राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील सं0-७६९/२००५
(जिला फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0-८०/२००४ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक ०१-०४-२००५ के विरूद्ध)
यूनियन आफ इण्डिया द्वारा सीनियर सुपरिण्टेण्डेण्ट आफ पोस्ट आफिसेज, गोरखपुर।
..................... अपीलार्थी/विपक्षी।
बनाम्
दीप्तभान धर दुबे पुत्र श्री भृगुनाथ धर दुबे निवासी ग्राम सरार, मघगवॉं, पोस्ट बौठा, जिला गोरखपुर।
...................... प्रत्यर्थी/परिवादी।
समक्ष:-
१- मा0 श्री आलोक कुमार बोस, पीठासीन सदस्य।
२- मा0 श्रीमती बाल कुमारी, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित :- डॉ0 उदयवीर सिंह विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित :- कोई नहीं।
दिनांक : २७-०८-२०१५.
मा0 श्री आलोक कुमार बोस, पीठासीन सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
अपील दिनांक २४-०७-२०१५ को सुनवाई हेतु ली गयी। अपीलार्थी डाक विभाग ने प्रस्तुत अपील विद्वान अधीनस्थ जिला फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0-८०/२००४ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक ०१-०४-२००५ से क्षुब्ध होकर योजित की गयी है। अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता डॉ0 उदयवीर सिंह उपस्थित आये। पत्रावली के परिशीलन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि प्रत्यर्थी/परिवादी को पंजीकृत डाक से भेजी गयी नोटिस वापस आने के उपरान्त पुन: इस आयोग के निबन्धक द्वारा प्रत्यर्थी/परिवादी को एकाधिक बार नोटिस भेजी गयी जो तामीलशुदा अथवा अदम तामील वापस नहीं प्राप्त हुई है अत: उसके विरूद्ध तामीला पर्याप्त पायी जाती है। इस प्रकार नोटिस के बाबजूद प्रत्यर्थी/परिवादी न तो स्वयं और न ही उसके विद्वान अधिवक्ता उपस्थित आये। चूँकि यह अपील वर्ष २००५ से निस्तारण हेतु लम्बित चली आ रही है अत: उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम १९८६ (अधिनियम संख्या ६८ सन् १९८६) की धारा-३० की उपधारा (२) के अन्तर्गत निर्मित उत्तर प्रदेश उपभोक्ता संरक्षण नियमावली १९८७ के
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नियम ८ के उप नियम (६) में दिये गये प्राविधान को दृष्टिगत रखते हुए पीठ द्वारा यह समीचीन पाया गया कि अभिलेख पर उपलब्ध प्रलेखीय साक्ष्यों एवं अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता के तर्कों के आधार पर इस अपील का निस्तारण किया जाना न्यायोचित होगा। तद्नुसार अपीलार्थी डाक विभाग के विद्वान अधिवक्ता डॉ0 उदयवीर सिंह को एकल रूप
से सुना गया एवं उनके तर्क के परिप्रेक्ष्य में पत्रावली पर उपलब्ध समस्त अभिलेख/साक्ष्य का गहनता से परिशीलन किया गया।
पत्रावली के परिशीलन से यह तथ्य प्रकाश में आता है कि परिवादी/प्रत्यर्थी दीप्तभान धर दुबे ने वर्ष २००२ में सहायक अभियोजन अधिकारी के पद पर नियुक्ति हेतु परीक्षा में बैठने के लिए २००/- रू० परीक्षा शुल्क के साथ अपना आवेदन पत्र लोक सेवा आयोग को भेजा एवं उसके साथ प्रवेश पत्र भेजने का डाक शुल्क भी शामिल था। परिवादी/प्रत्यर्थी के कथनानुसार उसका प्रवेश पत्र उसके द्वारा दिये गये उसके गॉव के पते पर लोक सेवा आयोग द्वारा भेजा गया परन्तु वह प्रवेश पत्र डाकघर बौठा द्वारा इस आशय की रिपोर्ट लगाकर प्रेषक को वापस कर दिया कि प्राप्तकर्ता अधिवक्ता है और दीवानी कचहरी में बैठते हैं। इस प्रकार प्रवेश पत्र प्राप्त न होने की दशा में उन्हें प्रवेश पत्र प्राप्त करने हेतु इलाहाबाद जाना पड़ा। अपीलार्थी डाक विभाग के इसी कृत्य को सेवा में कमी मानते हुए प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद संख्या-८०/२००४ अधीनस्थ फोरम में योजित किया।
