मैसर्स रूहेल खण्ड फूडस बनाम बोम्बे मरकेनटाइल को-आपरेटिव बैंक
परिवाद संख्या- 41/2013
आदेश प्रार्थना पत्र कागज संख्या-8
20/04/2016 पत्रावली प्रस्तुत हुई। दिनांक 07/4/2016 को हमने दोनों पक्षों
के विद्वान अधिवक्तागण को विपक्षी के प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 और उसके विरूद्ध शपथ पत्र से समर्थित परिवादी पक्ष की आपत्तियां कागज सं0-9/1 लगायत 9/2 पर सुना। आज आदेश हेतु नियत है। प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 और तत्सम्बन्धी आपत्तियों का निस्तारण निम्नानुसार किया जा रहा है।
2- प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 के माध्यम से विपक्षी ने अनुरोध किया है कि इस फोरम द्वारा दिनांक 6/3/2013 को पारित अन्तरिम आदेश को रिकाल किया जाय। अन्तरिम निषेधज्ञा आदेश दिनांक 6/3/2013 द्वारा फोरम ने विपक्षी को निषिध कर दिया था कि वह परिवाद के अन्त में दी गई अनुसूची ‘’ अ ‘’ में उल्लिखित टाईटिल डीडस में वर्णित सम्पत्तियों को विक्रय न करे और उनका कब्जा न ले।
3- मामले के तथ्य सक्षेप में इस प्रकार है कि परिवादी सं0-1 व 2 ने अपने व्यवसाय हेतु विपक्षी बैंक से सम्पत्ति के दस्तावेज साम्य बन्धक रखकर ऋण लिया था। बैंक के अनुसार दिनांक 03/4/2010 को ऋण की देयता 313.46 लाख थी जो वर्ष 2002 में अंकन 3,52,65,853/- रूपया हो गई। वर्ष 2012 में परिवादीगण का यह ऋण खाता एन.पी.ए. हो गया। विपक्षी के अनुरोध पर परिवादीगण ने रामपुर स्थित अपनी सम्पत्तियों का कब्जा बैंक को दे दिया कि बैंक उन सम्पत्तियों से ऋण की राशि वसूल कर ले। परिवादीगण के अनुसार रामपुर स्थित उन सम्पत्तियों की तत्समय कीमत लगभग 8-9 करोड़ रूपये थी जबकि परिवादीगण की ओर बैंक की देनदारी लगभग 3 करोड़ रूपये थी। परिवादीगण के अनुसार रामपुर स्थित सम्पत्तियों से बैंक का सारा ऋण चुकता हो सकता है इसके बावजूद मुरादाबाद स्थित उनकी सम्पत्तियों का कब्जा लेकर विपक्षी बेच देना चाहते हैं। परिवादीगण ने अनुसूची ‘’ अ’’ में वर्णित सम्पत्तियों के टाईटिल डीडस विपक्षी से मांगे, किन्तु टाईटिल डीडस वापिस करने को वह तैयार नहीं है। परिवादीगण ने टाईटिल डीडस की वापिसी हेतु यह परिवाद योजित किया और साथ ही साथ शपथ पत्र से समर्थित अस्थाई निषेधज्ञा प्रार्थना पत्र कागज सं0-3/5 ता 3/6 प्रस्तुत किया। दिनांक 6/3/2013 को परिवादीगण के पक्ष में निम्न एकपक्षीय अन्तरिम निषेधज्ञा आदेश फोरम द्वारा पारित किया गया।
‘’ अत: विपक्षी को आदेशित किया जाता है कि वे परिवाद के निस्तारण तक अनुसूची ‘’ अ ‘’ में वर्णित टाईटिल डीडस में उल्लिखित सम्पत्तियों का विक्रय न करे और कब्जा न लें। ‘’
4- परिवाद के नोटिस प्राप्त होने पर विपक्षी न्यायालय में उपस्थित हुऐ उन्होंने अपना प्रतिवाद पत्र कागज सं0-7/1 ता 7/3 प्रस्तुत किया और साथ ही साथ प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 प्रस्तुत करके एकपक्षीय अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश दिनांक 6/3/2013 को रिकाल करने का भी अनुरोध किया। प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 में कहा गया है कि जिस सम्पत्ति का कब्जा लेने से फोरम द्वारा विपक्षी को निषिध किया गया है उस सम्पत्ति पर कब्जा प्राप्त करने हेतु विपक्षी बैंक ने Securitisation and Recostruction of Financial Assets and Enforcement of Security Interest Act, 2002 (जिसे इस आदेश में आगे सुविधा की दृष्टि से अधिनियम सं0-54 वर्ष 2002 कहा गया है) के अधीन जिलाधिकारी, मुरादाबाद के न्यायालय में वाद योजित कर रखा है, प्रश्नगत एकपक्षीय आदेश बैंक का पक्ष सुने बिना पारित किया गया है जिसके बने रहने से बैंक को असीमित हानि है। यह भी कहा गया है कि अनुसूची ‘’ अ ‘’ में वर्णित सम्पत्ति परिवादीगण द्वारा लिऐ गऐ ऋण के सापेक्ष विपक्षी के पास साम्य बन्धक है और परिवादीगण का ऋण खाता एन.पी.ए. हो चुका है विपक्षी के अनुसार एकपक्षीय अन्तरिम निषेधज्ञा का आदेश दिनांक 6/3/2013 स्थिर रहने योग्य नहीं है इसका रिकाल होना आवश्यक है।
