प्रार्थी की ओर से श्री धन्नाराम सैनी अधिवक्ता उपस्थित। अप्रार्थी की ओर से श्री गजेन्द्र खत्री अधिवक्ता उपस्थित। प्रार्थी अधिवक्ता ने अपनी बहस में परिवाद के तथ्यों केा दौहराते हुए तर्क दिया कि प्रार्थी ने अपने वाहन संख्या आर.जे. 07 जी. 4510 अप्रार्थी से फायनेन्स करवा कर खरीद किया था। फायनेन्स के समय प्रार्थी व अप्रार्थी के मध्य जो अनुबन्ध हुआ उसके अनुसार कुल 34 किश्तें प्रत्येक 18,192 रूपये की बनायी गयी जो प्रार्थी को प्रत्येक माह की 5 तारीख से 25 तारीख के मध्य जमा करवानी थी। प्रार्थी ने उक्त वाहन का बीमा दिनांक 16.02.2008 को करवाया था जिसमें प्रार्थी के वाहन की किम्मत 5,00,000 रूपये अंकित की गयी। प्रार्थी अधिवक्ता ने आगे तर्क दिया कि प्रार्थी ने अनुबन्ध के अनुसार अपनी किश्तें अप्रार्थी के यहां जमा करवायी। जुलाई 2008 की किश्त ड्यू होने वाली थी इससे पूर्व ही अप्रार्थी ने दिनांक 01.07.2008 को जबरदस्ती गंुडा तरीके से प्रार्थी के वाहन को सीज कर लिया और जबरदस्ती प्रार्थी से कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिये। प्रार्थी ने दिनांक 01.07.2008 को अप्रार्थी के अधिकृत व्यक्तियों से अपनी कोई भी किश्त बकाया नहीं होने का निवेदन किया। परन्तु उन्होंने प्रार्थी के निवेदन पर गौर नहीं किया और जबरदस्ती वाहन सीज करके ले गये। आखिरकार प्रार्थी अप्रार्थी से मिला तो प्रार्थी को कहा गया कि प्रार्थी की प्रश्नगत वाहन का विक्रय कर प्राप्त होने वाली राशि प्रार्थी के खाता में समायोजित कर दी जावेगी व बची हुई राशि प्रार्थी को लौटा दी जावेगी। प्रार्थी अप्रार्थी के उक्त बातों पर विश्वास करते हुए बकाया राशि के चैक के इन्तजार में था। इसी दौरान दिनांक 10.01.2013 को प्रार्थी को एक नोटिस चैक अनादरण के सम्बंध में मिला। जिस पर प्रार्थी को पता चला कि अप्रार्थी ने प्रार्थी के चैकों का दुरूपयोग किया है। प्रार्थी अधिवक्ता ने तर्क दिया कि अनुबन्ध के अनुसार प्रार्थी की ओर अप्रार्थी का 3,60,400 रूपये बकाया लेना निकलता है जबकि प्रार्थी के वाहन की कीम्मत 5,00,000 रूपये थी जिसके अनुसार प्रार्थी 1,49,600 रूपये अप्रार्थी से प्राप्त करने का अधिकारी है। अप्रार्थी ने प्रार्थी के वाहन का जबरदस्ती सीज करना, बिना नोटिस के विक्रय करना व बकाया राशि प्रार्थी को नहीं लौटाने का कृत्य सेवादोष की श्रेणी का है। इसलिए प्रार्थी अधिवक्ता ने परिवाद स्वीकार करने का तर्क दिया। अप्रार्थी अधिवक्ता ने प्रार्थी अधिवक्ता के तर्कों का विरोध करते हुए मुख्य तर्क यह दिया कि वास्तव में प्रार्थी के वाहन को दिनांक 16.09.2008 को किश्तों के डिफाल्ट पर अधिग्रहण लिया गया था और दिनांक 29.11.2008 को नियमानुसार उक्त वाहन का विक्रय किया गया। जबकि प्रार्थी ने परिवाद करीब 4 वर्ष बाद उक्त दिनांक से किया है। इसलिए प्रार्थी का परिवाद मियाद बाहर है। अप्रार्थी अधिवक्ता ने यह भी तर्क दिया कि प्रार्थी ने वाहन व्यवसायिक प्रयोजन हेतु क्रय किया था। इसलिए परिवाद उपभोक्ता की परिधी में नहीं आता। यह भी तर्क दिया कि प्रार्थी ने परिवाद में जो मुख्य विवाद उत्पन्न किया है। वह अपने वाहन के हिसाब के सम्बंध में है। जिसका निस्तारण प्रार्थी व अप्रार्थी के मध्य निस्पादित अनुबन्ध के तहत आरबीट्रेटर या सिविल न्यायालय के द्वारा ही विस्तरित साक्ष्य से किया जा सकता है। उक्त आधारों पर अप्रार्थी अधिवक्ता ने परिवाद खारिज करने का तर्क दिया।
