राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील संख्या-3300/2006
(जिला उपभोक्ता फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद संख्या-03/2002 में पारित आदेश दिनांक 14.11.2006 के विरूद्ध)
सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया, बैंक रोड ब्रांच, गोरखपुर द्वारा ब्रांच मैनेजर।
.........अपीलार्थी@विपक्षी
बनाम्
1.हरिद्वार सिंह पुत्र स्व0 श्री रामलखन सिंह, निवासी-203 आवास
विकास कालोनी सूर्यकुण्ड, गोरखपुर।
2.आवास विकास परिषद द्वारा संपत्ति अधिकारी बी-60 सूर्यकुण्ड गोरखपुर।
........प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
1. मा0 श्री उदय शंकर अवस्थी, पीठासीन सदस्य।
2. मा0 श्री राज कमल गुप्ता, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री बी0एल0 जायसवाल, विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित :श्री बी0के0 उपाध्याय, विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक 13.04.2016
मा0 श्री राज कमल गुप्ता, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
प्रस्तुत अपील जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम गोरखपुर के परिवाद संख्या 03/2002 में पारित निर्णय एवं आदेश दि. 14.11.2006 के विरूद्ध योजित की गई है। जिला मंच ने निम्न आदेश पारित किया है:-
'' परिवादी का परिवाद मात्र विपक्षी संख्या 1 के विरूद्ध स्वीकार किया जाता है। विपक्षी संख्या 1 को निर्देशित किया जाता है कि निर्णय के एक माह के अंदर परिवादी को रू. 23000/- एवं उस पर दि. 26.07.1996 से अदायगी पर्यन्त 12 प्रतिशत साधारण वार्षिक की दर से ब्याज व रू. 500/- वाद व्यय तथा रू. 1000/- मानसिक कष्ट के लिये अदा करे।''
संक्षेप में परिवादी के अनुसार तथ्य इस प्रकार हैं कि परिवादी आवास विकास परिषद की सूरजकुण्ड आवासीय योजना के भवन संख्या ए-203 का आवंटी है। इस भवन के किश्तों का भुगतान विपक्षी संख्या 1 सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया के माध्यम से विपक्षी संख्या 2 को किया गया। भवन से संबंधित एक किश्त परिवादी ने दि. 26.07.96 को रू.
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23000/- की विपक्षी संख्या 1 बैंक के यहां विपक्षी संख्या 2 के बचत खाता संख्या 39048 में जमा किया। परिवादी को बाद में ज्ञात हुआ कि दि. 26.07.96 को उसके द्वारा जमा की गई धनराशि रू. 23000/- विपक्षी संख्या 2 आवास विकास परिषद के बचत खाते के लेजर में प्रविष्टि नहीं है। परिवादी ने बैंक में शिकायत की, परन्तु विपक्षी संख्या 1 उदासीन रहा, तत्पश्चात उसके द्वारा दि. 20.08.2001 को पत्र लिखकर कार्यवाही करने का निवेदन किया, परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला। परिवादी ने उस जमा हुई किश्त रू. 23000/- का समायोजन और उसके दौड़भाग में हुए व्यय को समायोजित करने एवं दाण्डिक ब्याज को जो विपक्षी संख्या 2 ने लगाया है उसे माफ करने का अपने परिवाद में अनुतोष चाहा गया है।
जिला मंच के समक्ष विपक्षी संख्या 1 अपीलार्थी ने अपनी आपत्ति में कहा कि परिवाद मियाद से बाधित है। परिवादी से कथित दि. 26.07.96 के जमा पर्चे का परीक्षण किया गया, किंतु उक्त तिथि को रू. 23000/- की धनराशि का जमा होना नहीं पाया जाता है तथा परिवादी/प्रत्यर्थी संख्या 1 ने जो रसीद प्रस्तुत की है वह उस रसीद पर जो लिखा हस्ताक्षर है वह किसी बैंककर्मी के नहीं हैं और इस तरह का कोई वाउचर उनके अभिलेख में उपलब्ध नहीं है। परिवादी ने जो रसीद प्रस्तुत की है वह फर्जी है और उसकी किसी लेजर में प्रविष्टि नहीं है।
