(मौखिक)
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील संख्या-2924/2013
डा0 राजेन्द्र चौधरी, बी.आर.डी. मेडिकल कालेज, गोरखुपर बनाम देवराज सिंह पुत्र स्व0 वीरेन्द्र सिंह तथा तीन अन्य
समक्ष:-
1. माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य।
2. माननीय श्रीमती सुधा उपाध्याय, सदस्य।
दिनांक: 21.10.2024
माननीय श्री सुशील कुमार, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
1. परिवाद संख्या-123/2009, देवराज सिंह बनाम डा0 अतुल कुमार शाही तथा तीन अन्य में विद्वान जिला आयोग, गोरखपुर द्वारा पारित निर्णय/आदेश दिनांक 28.11.2013 के विरूद्ध प्रस्तुत की गई अपील पर अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता श्री एम.एच. खान तथा प्रत्यर्थी सं0-1 के विद्वान अधिवक्ता श्री राज दीपक चौधरी एवं श्री मानवेन्द्र सिंह को सुना गया तथा प्रश्नगत निर्णय/पत्रावली का अवलोकन किया गया। शेष प्रत्यर्थीगण की ओर से कोई उपस्थित नहीं है।
2. विद्वान जिला आयोग ने परिवाद स्वीकार करते हुए विपक्षी सं0-4 के विरूद्ध इलाज के दौरान लापरवाही बरतने के कारण अंकन 5,07,000/-रू0 (पांच लाख सात हजार रूपये) की क्षतिपूर्ति का आदेश पारित किया है।
3. परिवाद के तथ्य संक्षेप में इस प्रकार हैं कि दिनांक 4.12.2007 को परिवादी के पिता को सीने में तकलीफ के कारण डा0 आर.के.सी. मिश्रा के हॉस्पिटल में दिखाया गया, जिनके अनुसार परिवादी के पिता की हालत गंभीर और चिन्ताजनक थी। कुछ दिन आराम के बाद ICCU में रख कर ब्लाकेज खोलने एवं भर्ती कराए जाने की सलाह उनके द्वारा दी गई। डा0 मिश्रा की सलाह पर ही इसी दिन सांय 5.00 बजे डा0 ए.के. शाही को दिखाया गया, जिनके द्वारा एक हफ्ते तक दवा खिलाए जाने के लिए कहा
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गया तथा सूचित किया कि वह एक हफ्ते तक सेमिनार में जा रहे हैं। परिवादी के पिता को घर ले जाकर आराम करने का सुझाव दिया गया साथ ही यह भी कहा गया कि आवश्यकता पड़ने पर मेडिकल कालेज, गोरखपुर में डा0 मुकुल शर्मा से सम्पर्क कर सकते हैं। दवा खिलाने के तुरन्त बाद परिवादी के पिता के सीने में जलन होने लगी, जिसकी सूचना विपक्षी सं0-1 को दी गई, इसके बाद बीआरडी मेडिकल कालेज, गोरखपुर के आपातकाल कक्ष में दिखाया गया, जहां पर परिवादी के पिता को भर्ती कर कार्डियोलाजी विभाग में भेज दिया गया, इसके बाद डा0 मोनिका (विपक्षी संख्या-3) की देखरेख में इलाज होने लगा। विपक्षी सं0-2 से बार-बार निवेदन के बावजूद परिवादी के पिता को ICCU में भर्ती नहीं किया गया, जब परिवादी के पिता बेचैन होकर छटपटाने लगे तब डा0 मोनिका ने ऑक्सीजन का सिलेण्डर लगवाया, परन्तु कोई राहत नहीं मिली, इसके बाद डा0 मोनिका ने ICCU में मरीज को रखने का निर्देश दिया। ICCU में ले जाते समय ऑक्सीजन का पाईप हटा दिया गया, जिसके कारण मरीज, वीरेन्द्र सिंह की सांस टूट गयी और उनकी मृत्यु हो गयी। विपक्षीगण की लापरवाही के कारण मरीज, वीरेन्द्र सिंह की मृत्यु कारित हुई है।
4. उपरोक्त विवरण के पश्चात परिवाद पत्र में यह कथन किया गया कि डा0 मोनिका ने यह बयान दिया कि दिनांक 4.12.2007 को डा0 राजेन्द्र चौधरी (विपक्षी संख्या-4) की इमरजेंसी ड्यूटी थी और मृतक उनके अधीन भर्ती था। डा0 राजेन्द्र चौधरी के निर्देशानुसार ही डा0 मोनिका ने कार्य किया है, जिससे स्थापित है कि विपक्षी संख्या-4 डा0 द्वारा उचित व्यवस्था नहीं की गई और उपेक्षित व्यवहार किया गया, इसलिए मरीज वीरेन्द्र सिंह की मृत्यु के लिए विपक्षी संख्या-4, डा0 राजेन्द्र चौधरी ही उत्तरदायी हैं।
5. विद्वान जिला आयोग ने विपक्षी संख्या-4, डा0 राजेन्द्र चौधरी को
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ही उत्तरदायी मानते हुए उपरोक्त वर्णित निर्णय/आदेश पारित किया है।
