Shri Surendra Singh filed a consumer case on 04 Aug 2018 against Dr. Navneet Madaan in the Muradabad-II Consumer Court. The case no is cc/43/2008 and the judgment uploaded on 31 Aug 2018.
न्यायालय जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम-द्वितीय, मुरादाबाद
परिवाद संख्या-43/2008
श्री सुरेन्द्र कुमार शर्मा आयु 30 साल पुत्र श्री रघुवीर प्रसाद निवासी मौहल्ला रेलवे हरथला कालोनी, निकट जी के बेलहम स्कूल अन्तर्गत थाना सिविल लाइन्स, मुरादाबाद। …....परिवादी
बनाम
1-डा.नवनीत मदान निवासी डी-9 रामगंगा विहार फेस-2 सेलटैक्स आफिस के सामने, सांई मंदिर के आगे एमटीआई रोड, मुरादाबाद।
2-डा. आर.के. जैन कोर्ट रोड निकट गांधी आश्रम मुरादाबाद।
3-न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लि. शाखा स्टेशन रोड विपरीत कुंवर सिनेमा मुरादाबाद।
4-नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लि. शाखा तृतीय बेगमि ब्रिज मेरठ द्वारा उसके शाखा प्रबन्धक। ….....विपक्षीगण
वाद दायरा तिथि: 01-03-2008 निर्णय तिथि: 04.08.2018
उपस्थिति
श्री पवन कुमार जैन, अध्यक्ष
श्री सत्यवीर सिंह, सदस्य
(श्री पवन कुमार जैन, अध्यक्ष द्वारा उद्घोषित)
निर्णय
‘’I.Negligence is the breach of a duty exercised by omission to do something which a reasonable man, guided by those considerations which ordinarily regulate the conduct of human affairs, would do, or doing something which a prudent and reasonable man would not do.
III. The medical professional is expected to bring a reasonable degree of skill and knowledge and must exercise a reasonable degree of care. Neither the very highest nor a very low degree of care and competence judged in the light of the particular circumstances of each case is what the law requires.
IV. A medical practitioner would be liable only where his conduct fell below that of thestandards of a reasonably competent practitioner in his field.
V. In the realm of diagnosis and treatment there is scope for genuine difference of opinion and one professional doctor is clearly not negligent merely because his conclusion differs from that of other professional doctor.
VI. The medical professional is often called upon to adopt a procedure which involves higher element of risk, but which he honestly believes as providing greater chances of success for the patient rather than a procedure involving lesser risk but higher chances of failure. Just because a professional looking to the gravity of illness has taken higher element of risk to redeem the patient out of his/her suffering which did not yield the desired result may not amount to negligence.
VII. Negligence cannot be attributed to a doctor so long as he performs his duties with reasonable skill and competence. Merely because the doctor chooses one course of action in preference to the other one available, he would not be liable if the course of action chosen by him was acceptable to the medical profession.
VIII. It would not be conducive to the efficiency of the medical profession if no Doctor could administer medicine without a halter round his neck.
X. The medical practitioners at times also have to be saved from such a class of complainants who use criminal process as a tool for pressurizing the medicalprofessionals/hospitals particularly private hospitals or clinics for extracting uncalled for compensation. Such malicious proceedings deserve to be discarded against the medical practitioners.
XI. The medical professionals are entitled to get protection so long as they perform their duties with reasonable skill and competence and in the interest of the patients. The interest and welfare of the patients have to be paramount for the medical professionals.‘’
18.मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा Martin F.D’ Souza v. Mohd. Ishfaq., I (2009) सी0पी0जे0 पृष्ठ-32 की निर्णयज विधि के पैरा सं0-41 और पैरा सं0-49 में निम्न अभिमत दिया गया है :-
पैरा संख्या-41 “ A medical practitioner is not liable to be held negligent simply because things went worng from mischance or misadventure or thorugh an error of judgement in choosing one reasonable course of treatment in preference to another. He would be liable only where his conduct fell below that of the standards of reasonably competent practitioner in his field .”
पैरा संख्या-49 “ When a patient dies or suffers some mishap, there is a tendency to blame the doctor for this. Things have gone wrong and, therefore, somebody must be punished for it. However, it is well known that even the best professionals, what to say of the average professional, sometimes have failures. A lawyer cannot win every case in his professional career but surely he cannot be penalized for losing a case provided he appeared in it and made his submissions.”
