकार विपक्षी डा0 द्वारा ड्रिल बिट का टुकड़ा बाहर न निकालना अत्यधिक लापरवाही है, जिसके कारण परिवादी को आर्थिक, शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना सहनी पड़ी।
4. विपक्षी, डा0 का कथन है कि उनके द्वारा इलाज के दौरान किसी प्रकार की लापरवाही नहीं बरती गई। दिनांक 20.9.1996 को पुन: एक्स-रे कराने के पश्चात टीबिया एवं फेबुला पाया गया था, इस समस्या से परिवादी को अवगत करा दिया गया था। पुन: आपरेशन के बाद ही ड्रिल बिट निकाला जा सकता था, परन्तु परिवादी उपचार हेतु उत्तरदायी डा0 के पास नहीं आया, जबकि उनके द्वारा कोई दुव्यर्वहार नहीं किया गया था। डा0 अनिल कुमार वार्ष्णेय द्वारा किए गए इलाज से परिवादी के आरोपों की पुष्टि नहीं होती। ड्रिल बिट से किसी प्रकार की सड़न का कोई मौका नहीं होता। ड्रिल बिट को इसलिए दूर नहीं किया गया था, क्योंकि इसकी उपस्थिति में कम्पाउंड व कमुनिटेड घाव में पेंचीदिगियां उत्पन्न नहीं होती और न ही घाव में सड़न पैदा होती है, इसलिए घाव ठीक होने पर ड्रिल बिट को हटाने का निर्णय लिया गया था। ऐसा आश्यपूर्वक नहीं किया गया, इसलिए उत्तरदायी विपक्षी किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी नहीं है।
5. विद्वान जिला आयोग ने सभी पक्षकारों की साक्ष्य पर विचार करने के पश्चात परिवादी को अंकन 1,00,000/-रू0 12 प्रतिशत ब्याज के साथ अदा करने का आदेश दो सदस्यों की पीठ द्वारा दिया गया है, जबकि आयोग के अध्यक्ष द्वारा इस आधार पर निर्णय पारित नहीं किया कि अतिरिक्त साक्ष्य लेने के लिए अवसर प्रदान किया गया, परन्तु इस आदेश के विरूद्ध सदस्यगण द्वारा असहमति व्यक्त करते हुए विपक्षी डा0 के आवेदन पत्र को निरस्त कर दिया गया और इसके बाद 30 दिन की अवधि बीत जाने के पश्चात निर्णय लिखाना संभव नहीं पाया गया, परन्तु दो सदस्यों द्वारा निर्णय पारित कर दिया गया, इसलिए अध्यक्ष द्वारा स्वंय को निर्णय से विरत रखा गया।
6. उपरोक्त तीनों अपीलों में क्रमश: डा0 की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री उमेश कुमार श्रीवास्तव, बीमा कपनी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री नीरज पालीवाल तथा परिवादी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री श्रीकृष्ठ पाठक को सुना गया तथा प्रश्नगत निर्णय/पत्रावलियों का अवलोकन किया गया।
7. पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किए गए अभिवचनों के अवलोकन तथा पत्रावली के अवलोकन से ज्ञात होता है कि परिवादी के पैर का दुर्घटना के कारण आपरेशन किया गया। आपरेशन करने के बाद अस्पताल से छुट्टी दे दी गई, इसके बाद जैसा कि परिवाद में उल्लेख है कि 6 माह बाद पीड़ा प्रारम्भ हुई और पुन: आपरेशन कराने के लिए बाध्य होना पड़ा और आपरेशन करते समय ड्रिल बिट का एक टुकड़ा पैर में रह गया था, जिसे पुन: आपरेशन कर डा0 अनिल कुमार वार्ष्णेय द्वारा निकाला गया। ड्रिल बिट का प्रयोग आपरेशन करते समय हड्डीयों में होल करने के लिए किया जाता है, यह तथ्य साक्ष्य से साबित है।
8. अत: डा0 अतुल कुलश्रेष्ठ द्वारा प्रस्तुत की गई अपील के विनिश्चय के लिए एक मात्र परन्तु महत्वपूर्ण बिन्दु यह है कि क्या ड्रिल बिट का टुकड़ा शरीर के अन्दर लापरवाही के कारण छूटा या आश्यपूर्वक घाव सड़ने के पश्चात निकालने के उद्देश्य से यह टुकड़ा रखा गया ?
