राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
(मौखिक)
अपील संख्या:-355/2014
(जिला उपभोक्ता आयोग, गाजियाबाद द्धारा परिवाद सं0-66/2013 में पारित आदेश दिनांक 06.01.2014 के विरूद्ध)
विजय पुन्डीर, फ्लैट सं0-540, जी0एच0-14, गेट सं0-5 पश्चिम विहार नई दिल्ली।
.......... अपीलार्थी/परिवादी
बनाम
1- गौर संस प्रमोटर प्रा0लि0 द्वारा निदेशक, बिज पार्क, अभख खण्ड-2, गाजियाबाद।
2- इन्वेस्टर क्लीनिक, इन्ट्रा लि0 5पी मंजिला तप्यसा क्राप हाईटस् (एन आई आई टी बिल्डिंग) क्यू आर जी टावर के सामने, सेक्टर 126, नोयडा 201303।
…….. प्रत्यर्थी/विपक्षीगण
समक्ष :-
मा0 श्री विकास सक्सेना, सदस्य
मा0 डा0 आभा गुप्ता, सदस्य
अपीलार्थी के अधिवक्ता : श्री प्रतीक सक्सेना
प्रत्यर्थी सं0-1 के अधिवक्ता : श्री मोहित यादव
प्रत्यर्थी सं0-2 के अधिवक्ता : श्री आई0पी0एस0 चडढा
दिनांक :-24-5-2022
मा0 श्री विकास सक्सेना, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
प्रस्तुत अपील, अपीलार्थी/परिवादी विजय पुन्डीर द्वारा इस आयोग के सम्मुख धारा-15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अन्तर्गत जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, गाजियाबाद द्वारा परिवाद सं0-66/2013 में पारित आदेश दिनांक 06.01.2014 के विरूद्ध योजित की गई है, जिसके माध्यम से उपरोक्त वाद को जिला उपभोक्ता आयोग ने समझौते के आधार पर निस्तारित किया है।
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अपीलार्थी/परिवादी द्वारा प्रस्तुत परिवाद इन अभिकथनों के साथ प्रस्तुत किया गया कि अपीलार्थी/परिवादी ने प्रत्यर्थी/विपक्षी गौर संस से फ्लैट सं0-1635, ब्लॉक-ई, 11वॉ ऐवन्यू, ग्रेटर नोएडा के लिए प्रत्यर्थी/विपक्षी की योजना के अन्तर्गत फ्लैट लेने के लिए सम्पर्क किया तथा दो चेक रू0 2,00,000.00 एवं रू0 1,72,000.00 कुल रूपया 3,72,000.00 प्रत्यर्थी/विपक्षी को प्रदान किया, जिसकी विविधवत रसीद प्राप्त हुई। बुकिंग के समय मा0 सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार प्रत्यर्थी/विपक्षी गौर संस की निर्माण गतिविधियॉ बन्द थी। अपीलार्थी/परिवादी को बुकिंग के उपरांत कोई भी जानकारी प्रश्नगत फ्लैट के सम्बन्ध में नहीं दी गई। माह जनवरी, 2013 में सम्पर्क करने पर अपीलार्थी/परिवादी के ज्ञात हुआ कि उसका फ्लैट बिना किसी कारण के निरस्त कर दिया गया है। अपीलार्थी/परिवादी के अनुसार अनेकों पत्र एवं ई-मेल भेजने के बावजूद उसे कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई। अपीलार्थी/परिवादी द्वारा बार-बार अपीलार्थी/विपक्षी के कार्यालय में सम्पर्क किया गया, अंतत: दिनांक 19.02.2013 को जिला उपभोक्ता आयोग में एक शिकायत दर्ज की गई। जिला उपभोक्ता आयोग के दिशा-निर्देश पर प्रत्यर्थी/विपक्षी सं0-1 को अपीलार्थी/परिवादी के पत्र दिनांक 12.3.2013 एवं 25.3.2013 स्पीड पोस्ट से भेजे, परन्तु उसका कोई उत्तर अपीलार्थी/परिवादी को प्राप्त नहीं हुआ। अपीलार्थी/परिवादी के अनुसार प्रत्यर्थी/विपक्षी द्वारा अपीलार्थी/परिवादी को तंग एवं परेशान किया जा रहा है एवं उसके द्वारा बुक किये गये फ्लैट को नहीं दिया जा रहा है। अपीलार्थी/परिवादी ने परिवाद में रू0 10,00,000.00 शारीरिक एवं मानसिक प्रताड़ना तथा 33,000.00 रू0 वाद व्यय की प्रार्थना के साथ प्रश्नगत फ्लैट अपीलार्थी/परिवादी को दिलाये जाने की याचना की है।