पीठ ने उभय पक्ष के विद्वान अधिवक्ताओं की बहस को सुना तथा पत्रावली पर उपलब्ध अभिलेखों एवं साक्ष्यों का भलीभांति परिशीलन किया।
जिला मंच का आदेश दि. 14.11.2006 का है और दि. 27.12.2006 को यह अपील प्रस्तुत की गई है। अपीलार्थी ने विलम्ब से दायर की गई इस अपील में विलम्ब को क्षमा किए जाने हेतु एक प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया है, जो शपथपत्र से समर्थित है। विलम्ब को क्षमा किए जाने हेतु प्रार्थना पत्र में जो कारण दर्शाए गए हैं वे विलम्ब को क्षमा करने हेतु पर्याप्त हैं। अत: अपील को दायर करने में हुए विलम्ब को क्षमा किया जाता है।
अपीलार्थी का कथन है कि दि. 26.07.96 को परिवादी ने रू. 23000/- की धनराशि बैंक में जमा नहीं की और उसने जो रसीद प्रस्तुत की है उस पर उनके कैशियर के हस्ताक्षर नहीं है। रबर स्टांप भी बैंक का नहीं है। अपीलार्थी के अनुसार परिवादी ने अपनी रसीद में बैंक के कैशियर उमाशंकर सिंह के हस्ताक्षर बतलाए हैं, जबकि उमाशंकर
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सिंह कैशियर दि. 23.07.96 से 02.08.96 के मध्य अवकाश पर थे और इस आशय का शपथपत्र श्री उमाशंकर सिंह द्वारा भी दिया गया है। दि. 26.07.96 को राजीव कुमार कैशियर थे। परिवादी ने अपना परिवाद दि. 03.01.2002 को प्रस्तुत किया, जबकि 26.07.96 को वाद का कारण उत्पन्न हुआ। इस प्रकार यह वाद कालबाधित है। इस परिवाद में धोखाधड़ी एवं जालसाजी का प्रश्न निहित है, जिसके लिए मौखिक लिखित साक्ष्य के प्रतिपरीक्षण की आवश्यकता होगी, अत: इस प्रकरण का निस्तारण जिला मंच द्वारा उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत समरी कार्यवाही में नहीं किया जा सकता है।
प्रत्यर्थी ने अपनी बहस में यह कहा कि बहुत सी रसीदों पर स्क्राल नम्बर अंकित नहीं है और इसका कोई कालम भी नहीं है। बैंक के कर्मचारी की त्रुटि के लिए बैंक जिम्मेदार है और यदि बैंक ने अपने लेजर में इसको अंकित नहीं किया है तो इसकी जिम्मेदारी बैंक की है। बैंक को ही यह जानकारी हो सकती है कि दि. 26.07.96 को कौन कैशियर ड्यूटी पर था, उस तथ्य को जिला मंच के समक्ष रखना चाहिए था।
पत्रावली पर उपलब्ध साक्ष्यों एवं अभिलेखों से यह स्पष्ट है कि परिवादी/प्रत्यर्थी संख्या 1 आवास विकास परिषद विपक्षी संख्या 2 के एक भवन का आवंटी है और उसके द्वारा अपीलार्थी बैंक के माध्यम से किश्तें जमा की जा रही थी। इस प्रकरण में मुख्य विवाद का बिन्दु यह है कि दि. 26.07.96 को रू. 23000/- की किश्त अपीलार्थी बैंक के माध्यम से आवास विकास परिषद विपक्षी संख्या 2 के खाते में जमा हुई या नहीं। प्रत्यर्थी संख्या 1 का कथन है कि उसके द्वारा अपीलार्थी बैंक के माध्यम से विपक्षी संख्या 2 के खाता संख्या 39048 रू. 23000/- की धनराशि दि. 26.07.96 को जमा की और अपने कथन के समर्थन में उसके द्वारा आवंटी की रसीद की प्रति को प्रस्तुत किया। अपीलार्थी का कथन है कि प्रत्यर्थी संख्या 1/परिवादी ने दि. 26.07.96 को रू. 