6. इस निर्णय/आदेश के विरूद्ध प्रस्तुत की गई अपील तथा मौखिक बहस का सार यह है कि अपीलार्थी डा0 के विरूद्ध परिवाद पत्र में लापरवाही का कोई तथ्य वर्णित नहीं है, केवल यह कथन किया गया है कि परिवादी के पिता को ICCU में रखने का अनुरोध किया गया, जिसे स्वीकार नहीं किया गया। यह कथन स्वंय में लापरवाही नहीं स्थापित करता। चूंकि मरीज की स्थिति स्थिर थी, इसलिए मेडिकल सेक्शन में मरीज को भेजा गया, उस समय तक Cardiac Arrest जाहिर नहीं था, इसलिए कार्डियोलाजी विभाग में मरीज को नहीं भेजा गया और जैसे ही सांस की बाधा प्रारम्भ हुई, उसी समय ऑक्सीजन उपलब्ध कराई गई, परन्तु मरीज के स्वास्थ्य में सुधार न होने पर ICCU में प्रेषित किया गया, जहां मरीज की मृत्यु हो गई, इसलिए अपीलार्थी डा0 के विरूद्ध पारित निर्णय/आदेश अपास्त होने योग्य है। यह भी कथन किया गया कि अपीलार्थी डा0 राजकीय अस्पताल में नियुक्त डा0 हैं, इसलिए उनके विरूद्ध उपभोक्ता परिवाद संधारणीय नहीं है।
7. प्रत्यर्थी संख्या-1 की ओर से लिखित बहस प्रस्तुत की गई तथा मौखिक रूप से उनके विद्वान अधिवक्तागण को सुना गया, जिनका सार यह है कि हॉस्पिटल द्वारा विभिन्न जांच रिपोर्ट तथा अन्य मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए धनराशि प्राप्त की गई है, इसलिए नजीर, Indian Medical Association Vs V.P. Santa 1995 0 Supreme (SC) 1136 में दी गई व्यवस्था के अनुसार जो हॉस्पिटल या डा0 इलाज के दौरान धनराशि प्राप्त करते हैं, वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत आते हैं। इस पीठ द्वारा उपरोक्त नजीर का ध्यानपूर्वक अवलोकन किया गया, जिसमें स्पष्ट रूप से व्यवस्था दी गई है कि प्राइवेट हॉस्पिटल या डा0 जो मरीज से धन वसूलते हैं, उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के
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अंतर्गत आते हैं और लापरवाही के लिए उत्तरदायी होते हैं। इस नजीर में यह भी व्यवस्था दी गई है कि जो हॉस्पिटल या डा0 नि:शुल्क सेवाएं प्रदान करते हैं, वह उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते तथा वह हॉस्पिटल या डा0 भी इस अधिनियम के अंतर्गत नहीं आते, जहां शुल्क देय है और हर व्यक्ति द्वारा यह शुल्क अदा किया जाता है। तीसरी श्रेणी में वह हॉस्पिटल आते हैं, जहां शुल्क अदा किया जाना है, परन्तु कुछ व्यक्ति द्वारा जो शुल्क अदा नहीं कर सकते, उन्हें नि:शुल्क सेवाएं प्रदान की जाती हैं। इस प्रकार जो हॉस्पिटल एवं डा0 नि:शुल्क सेवाएं प्रदान करते हैं, या मरीज को देखने के लिए केवल निर्धारित शुल्क प्राप्त करते हैं, वह इस श्रेणी के अंतर्गत नहीं आते, जो केवल पंजीकरण के उद्देश्य से होता है। प्रत्यर्थी संख्या-1 के विद्वान अधिवक्तागण की ओर से यह भी बहस की गई कि उनके द्वारा भी विभिन्न जांच के लिए शुल्क अदा किए गए हैं, परन्तु इस पीठ के समक्ष शुल्क अदा करने से संबंधित कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई। यहां यह स्पष्ट किया जाता है कि पंजीकरण के उद्देश्य से शुल्क अदा करना धन अदा करने की श्रेणी में नहीं आता। यह नजीर स्वंय प्रत्यर्थी संख्या-1/परिवादी की ओर से दी गई नजीर की व्यवस्था से स्पष्ट है। विद्वान जिला आयोग ने भी अपने निर्णय/आदेश में किसी भी प्रकार की धन अदायगी का कोई निष्कर्ष नहीं दिया है, इसलिए यह तथ्य ग्राह्य नहीं है कि परिवादी द्वारा अपने पिता का सशुल्क इलाज कराया गया। अत: प्रत्यर्थी संख्या-1/परिवादी की ओर से प्रस्तुत की गयी नजीर स्वंय परिवादी/प्रत्यर्थी संख्या-1 के विरूद्ध लागू होती है।
8. वैकल्पिक रूप से इस बिन्दु पर भी विचार करना उचित पाया जाता है कि क्या अपीलार्थी डा0 के स्तर से लापरवाही कारित की गई ?