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वाद के दौरान प्रत्यर्थी/विपक्षी की ओर से वादोत्तर प्रस्तुत किया गया, जिसमें कथन किया गया है कि अपीलार्थी/परिवादी के पक्ष को ध्यान में रखते हुए दिनांक 23.4.2013 को बकाया धनराशि भुगतान करने को कहा गया, परन्तु अपीलार्थी/परिवादी ने कोई कार्यवाही नहीं की। अपीलार्थी/परिवादी को फ्लैट निरस्तीकरण की कार्यवाही से बचने के लिए रू0 27,02,856.00 भुगतान करने के लिए कहा, किन्तु अपीलार्थी/परिवादी ने धनराशि जमा नहीं की। विवश होकर अपीलार्थी/परिवादी के पत्र दिनांक 17.6.2013 के माध्यम से यूनिट निरस्त करने की जानकारी दी गई। अपीलार्थी/परिवादी स्वयं एक डिफाल्टर है, किन्तु अपनी गलती का दोष प्रत्यर्थी/विपक्षी पर मढना चाहता है। इन आधारों पर परिवाद निरस्त करने की प्रार्थना की गई।
परिवाद के दौरान विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा दिनांक 06.01.2014 को निम्नलिखित आदेश पारित किया गया:-
"वादी स्वयं हाजिर है। विपक्षी के अधिवक्ता श्री नवीन श्रीवास्तव हाजिर है। विपक्षी का साक्ष्य नहीं आया है। विपक्षी के अधिवक्ता का कहना है कि उनका वादी के साथ फोरम के बाहर आपस में समझौता हो गया है। विपक्षी वादी को 3,00,000.00(तीन लाख) रूपये देने के लिए तैयार है, वादी भी इसे स्वीकार करने के लिए तैयार है। वादी तथा विपक्षी के अधिवक्ता का संयुक्त बयान अलग से लिखा गया। समझौते के कारण तथा संयुक्त बयान के मुताबिक वादी का वाद विपक्षीगण के खिलाफ आंशिक रूप से मंजूर किया जाता है। अलग से लिखा हुआ संयुक्त बयान इस आदेश का हिस्सा रहेगा। विपक्षीगण को हिदायत दी जाती है कि विपक्षीगण वादी को 3,00,000.00 (तीन लाख) रूपये की रकम आज से 10 दिन के अंदर अदा कर दें। वरना 10 प्रतिशत वाद दायर करने के दिनांक से वसूली के दिनांक तक अदा करना
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होगा। फ्लैट नं0-1635 ब्लॉक-ई, 11वॉ ग्रेटर नोएडा आज से मुक्त किया जाता है। आदेश की कापी पक्षकारों को दी जाये। पत्रावली दाखिल दफ्तर हो।"
उक्त आदेश से व्यथित होकर अपीलार्थी/परिवादी ने यह अपील प्रस्तुत की है।
प्रस्तुत अपील में अपीलार्थी/परिवादी का मुख्य रूप से कथन यह है कि जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा पारित किया गया आदेश तथ्यों पर आधारित नहीं है। जिला उपभोक्ता आयोग, गाजियाबाद द्वारा अपीलार्थी/परिवादी के परिवाद को समझौते के आधार पर निस्तारित कर दिया गया था, जबकि दिनांक 06.01.2014 को पत्रावली प्रत्यर्थी/विपक्षी के साक्ष्य हेतु नियत थी। अपीलार्थी/परिवादी के अनुसार जिला उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष महोदय ने अपीलार्थी/परिवादी के अधिवक्ता की अनुपस्थिति में उस पर समझौते के लिए कहा और बताया कि उसको सारी धनराशि दोनों प्रत्यर्थी/विपक्षीगण से मय ब्याज वापस करा दी जायेगी और उससे एक समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करवा