23000/- की धनराशि जमा नहीं की और यह रसीद फर्जी है तथा परिवादी ने जो यह कथन किया है कि जिला मंच के समक्ष परिवादी ने यह कहा था कि उसके स्मरण के अनुसार श्री उमाशंकर ने यह धनराशि जमा किया था, जबकि बैंक का कहना है कि उमाशंकर सिंह दि. 26.07.96 को अवकाश पर थे, अत: उनके द्वारा धनराशि जमा करने का कोई प्रश्न नहीं उठता है। बैंक का यह भी कथन है कि परिवादी द्वारा जो रसीद दाखिल की गई है उसमें जिस रूप में सील दिखाई देती है वह सील बैंक की मोहर से अलग है। इस प्रकार यह
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तथ्य महत्वपूर्ण है कि परिवादी ने जिस कैशियर द्वारा जमा धनराशि का होना बतलाया है वह अवकाश पर था। बैंक की मोहर में भी अंतर है। यह सर्वमान्य है कि बैंक में करोड़ों रूपए के ट्रांजिक्शन होते हैं और धनराशि का मिलान होता है, अत: यदि एक छोटी धनराशि का भी अंतर होता है तो बैंक को पता लग जाता है। रू. 23000/- की धनराशि है जो बड़ी धनराशि है, अत: यदि यह जमा की गई होती तो बैंक के लेजर आवास विकास के लेजर में इसकी इन्ट्री अवश्य होती। प्रश्न यह उठता है कि यदि परिवादी ने धनराशि जमा की तो वह बैंक से कहां गई या तो वह गबन कर ली गई या परिवादी ने धनराशि जमा नहीं की, अत: निश्चित रूप से इस प्रकरण में धोखाधड़ी एवं जालसाजी का प्रश्न निहित है। उपरोक्तानुसार वर्णित विवादास्पद बिन्दुओं पर विस्तृत साक्ष्य की आवश्यकता होगी। मात्र पक्षगण की शपथपत्रीय साक्ष्य के आधार पर पक्षगण के मध्य परिवाद का प्रभावी रूप से समरी कार्यवाही में निस्तारण नहीं हो सकता है। इस प्रकार हमारे मतानुसार इस प्रकरण में तथ्य के जटिल विवादास्पद प्रश्न सन्निहित हैं।
मा0 राष्ट्रीय उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग नई दिल्ली ने समतुल्य तथ्यों पर आधारित प्रकरण Vishamber Sunderdas Badlani And Vs. Indian Bank and Ors.I (2008)CPJ 76 NC में निम्नांकित मत अभिव्यक्त किया:-
"Seeing various judgment of the Supreme Court and this Commission, It is evident that whenever not only the complicated questions of law but disputed questions of facts, relating to unauthorized representations made about paying higher rate of interest and requirement of recording voluminous evidence etc. and relating to forgery and conspiracy involving eight persons and other points mentioned earlier are involved. It would be desirable that the matter should not be dealt with by this Commission and could be relegated to the Civil Court. We feel that in the present state of law and the observations of the Supreme Court itself and the aforesaid circumstances, we cannot take any other view."
उपरोक्त विवेचना के दृष्टिगत जिला मंच का आदेश निरस्त होने योग्य है। तदनुसार अपील स्वीकार किए जाने योग्य है। प्रत्यर्थी/परिवादी सक्षम दीवानी न्यायालय में परिवाद योजित कर सकता है।
आदेश
प्रस्तुत अपील स्वीकार की जाती है तथा जिला मंच द्वारा पारित निर्णय/आदेश दि. 14.11.2006 निरस्त किया जाता है।
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पक्षकार अपना-अपना अपीलीय व्यय स्वयं वहन करेंगे।
(उदय शंकर अवस्थी) (राज कमल गुप्ता)
पीठासीन सदस्य सदस्य
राकेश, आशुलिपिक
कोर्ट-5