प्रार्थी ने परिवाद के समर्थन में स्वंय का शपथ-पत्र, खण्डन शपथ-पत्र, रिपेड पेमेन्ट सेड्यूल, किश्त जमा करवाने की रसीद, इन्श्योरेन्स कवर नोट, आर.सी., कोर्ट का सम्मन दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया है। अप्रार्थी की ओर हितेश कुमार जैन का शपथ-पत्र, प्रदर्स आर. 1 से आर. 8 दस्तावेजी साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किये है। पक्षकारान की बहस सुनी गई। पत्रावली का ध्यान पूर्वक अवलोकन किया गया। मंच का निष्कर्ष निम्न प्रकार है।
हमने उभय पक्षों के तर्कों पर मनन किया। वर्तमान प्रकरण में प्रार्थी द्वारा अप्रार्थी से अपने वाहन संख्या आर.जे. 07 जी. 4510 अप्रार्थी से फायनेन्स करवाना, उक्त वाहन अप्रार्थी द्वारा किश्त डिफाल्ट में अधिग्रहण किया जाना व दिनांक 19.11.2008 को वाहन का विक्रय किया जाना व प्रार्थी के विरूद्ध एन.आई. एक्ट के अन्तर्गत क्रिमिनल कम्लेन्ट संख्या 884/2010 गुडगांव ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट से नोटिस जारी होना स्वीकृत तथ्य है। प्रथम विवादक बिन्दु यह है कि प्रार्थी का परिवाद अप्रार्थी के तर्कों के अनुसार मियाद बाहर है। अप्रार्थी अधिवक्ता ने अपनी बहस में मियाद के बिन्दु पर तर्क दिया है कि प्रार्थी के वाहन को दिनांक 16.09.2008 को अधिपत्य में लिया गया था व दिनांक 29.11.2008 को बेचान किया गया था। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 24 ए0 के अनुसार प्रार्थी यह परिवाद वाद कारण की दिनांक 16.09.2008 व 29.11.2008 के 2 वर्ष के अन्दर-अन्दर पेश कर सकता था जबकि प्रार्थी ने यह परिवाद दिनांक 21.03.2013 को 4 वर्ष 6 माह बाद पेश किया है जो स्पष्ट रूप से मियाद बाहर है। प्रार्थी ने भी अपने परिवाद की चरण संख्या 2 में इस तथ्य को स्वीकार किया है कि प्रश्नगत वाहन अप्रार्थी द्वारा दिनांक 01.07.2008 को जबरदस्ती अपने अधिपत्य में ले लिया। अप्रार्थी अधिवक्ता ने उक्त आधार पर तर्क दिया कि परिवाद स्पष्ट रूप से मियाद बाहर है। प्रार्थी अधिवक्ता ने उक्त तर्कों का विरोध किया और तर्क दिया कि प्रार्थी ने मियाद के सम्बंध में एक प्रार्थना-पत्र धारा 24 ए0 का प्रस्तुत किया है जिसमें स्पष्ट कथन किया है कि प्रार्थी अप्रार्थी के आश्वासन के आधार पर समय अनुसार परिवाद पेश नहीं कर सका इसलिए देरी क्षमा योग्य है। मंच की राय में प्रार्थी अधिवक्ता का उक्त तर्क विश्वसनीय प्रतीत नहीं होता क्योंकि प्रार्थी स्वंय ने अपने परिवाद में इस तथ्य का कथन किया है कि उससे अप्रार्थी ने जबरदस्ती दिनांक 01.07.2008 को वाहन अधिपत्य में लिया और प्रार्थी से कुछ खाली कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिये। बड़ा आश्चर्य है कि प्रार्थी ने अप्रार्थी के उक्त कृत्य के सम्बंध में कहीं पर भी कोई शिकायत नहीं की। इसके बाद प्रार्थी के वाहन का बेचान किया गया जिस हेतु प्रार्थी को अप्रार्थी द्वारा दिनांक 20.09.2008 को नोटिस दिया गया था उसके बाद भी प्रार्थी ने कोई आपत्ति नहीं की। प्रार्थी ने यह परिवाद अप्रार्थी द्वारा प्रार्थी के विरूद्ध बकाया राशि हेतु एन.