लिया। जिला उपभोक्ता आयोग के द्वारा अपीलार्थी/परिवादी को यह आश्वासन भी दिया गया कि जब तक उसका सारा पैसा मय ब्याज के वापस नहीं हो जाता है, तब तक प्रत्यर्थी/विपक्षीगण के फ्लैट सं0-1635 ब्लॉक-ई को अवमुक्त नहीं किया जायेगा, किन्तु अपीलार्थी/परिवादी को बाद में पता चला कि उक्त फ्लैट अवमुक्त कर दिया गया है। अपीलार्थी/परिवादी की ओर से मुख्य रूप से इस तथ्य पर भी बल दिया गया कि जिला उपभोक्ता आयोग ने अपने आदेश में अपीलार्थी/परिवादी की जमा धनराशि में 20 प्रतिशत की धनराशि की कटौती कर शेष धनराशि का भुगतान किये जाने का आदेश पारित किया है, जबकि प्रत्यर्थी/विपक्षी ने अपने जवाब दावे में यह स्वीकार किया है कि वह अपने नियम व शर्तों से बाध्य है वह नियम व शर्तों के अनुसार किस्तें अदा न होने
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पर एवं आवंटन निरस्त होने पर 10 प्रतिशत की धनराशि काट कर शेष धनराशि वापस किये जाने का प्राविधान है। अत: अपीलार्थी/परिवादी द्वारा यह समझौता करने का कोई प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता है इन आधारों पर प्रश्नगत आदेश अपास्त किये जाने एवं अपील स्वीकार किये जाने की प्रार्थना की गई है।
अपीलार्थी की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री प्रतीक सक्सेना एवं प्रत्यर्थी सं0-1 की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री मोहित यादव तथा प्रत्यर्थी स0-3 की ओर से विद्वान अधिवक्ता श्री आई0पी0एस0 चडढा के तर्क को सुना तथा पत्रावली पर उपलब्ध समस्त प्रपत्रों का अवलोकन किया गया।
प्रश्नगत आदेश के अवलोकन से यह स्पष्ट होता है कि जिला उपभोक्ता आयोग ने अपने आदेश में उल्लेख किया है कि प्रत्यर्थी/विपक्षी के अधिवक्ता का कथन है कि उनका अपीलार्थी/परिवादी के साथ जिला उपभोक्ता आयोग के बाहर समझौता हो गया है। प्रत्यर्थी/विपक्षी, अपीलार्थी/परिवादी को 3,00,000.00 रू0 देने के लिए तैयार है। अपीलार्थी/परिवादी भी इसे स्वीकार करने के लिए तैयार है। जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा अपीलार्थी/परिवादी तथा प्रत्यर्थी/विपक्षी के अधिवक्ता का संयुक्त बयान अलग से लिखा गया। उक्त आदेश के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि इस आशय के दो किता आदेश दिनांक 06.01.2014 को लिखे गये, जिनमें से दूसरा परिवादी श्री विजय पुंडीर तथा प्रत्यर्थी/विपक्षी के अधिवक्ता श्री नवीन श्रीवास्तव का संयुक्त बयान है उस पर भी पक्षकारों के हस्ताक्षर है एवं जिला उपभोक्ता आयोग के अध्यक्ष व सदस्या महोदय के हस्ताक्षर भी हैं। अत: यह स्वाभाविक प्रतीत होता नहीं होता है कि अपीलार्थी/परिवादी द्वारा यह लिखा गया बयान एवं आदेश बिना पढ़े हुए हस्ताक्षर कर दिया गया हो।
अपीलार्थी की ओर से यह तर्क दिया गया कि बयान के अंतिम लाइन जिसमें फ्लैट सं0-1635 को मुक्त किये जाने का वर्णन है, अलग से बढाया गया प्रतीत होता है, किन्तु इस तर्क में बल प्रतीत नहीं होता है इस दिवस को किया