9. लापरवाही के तथ्य को परिवाद पत्र में उल्लेख करना तथा इस उल्लेख के पश्चात इसे साबित करने का दायित्व परिवादी पर था। परिवाद
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पत्र में परिवादी के पिता का इलाज डा0 मोनिका के द्वारा करना कहा गया, जिनको विद्वान जिला आयोग ने लापरवाही के लिए उत्तरदायी नहीं माना। अपीलार्थी डा0 के द्वारा परिवादी के पिता का कोई इलाज ही नहीं किया गया। आपातकाल ड्यूटी में तैनात होने का तात्पर्य यह नहीं है कि डा0 प्रत्येक मरीज के लिए उत्तरदायी है। यथार्थ में इलाज के दौरान बरती गयी किसी लापरवाही का कथन ही नहीं है। मरीज को ICCU में रखा जाए या ऑक्सीजन दिया जाए और उसके पश्चात ICCU में ले जाया जाए, यह निर्णय अंतिम रूप से डा0 पर निर्भर होता है, केवल मरीज के तीमारदारों के अनुरोध मात्र से यह नहीं माना जा सकता कि मरीज की वास्तव में उस समय ICCU की स्थिति थी। यदि यह स्थिति होती तब डा0 मिश्रा द्वारा मरीज को अपने हॉस्पिटल में ICCU में रखा जाता और मेडिकल कालेज गोरखपुर में भी एम्बुलेंस से शिफ्ट किया जाता, जिसमें ICCU की सुविधा मौजूद होती। डा0 मिश्रा के हॉस्पिटल में भर्ती करने के पश्चात मेडिकल कालेज, गोरखपुर में भर्ती होने तक निरन्तर ICCU की स्थिति में रखना परिवादी की ओर से साबित नहीं किया गया, इसलिए परिवादी का यह कथन कदाचित स्वीकार्य नहीं हो सकता कि अपीलार्थी डा0 द्वारा उनके अनुरोध को स्वीकार नहीं किया गया। मरीज के तीमारदार के अनुरोध को स्वीकार करना डा0 के लिए अपरिहार्य शर्त नहीं है, क्योंकि डा0 अपने कौशल, विवेक एवं बुद्धिंता के आधार पर मरीज के इलाज की प्रक्रिया अपनाने का निर्णय लेते हैं, इसलिए अपीलार्थी डा0 के विरूद्ध लापरवाही का तथ्य भी स्थापित नहीं है। विद्वान जिला आयोग ने यह निष्कर्ष काल्पनिक रूप से दिया है कि डा0 राजेन्द्र चौधरी ने मरीज को स्वंय अटैंड किया होता तो मरीज का जीवन बच सकता था, यह निष्कर्ष काल्पनिक आधार पर है न कि यथार्थ पर, इसलिए विद्वान जिला आयोग द्वारा पारित
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निर्णय/आदेश अपास्त होने और प्रस्तुत अपील स्वीकार होने योग्य है।
आदेश
10. प्रस्तुत अपील स्वीकार की जाती है। विद्वान जिला आयोग द्वारा पारित निर्णय/आदेश अपास्त किया जाता है तथा गैर उपभोक्ता परिवाद खारिज किया जाता है।
प्रस्तुत अपील में अपीलार्थी द्वारा यदि कोई धनराशि जमा की गई हो तो उक्त जमा धनराशि अर्जित ब्याज सहित अपीलार्थी को यथाशीघ्र विधि के अनुसार वापस की जाए।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय/आदेश को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दे।
(सुधा उपाध्याय) (सुशील कुमार)
सदस्य सदस्य
लक्ष्मन, आशु0, कोर्ट-2