विद्वान फोरम के समक्ष अपीलार्थी/विपक्षी डाक विभाग द्वारा अपने बचाव में यह कहा गया कि परिवादी ने जिन कथनों के आधार पर वर्तमान परिवाद योजित किया है, उन कथनों के आधार पर परिवादी को परिवाद योजित करने का कोई विधिक अधिकार प्राप्त नहीं है क्योंकि परिवादी के कथनानुसार प्रश्नगत डाक लोक सेवा आयोग द्वारा भेजी गयी थी न कि परिवादी द्वारा। इस प्रकार डाक विभाग एवं परिवादी के मध्य कभी भी सेवादाता एवं उपभोक्ता का कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अत: परिवादी को वर्तमान परिवाद योजित करने का कोई विधिक अधिकार प्राप्त नहीं है। यह भी बचाव लिया गया कि परिवाद धारा-६ भारतीय डाक अधिनियम १८९८ में दिये गये प्राविधान से बाधित है।
उभय पक्ष को सुनने के उपरान्त अधीनस्थ फोरम द्वारा निर्णय एवं आदेश
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दिनांक ०१-०४-२००५ के अन्तर्गत परिवाद स्वीकार करते हुए विपक्षी को निर्देशित किया गया कि वह आदेश की तिथि से एक माह के अन्दर परिवादी को इलाहाबाद आने-जाने में किये गये व्यय के लिए २८४/- रू०, मानसिक व शारीरिक कष्ट के लिए २,०००/- रू०, विधि व्यवसाय की आर्थिक क्षतिपूर्ति स्वरूप ३०००/- रू० एवं १०००/- रू० वाद व्यय स्वरूप अदा करे। अधीनस्थ फोरम के इसी आदेश से क्षुब्ध होकर अपीलार्थी डाक विभाग द्वारा प्रस्तुत अपील योजित की गयी है।
अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता का कहना है कि अधीनस्थ फोरम द्वारा पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश तथ्यों एवं विधिक सिद्धान्तों के विपरीत होने के कारण अपास्त होने योग्य है एवं यदि इसे अपास्त नहीं किया जाता है तो अपीलार्थी डाक विभाग को अपूर्णनीय आर्थिक क्षति होगी। अपीलार्थी का कहना है कि भारतीय डाक अधिनियम १८९८ की धारा-१७ के अनुसार किसी भी पंजीकृत डाक के लिफाफे पर लगाये गये डाक टिकट की धनराशि राजस्व के रूप में होती है न कि किसी प्रतिफल (Consideration) के रूप में। अपीलार्थी एवं प्रत्यर्थी/परिवादी के मध्य कभी भी सेवादाता एवं उपभोक्ता का कोई सम्बन्ध नहीं रहा। अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता ने अपने कथन के समर्थन में माननीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा यूनियन आफ इण्डिया व अन्य बनाम एम0एल0 बोरा २०११(२) सीपीसी १७९ एवं पोस्ट मास्टर इम्फाल बनाम जामिनी देवी सगोलबन्द (२०००) एनसीजे १४२ तथा सुपरिण्टेण्डेण्ट आफ पोस्ट आफिसेज व अन्य बनाम उपभोक्ता सुरक्षा परिषद III(1996) CPJ 105 (NC) में दिये गये विधिक सिद्धान्त की ओर पीठ का ध्यान आकृष्ट कराया जिनमें यह विधि व्यवस्था दी गयी है कि इस प्रकार के परिवाद भारतीय डाक अधिनियम १८९८ की धारा-६ से बाधित हैं। प्रस्तुत मामले में विभाग के किसी अधिकारी या कर्मचारी पर कोई व्यक्तिगत द्वेष अथवा भ्रष्टाचार का आरोप नहीं है। अत: इस मामले में धारा-६ भारतीय डाक अधिनियम १८९८ में दिये गये प्राविधान लागू होते हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय डाक अधिनियम १८९८ (अधिनियम सं० ६ सन् १८९८) की धारा-६ में निम्नवत् प्राविधान है कि -
Section 6 of the Indian Post Office Act. 1898 reads as under :
“6. Exemption from liability for loss, misdelivery, delay or damage –
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The Government shall not incur any liability by reason of the loss, misdelivery or delay of, or damage to, any postal article in course of transmission by post, except insofar as such liability may in express terms be undertaken by the Central Government as hereinafter provided and no officer of the Post Office shall incur any liability by reason of any such loss, misdelivery, delay or damage, unless he has caused the same fraudulently or
by his willful act or default.”