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गया आदेश दिनांकित 06.01.2014 में भी उक्त आशय का तथ्य लिखा हुआ है किन्तु यह अलग से बढाया हुआ प्रतीत नहीं होता है। अत: इन दोनों आदेश एवं बयान के अवलोकन से स्पष्ट है कि अपीलार्थी/परिवादी द्वारा यह समझौता जिला उपभोक्ता न्यायालय में किया गया है।
समझौते के आधार पर पारित आदेश है, यह स्थापित विधि है कि समझौते की आज्ञप्ति के विरूद्ध अपील पोषणीय नहीं है। इस सम्बन्ध में मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित निर्णय Katikara Chintamani Dora & Ors Vs. Guntreddi Annamnaidu & Ors प्रकाशित 1974 AIR SC Page 1069 इस सम्बन्ध उल्लेखनीय है कि मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने इस निर्णय में यह निर्णीत किया गया है कि समझौते की आज्ञप्ति (Consent Decree) धारा-96 (3) सी0पी0सी0 के प्राविधानों के प्रकाश में अपील योग्य नहीं है।
यद्यपि मा0 सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय सिविल प्रक्रिया के प्राविधानों के अनुसार है किन्तु सैद्धान्तिक रूप से यह उपभोक्ता मामलों में भी लागू होता है एवं उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के इस सिद्धांत को दृष्टिगत रखत हुए मामलों का निस्तारण यथासम्भव शीघ्रता से एवं प्रयोगात्मक रूप से किया जाए, यह उचित प्रतीत होता है कि एक बार समझौता हो जाने के उपरांत विवाद को अंतिम रूप देने के लिए उपभोक्ता परिवाद में भी समझौते के निर्णय (Judgement on Consent) में हस्तक्षेप न किया जाए। मा0 सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय को दृष्टिगत रखते हुए उपरोक्त विवेचन के आधार पर आदेश में हस्तक्षेप किये जाने की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है।
अपील में एक तर्क यह भी दिया गया है कि उभय पक्ष के मध्य हुए समझौते के अनुसार किस्तें अदा न होने पर अथवा अन्य किसी कारण से फ्लैट का आवंटन निरस्त होने पर अनुबन्ध के अनुसार 10 प्रतिशत धनराशि की कटौती किये जाने का ही प्राविधान था, अत: इस धनराशि से कम अर्थात 10 प्रतिशत की
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कटौती से अधिक कटौती किये जाने का समझौता अपीलार्थी/परिवादी को स्वीकार नहीं है। किन्तु इस तर्क में बल प्रतीत नहीं होता है। समझौते निश्चय ही वाद विवाद को शीघ्र निपटाने एवं मुकदमें बाजी को छोटा व समाप्त करने के उद्देश्य से किया जाता हैं। अत: एक बार समझौता हो जाने के उपरांत अपीलार्थी/परिवादी का यह तर्क नहीं माना जा सकता है कि उसने यह समझौता किसी दबाव में किया था।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर प्रश्नगत आदेश में हस्तक्षेप की आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है, प्रश्नगत आदेश पुष्ट होने एवं अपील निरस्त होने योग्य है।
आदेश
प्रस्तुत अपील निरस्त की जाती है तथा विद्वान जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, गाजियाबाद द्वारा परिवाद सं0-66/2013 में पारित आदेश दिनांक 06.01.2014 की पुष्टि की जाती है।
अपील में उभय पक्ष अपना-अपना वाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस आदेश को आयोग की बेवसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।
(विकास सक्सेना) (डा0 आभा गुप्ता)
सदस्य सदस्य
हरीश आशु.,
कोर्ट नं0-3