9. परिवादी के विद्वान अधिवक्ता की ओर से यह बहस की गई है कि ड्रिल का छोटा टुकड़ा आपरेशन के समय ही सुगमता से निकाला जा सकता था, इस टुकड़े का परिवादी के शरीर में रहने के कारण परिवादी के शरीर में पीड़ा उत्पन्न हुई और पुन: आपरेशन कराकर इस ड्रिल बिट को निकलवाना पड़ा। अपीलार्थी डा0 की ओर से यह कथन नहीं किया गया है कि तत्समय इस टुकड़े को बाहर निकालना संभव नहीं था और इलाज के उद्देश्य से इसका शरीर के अन्दर होना आवश्यक था। चूंकि इस टुकड़े को इलाज के उद्देश्य से शरीर के अन्दर रखना आवश्यक नहीं था, इसलिए उसी समय ही इस टुकड़े को निकाला जाना चाहिए था। चूंकि तत्समय इस टुकड़े को नहीं निकाला गया, इसलिए विद्वान जिला आयोग का यह निष्कर्ष विधिसम्मत है कि डा0 कुलश्रेष्ठ के स्तर से लापरवाही कारित की गई है। तदनुसार डा0 कुलश्रेष्ठ की ओर से प्रस्तुत की गई अपील निरस्त होने योग्य है।
10. बीमा कंपनी द्वारा प्रस्तुत की गई अपील की संधारणीयता पर विचार किया गया। चूंकि बीमा कपंनी द्वारा डा0 की प्रतिपूर्ति की संविदा की गई है। यदि अपीलार्थी डा0 को कोई क्षतिपूर्ति के लिए आदेशित किया जाता है तब उसकी प्रतिपूर्ति बीमा कंपनी द्वारा की जाती है। डा0 के स्तर से लापरवाही बरती गई है, इस तथ्य को बीमा कंपनी द्वारा साबित नहीं किया गया है। चूंकि डा0 द्वारा प्रस्तुत की गई अपील निरस्त की जा चुकी है। ऐसी स्थिति में बीमा कंपनी द्वारा प्रस्तुत की गई अपील भी निरस्त होने योग्य है।
11. अब परिवादी द्वारा प्रस्तुत की गई अपील पर विचार करना है कि क्या क्षतिपूर्ति की राशि में बढ़ोत्तरी की जानी चाहिए।
12. परिवादी द्वारा स्वंय अपने परिवाद पत्र में कथन किया गया है कि परिवाद पत्र में अंकन 1,15,000/-रू0 इलाज में खर्च होने का कथन किया गया है, परन्तु इस राशि की अदायगी का सबूत प्रस्तुत नहीं किया गया है। विद्वान जिला आयोग ने इस बिन्दु पर स्पष्ट निष्कर्ष दिया है कि इलाज में खर्च की राशि बढ़ा-चढ़ाकर लिखी गई है। अत: इस स्थिति में क्षतिपूर्ति की राशि में बढ़ोत्तरी का कोई आधार नहीं है। तदनुसार परिवादी की ओर से प्रस्तुत की गई अपील भी निरस्त होने योग्य है।
आदेश
13. उपरोक्त सभी अपीलें, अर्थात् अपील संख्या-1959/2003 एवं अपील संख्या-2110/2003 तथा अपील संख्या-1990/2003 निरस्त की जाती हैं।
प्रस्तुत अपीलों में अपीलार्थी द्वारा यदि कोई धनराशि जमा की गई हो तो उक्त जमा धनराशि अर्जित ब्याज सहित सम्बन्धित जिला आयोग को यथाशीघ्र विधि के अनुसार निस्तारण हेतु प्रेषित की जाए।
इस निर्णय/आदेश की मूल प्रति अपील संख्या-1959/2003 में रखी जाए एवं इसकी एक-एक सत्य प्रति संबंधित अपीलों में भी रखी जाए।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दे।
(सुधा उपाध्याय) (सुशील कुमार)
सदस्य सदस्य
लक्ष्मन, आशु0,
कोर्ट-2