आई. एक्ट का मुकदमा करने के पश्चात नोटिस प्राप्ती के बाद पेश किया है। इससे प्रतीत होता है कि प्रार्थी केवल एन.आई. एक्ट के मुकदमें में केवल प्रतिरक्षा हेतु यह परिवाद पेश किया है। इसलिए प्रार्थी द्वारा देरी हेतु जो तर्क व तथ्य अपने परिवाद व प्रार्थना-पत्र में दिये है वह विश्वसनीय प्रतीत नहीं होते है। इसलिए मंच की राय में प्रार्थी का परिवाद स्पष्ट रूप से मियाद बाहर है। द्वितीय तर्क अप्रार्थी अधिवक्ता ने यह दिया कि वाहन व्यवसायिक प्रयोजन हेतु क्रय किया था इसलिए परिवाद उपभोक्ता अधिनियम की धारा 2 (1) डी0 में कवर नहीं होता। प्रार्थी अधिवक्ता ने उक्त तर्कों का विरोध किया और तर्क दिया कि प्रार्थी ने प्रश्नगत वाहन स्वरोजगार हेतु क्रय किया है इसलिए परिवाद इस मंच के क्षैत्राधिकार का है। इस सम्बंध में हम अप्रार्थी अधिवक्ता द्वारा प्रस्तुत प्रदर्स आर. 2 जो कि प्रार्थी व अप्रार्थी के मध्य निस्पादित हुआ था। उक्त अनुबन्ध के अन्तिम पृष्ठ पर सेड्यूल दिया हुआ जिसमें यह स्पष्ट अंकित है कि व्हीकल का प्रयोग व्यवसायिक के रूप में किया जायेगा। उक्त अनुबन्ध पर प्रार्थी व गारण्टर विजय सिंह के हस्ताक्षर है। इसलिए प्रार्थी अधिवक्ता का यह तर्क मानने योग्य नहीं है कि प्रार्थी ने स्वरोजगार हेतु वाहन क्रय किया था। इसलिए मंच की राय में प्रार्थी का परिवाद उपभोक्ता अधिनियम की धारा 2 (1) डी0 में कवर नहीं होता।
अप्रार्थी अधिवक्ता ने अन्तिम तर्क यह दिया कि प्रार्थी का प्रश्नगत वाहन अनुबन्ध की शर्तों के उल्लंघन के तहत किश्त डिफाल्ट होने पर अधिपत्य में लिया गया था। अधिपत्य में लेने के पश्चात प्रार्थी को विधि अनुसार विक्रय से पूर्व नोटिस भी दिये गये थे। इसलिए प्रार्थी का यह तर्क मानने योग्य नहीं है कि प्रार्थी के वाहन को जबरदस्ती अधिपत्य में लिया हो। प्रार्थी अधिवक्ता ने उक्त तर्कों का विरोध किया और तर्क दिया कि प्रार्थी की कोई किश्तें बकाया नहीं थी। प्रार्थी अधिवक्ता ने बहस के दौरान इस मंच का ध्यान रसीद दिनांक 23.04.2008, 26.06.2008 की ओर ध्यान दिलाया जिनका ध्यान पूर्वक अवलोकन किया गया। प्रार्थी ने अप्रार्थी के यहां 49,600 रूपये किश्त के रूप में जमा करवाये है। प्रार्थी ने तर्क दिया कि अगली किश्त जुलाई में ड्यू थी प्रार्थी वह जमा करवा देता उससे पूर्व ही अप्रार्थी ने प्रार्थी के वाहन का अधिपत्य कर लिया जबकि उससे पूर्व प्रार्थी को कोई नोटिस नहीं दिया। उक्त आधार पर परिवाद स्वीकार करने का तर्क दिया। प्रार्थी अधिवक्ता ने अपनी बहस के समर्थन में इस मंच का ध्यान ए.आई.आर. 2007 एस.सी., 2 सी.पी.जे. 2014 पेज 544 एन.सी., 2 सी.पी.जे. 