19.उपरोक्ता सिद्धान्तों के आलोक में यह देखना यह है कि प्रश्नगत मामले में परिवादी का आपरेशन एवं इलाज करने में विपक्षी-1 व विपक्षी-2 ने कोई चिकत्सिीय लापवाही की थी अथवा नहीं। विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि परिवादी के गाल ब्लेडर में काफी सूजन थी, जिस कारण उसका आपरेशन लेप्रोस्कोपिक विधि से किया जाना चिकित्सीय सिद्धान्तों के अनुसार असुरक्षित था, जिस कारण परिवादी का आपरेशन ओपन सर्जरी द्वारा किया गया। इलाज/आपरेशन की रसीद कागज सं.-4/3 की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हुए विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता ने यह भी कहा कि परिवादी से अंकन-8000/-रूपये की जो धनराशि चार्ज की गई थी उसमें दिनांक 04-03-2006 को किये गये उसके आपरेशन तथा आपरेशन के उपरान्त दिनांक 10-03-2006 तक विपक्षी-1 के अस्पताल में अन्त: रोगी के रूप में भर्ती रहने तथा ड्रेसिंग इत्यादि सभी सम्मिलित था। उन्होंने यह भी कहा कि परिवादी कोई भी ऐसा प्रपत्र दाखिल नहीं कर पाया, जिससे उसके इस कथन की पुष्टि होती हो कि विपक्षी-1 ने परिवादी का आपरेशन लेप्रोस्कोपिक विधि से करने का परिवादी से वादा किया था। विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता ने अग्रेत्तर यह भी तर्क दिया कि प्रतिवाद पत्र में इंगित किये जाने के बावजूद आपरेशन से पूर्व के अन्य डाक्टरों, डा. एल.के. धर एवं डा. राजेश रस्तौगी से कराये गये अपने इलाज व अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट, इन डाक्टरों द्वारा दी गई इलाज की विवरणिका तथा पैथोलॉजी रिपोर्टस इत्यादि को परिवादी ने फोरम के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया, जिससे परिवादी की दूषित मनोवृत्ति परिलक्षित होती है। विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता ने बल देकर कहा है कि उक्त जांच रिपोर्टस में स्पष्ट था कि परिवादी के गाल ब्लेडर में अत्यधिक सूजन है और यही कारण था कि परिवादी ने उक्त रिपोर्टस फोरम के समक्ष प्रस्तुत नहीं कीं। विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता के उक्त तर्कों में बल दिखायी देता है।
20.विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता का यह भी तर्क है कि गाल ब्लेडर का आपरेशन करते समय विपक्षी-1 डा. मदान ने यह पाया कि परिवादी का गाल ब्लेडर चिपका हुआ था, जिस कारण पूरा गाल ब्लेडर निकाला जाना संभव नहीं था क्योंकि ऐसा प्रयास करने से परिवादी की कामन बाइलडक्ट तथा हिपेटिक आरटरी को क्षति पहुंचने की संभावना थी और ऐसी क्षति होने से परिवादी की जान भी जा सकती थी, परिवादी को पीलिया अथवा अन्य बीमारियां होने की भी प्रबल संभावना थी। विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता का यह भी तर्क है कि ओपन सर्जरी में डा. मदान ने यद्यपि गाल ब्लेडर में मौजूद सभी स्टोन्स को सावधानीपूर्वक निकालने का यथासंभव प्रयास किया था किन्तु ऐसे मामले में इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कोई ऐसा स्टोन जो शल्य क्रिया के दौरान दिखायी न दे, वह गाल ब्लेडर में रह जाये। अपने इस कथन की पुष्टि में विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता द्वारा बी.एच. परमार(डाक्टर) बनाम डोडिया मनहर भाई उर्फ मनुभाई, IV (2011) सीपीजे पृष्ठ-150(एनसी) के मामले में माननीय राष्ट्रीय उपभोक्ता आयोग, नई दिल्ली द्वारा दी गई विधि व्यवस्था का अवलम्ब लिया, यह रूलिंग वर्तमान मामले के तथ्यों पर पूर्णतया लागू होती है।
21.विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता ने चिकित्सीय प्रपत्र कागज सं.-4/4 की ओर भी हमारा ध्यान आकर्षित किया और कहा कि आपरेशन के बाद डा. मदान ने परिवादी को बताया था कि यह सुनिश्चित करने के लिए आपरेशन के बाद गाल ब्लेडर में कोई स्टोन तो नहीं रह गया है तथा उसमें से ड्रेन क्यों हो रहा है, परिवादी ईआरसीपी टेस्ट करा ले। विपक्षी-1 के विद्वान अधिवक्ता के अनुसार इस टेस्ट की सुविधा मुरादाबाद में उपलब्ध नहीं है। परिवादी ने तत्काल यह टेस्ट नहीं कराया और ऐसा करके परिवादी स्वयं अपनी चिकित्सा के प्रति लापरवाह रहा। 22.परिवादी की ओर से जो भी चिकित्सीय प्रपत्र दाखिल किये गये हैं, उनमें यह कहीं भी उल्लेख नहीं है कि विपक्षी-1 ने परिवादी के इलाज व आपरेशन में चिकित्सीय लापरवाही बरती थी। 23.