इस प्रकरण में यह तथ्य निर्विवाद है कि परिवादी/प्रत्यर्थी को भेजी गयी तथाकथित डाक को प्रेषक को वापस कर दिया गया। इस सम्बन्ध में अपीलार्थी का यह कहना है कि सम्बन्धित पोस्टमेन को प्रत्यर्थी/परिवादी उसके द्वारा दिये गये पते पर जब नहीं मिला तो पोस्टमेन के पास प्रश्नगत डाक को प्रेषक को वापस करने के अलावा अन्य कोई विलक्प नहीं था। अपीलार्थी का यह भी कहना है कि प्रेषक ने अपने पंजीकृत डाक के लिफाफे के अन्दर क्या भेजा था इसका कोई लेखा-जोखा डाक विभाग के पास उपलब्ध नहीं रहता है। इस प्रकार अपीलार्थी डाक विभाग के द्वारा कोई सेवा में कोई कमी नहीं की गयी है।
उपरोक्त प्राविधान तथा मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा टीकाराम बनाम इण्डियन पोस्टल डिपार्टमेण्ट IV (2007) CPJ 123 (NC) के अतिरिक्त माननीय राष्ट्रीय आयोग द्वारा यूनियन आफ इण्डिया व अन्य बनाम एम0एल0 बोरा २०११(२) सीपीसी १७९ एवं (२०००) एनसीजे १४२ पोस्ट मास्टर इम्फाल बनाम जामिनी देवी सगोलबन्द तथा सुपरिण्टेण्डेण्ट आफ पोस्ट आफिसेज व अन्य बनाम उपभोक्ता सुरक्षा परिषद III(1996) CPJ 105 (NC) में दिये गये विधिक सिद्धान्त को दृष्टिगत रखते हुए हमारे विचार से अधीनस्थ फोरम द्वारा पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश विधि अनुरूप नहीं है। विद्वान फोरम द्वारा तथ्यों एवं विधि के विरूद्ध आदेश पारित किया गया है जो किसी भी दृष्टिकोण से पोषणीय नहीं है। वर्णित परिस्थिति में अधीनस्थ फोरम द्वारा पारित प्रश्नगत निर्णय एवं आदेश तथ्य एवं विधि के विपरीत होने के कारण अपास्त होने तथा
अपील स्वीकार होने योग्य है।
आदेश
प्रस्तुत अपील स्वीकार की जाती है। जिला फोरम, गोरखपुर द्वारा परिवाद सं0-
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८०/२००४ में पारित निर्णय एवं आदेश दिनांक ०१-०४-२००५ अपास्त किया जाता है। पक्षकार अपीलीय व्यय-भार अपना-अपना स्वयं वहन करेंगे। उभय पक्ष को इस निर्णय की प्रमाणित प्रतिलिपि नियमानुसार उपलब्ध करायी जाय।
(आलोक कुमार बोस)
पीठासीन सदस्य
(बाल कुमारी)
सदस्य
प्रमोद कुमार
वैय0सहा0ग्रेड-१,
कोर्ट-४.