2014 पेज 19 एन.सी., 3 सी.पी.जे. 2007 पेज 161 एन.सी., 1 सी.पी.जे. 2008 पेज 162 एन.सी., 1 सी.पी.जे. 2008 पेज 216 एन.सी., 1 सी.पी.जे. 2008 पेज 441 एन.सी., 4 सी.पी.जे. 2007 पेज 351 एन.सी. की ओर दिलाया जिनका सम्मान पूर्वक अवलोकन किया गया। न्यायिक दृष्टान्त ए.आई.आर. 2007 एस.सी. में मेनेजर आई.सी.आई.सी.आई. बैंक लि. बनाम प्रकाश कोर एण्ड अदर्स में माननयी उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ज्ीम तमबवअमतल व िठंदा सवंदे वत ेमप्रनतम व िअमीपबसमे बवनसक इम कवदम वदसल जीतवनही समहंस उमंदेण् ज्ीम ठंदो बंददवज मउचसवल हववदकंे जव जंाम चवेमेेपवद इल वितबमण् इसी प्रकार प्रार्थी द्वारा प्रस्तुत अन्य न्यायिक दृष्टान्तों में माननीय राष्ट्रीय आयेाग ने यह मत दिया है कि फायनेन्स कम्पनी अपने द्वारा वित्तपोषित सामान का विधि विरूद्ध अपने आधिपत्य में नहीं ले सकती।
अप्रार्थी अधिवक्ता ने प्रार्थी अधिवक्ता के उक्त तर्कों का विरोध किया और तर्क दिया कि प्रार्थी के विरूद्ध वाहन के अधिपत्य से पूर्व 3 से ज्यादा किश्तें ड्यू थी। इस सम्बंध में अप्राथी अधिवक्ता ने एनेक्जर आर. 1 जो कि प्रार्थी ने भी प्रस्तुत किया है कि ओर ध्यान दिलाया जिसका ध्यान पूर्वक अवलोकन किया। उक्त प्रदर्स आर. 1 के अनुसार प्रार्थी की प्रथम किश्त दिनांक 05.04.2008 से शुरू हुई थी जिसके अनुसार दिनांक 16.09.2008 तक प्रार्थी के जिम्मे 5 किश्तें बकाया हुई। जबकि प्रार्थी ने केवल 3 किश्ते ही अप्रार्थी के यहां जमा करवायी। प्रार्थी ने ऐसा केाई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया जिससे यह साबित हो कि वाहन दिनांक 01.07.2008 अधिपत्य में लिया हो। इसके अतिरिक्त अप्रार्थी ने वाहन अधिपत्य में लेने के बाद प्रार्थी व गारण्टर को दिनांक 20.09.2008 अपने वाहन के लोन के समझौते हेतु दिया था। लेकिन प्रार्थी उक्त पत्र प्राप्त होने के बावजूद अप्रार्थी के यहां कोई आपत्ति नहीं की। इसलिए प्रार्थी अधिवक्ता का यह तर्क मानने योग्य नहीं है कि अप्रार्थी ने प्रार्थी के वाहन को जबरदस्ती व विधि विरूद्ध अपने कब्जे में लिया हो। इसलिए प्रार्थी अपने द्वारा प्रस्तुत न्यायिक दृष्टान्तों से कोई लाभ प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है क्योंकि यदि प्रार्थी से प्रश्नगत वाहन अप्रार्थी ने जबरदस्ती अपने आधिपत्य में लिया था और उससे खाली कागजों पर हस्ताक्षर करवाये थे तो प्रार्थी ने उक्त सम्बंध में किसी भी प्राधिकारी, पुलिस थाना मंे कोई आपत्ति या शिकायत क्यों नहीं दर्ज करवायी और करीब 4 साल 6 माह तक क्यों चूपचाप बैठा रहा। प्रार्थी के कथन विश्वसनीय प्रतीत नहीं होते। अप्रार्थी द्वारा प्रार्थी के वाहन के सम्बंध में की गयी कार्यवाही मंच की राय में किसी भी रूप से विधि विरूद्ध प्रतीत नहीं होती इसलिए प्रार्थी का परिवाद खारिज किये जाने योग्य है।
अतः प्रार्थी का परिवाद अप्रार्थी के विरूद्ध अस्वीकार कर खारिज किया जाता है। पक्षकारान प्रकरण व्यय स्वंय अपना-अपना वहन करेंगे। पत्रावली फैसला शुमार होकर दाखिल दफ्तर हो।