जहां तक परिवादी द्वारा विपक्षी-2 डा. आर.के. जैन के विरूद्ध लगाये गये इन आरोपों का प्रश्न है कि डा. जैन ने डा. मदान के अस्पताल में आकर वहीं परिवादी के गाल ब्लेडर में डाई डालकर गलत जांच रिपोर्ट तैयार की और इस जांच रिपोर्ट में आपरेशन के उपरान्त सब कुछ नार्मल दर्शाकर चिकित्सीय लापरवाही की है, आधारहीन एवं हास्यस्पद दिखायी देता है। विपक्षी-2 के विद्वान अधिवक्ता के अनुसार परिवाद के पैरा-5 में गाल ब्लेडर के जिस टेस्ट का परिवादी ने जिक्र किया है, वह टेस्ट भारी मशीनों द्वारा किया जाता है, जिसे मशीनें ले जाकर डा. आर.के. जैन द्वारा डा. मदान के अस्पताल में जाकर किया जाना संभव ही नहीं था। हम यहां इस बात का भी उल्लेख करना समीचीन समझते हैं कि यदि डा. आर.के. जैन को डा. मदान के प्रभाव में आकर परिवादी के आपरेशन के बाद उसके गाल ब्लेडर की गलत तरीके से रिपोर्ट ‘’नार्मल’’ देनी थी तो उसके लिए डा. जैन को डा. मदान द्वारा अपने अस्पताल में बुलाये जाने की कोई आवश्यकता नहीं थी, ऐसी रिपोर्ट तो डा. जैन अपने कोर्ट रोड स्थित क्लीनिक पर भी दे सकते थे, कदाचित डा. जैन को अपने अस्पताल में बुलाकर गलत तरीके से अपने पक्ष में डा. मदान द्वारा रिपोर्ट कागज सं.-4/9 तैयार कराये जाने विषयक परिवादी के आरोप मनगढन्त एवं मिथ्या हैं। एक तथ्य यह भी उल्लेखनीय है कि रिपोर्ट कागज सं.-4/9 के उपरान्त परिवादी ने अपने अपर अबडामिन का अल्ट्रासाउंड विपक्षी-2 से दिनांक 19-4-2006 को कराया था। अल्ट्रासाउंड की यह रिपोर्ट पत्रावली का कागज सं.-4/11 है। अल्ट्रासाउंड की इस रिपोर्ट के अवलोकन से प्रकट है कि परिवादी ने यह अल्ट्रासाउंड एम्स, नई दिल्ली के डा. प्रमोद गर्ग के रेफरेंस पर कराया था। जैसा कि चिकित्सीय प्रपत्र कागज सं.-4/14 से प्रकट है। परिवादी पक्ष इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं दे पाये कि यदि दिनांक 08-3-2006 को गाल ब्लेडर के आपरेशन के बाद डा. जैन ने रिपोर्ट कागज सं.-4/9 डा. मदान के प्रभाव में आकर गलत दी थी तो पुन: दिनांक 19-4-2006 को परिवादी द्वारा इन्हीं डा. जैन से अपने पेट का अल्ट्रासाउंड कराने का क्या औचित्य था। सामान्यतया यदि किसी चिकित्सक के प्रति मरीज का अविश्वास जाग्रत हो जाता है तो वह मरीज पुन: उस चिकित्सक के पास नहीं जाता। हमारे कहने का आशय यह है कि दिनांक 19-4-2006 को डा. आर.के. जैन विपक्षी-2 से परिवादी द्वारा अपने पेट का अल्ट्रासाउंड कराना यह दर्शाता है कि दिनांक 08-3-2006 की रिपोर्ट कागज सं.-4/9 के संदर्भ में परिवादी ने डा. जैन और डा. मदान के विरूद्ध सोची-समझी रणनीति के तहत मिथ्या आरोप लगाये हैं। 24. हमारे विनम्र अभिमत में परिवादी द्वारा अपने परोक्ष उद्देश्य की पूर्ति हेतु विपक्षी-1 एवं विपक्षी-2 पर चिकित्सीय लापरवाही बरतने के आधारहीन एवं अनर्गल आरोप लगाये हैं, जो किसी भी दृष्टि से प्रमाणित नहीं हुए है। ऐसे मामलों के प्रति जन सामान्य को सचेत करते हुए सी0पी0 श्रीकुमार (डाक्टर) बनाम रामानुजम, II (2009) CPJ 48 (SC), की निर्णयज विधि में मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निम्न संवीक्षण किया गया है:-
“ It is observed that too much suspicion about the negligence of the attending doctors and frequent interference by Courts could be a dangerous proposition as it would prevent doctors from taking decision which could result in complications and in such a situation the patient will be the ultimate sufferer.”
25-उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि परिवादी विपक्षी-1 एवं विपक्षी-2 द्वारा इलाज, आपरेशन व जांच इत्यादि में किसी प्रकार की चिकित्सीय लापरवाही किया जाना प्रमाणित करने में नितान्त असफल रहा है और उसके द्वारा विपक्षी-1 व 2 के विरूद्ध लगाये गये आरोप नितान्त मिथ्या एवं आधारहीन पाये गये हैं। परिवाद खारिज होने योग्य है।
आदेश
परिवाद खारिज किया जाता है। मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में पक्षकार अपना परिवाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
(सत्यवीर सिंह) (पवन कुमार जैन)
आज यह निर्णय एवं आदेश हमारे द्वारा हस्ताक्षरित तथा दिनांकित होकर खुले न्यायालय में उद्घोषित किया गया।
(सत्यवीर सिंह) (पवन कुमार जैन)
दिनांक: 04-08-2018
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