5- परिवादीगण की ओर से शपथ पत्र से समर्थित आपत्तियां कागज सं0-9/1 लगायत 9/2 प्रस्तुत हुई। आपत्तियों में परिवाद में वर्णित तथ्यों को दोहराते हुऐ कहा गया कि यदि अन्तरिम निषेधज्ञा आदेश वापिस ले लिया गया तो परिवाद योजित करने का औचित्य ही समाप्त हो जाऐगा और परिवादीगण को अपूर्णीय क्षति होगी। परिवादीगण द्वारा विपक्षी का प्रार्थना पत्र अस्वीकृत किऐ जाने की प्रार्थना की गई।
6- हमने दोनों पक्षों के विद्वान अधिवक्तागण के तर्कों को सुना और पत्रावली का अवलोकन किया।
7- विपक्षी बैंक के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि अधिनियमसं0-54 वर्ष 2002 के तहत जिलाधिकारी के न्यायालय में सम्पत्ति का कब्जा लेने हेतु चँकि मुकदमा विचाराधीन है अत: फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि आक्षेपित एकपक्षीय अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश दिनांक 6/3/2013 को पारित करने का फोरम को क्षेत्राधिकार नहीं था। विपक्षी बैंक की और से यह भी कहा गया कि परिवाद कथनों तथा पत्रावली में अवस्थित प्रपत्रों के अवलोकन से प्रकट है परिवादीगण ने ऋण व्यवसायिक प्रयोजनार्थ लिया था ऐसी दशा में उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2 (1) (डी) की व्यवस्थानुसार परिवादीगण ‘’ उपभोक्ता ‘’ नहीं है और फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है। प्रत्युत्तर में परिवादीगण के विद्वान अधिवक्ता ने कहा कि फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार है, उन्होंने यह भी कहा कि विपक्षी का प्रतिवाद पत्र पत्रावली पर आ चुका है ऐसी दशा में उचित यह होगा कि परिवाद का गुणावगुण के आधार पर अन्तिम रूप से निस्तारण किया जाये। उन्होंने यह भी कहा कि यदि एकपक्षीय अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश रिकाल कर लिया तो परिवाद योजित करने का उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा।
8- विपक्षी के प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 के विरूद्ध दाखिल आपत्तियों में परिवादीगण ने इस तथ्य से इन्कार नहीं किया है कि जिन सम्पत्तियों के सन्दर्भ में फोरम द्वारा अस्थाई अन्तरिम निषेधज्ञा आदेश दिनांक 6/3/2013 पारित किया गया है उन सम्पत्तियों पर कब्जा लेने हेतु विपक्षी बैंक ने जिलाधिकारी, मुरादाबाद के समक्ष अधिनियम संख्या-54 वर्ष 2002 के तहत परिवादीगण के विरूद्ध वाद योजित कर रखा है। IV (2015) सी.पी.जे. पृष्ठ-109, शशिकला माण्डेकर एल0आई0सी0 हाउसिंग फाईनेन्स लिमिटेड व एक अन्य के मामले में मा0 मध्य प्रदेश राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, भोपाल द्वारा निम्न व्यवस्था दी गई है:-
“ Non payment of sanctioned loan-Pendency of proceedings against complainant under provisions of SARFAESI Act- In View of provisions of Section 14(3) and 34 of SARFAESI Act, Forum had no jurisciction to proceed with complaint filed against Bank- Complaint not maintainable.’’
9- उपभोक्ता संरक्षण विनियम, 2005 के नियम-17 में यह व्यवस्था है कि यदि उपभोक्ता फोरम द्वारा पारित एकपक्षीय अन्तरिम आदेश के विरूद्ध दाखिल आपत्तियोंको फोरम द्वारा सुनकर उनका निपटारा नहीं किया गया है तो एकपक्षीय अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश 45 दिन बाद रद्द समझा जाऐगा। प्रश्नगत एकपक्षीय अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश दिनांक 6/3/2013 को पारित हुआ था। विपक्षी बैंक ने इस आदेश के विरूद्ध अपनी आपत्तियां दिनांक 8/4/2013 को प्रस्तुत कर दीं। आपत्तियां दाखिल हो जाने बाद आपत्तियों की सुनवाई नहीं हो सकी जिसका कारण अन्य के अतिरिक्त परिवादी पक्ष द्वारा बार-बार स्थगन लेना रहा। स्वीकृत रूप से 45 दिन की अवधि व्यतीत हो चुकी है अत: उपभोक्ता संरक्षण विनियम, 2005 के नियम-17 की व्यवस्थानुसार एकपक्षीय अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश दिनांक6/3/2013 स्वत: रद्द हो गया है।
10- परिवादीगण की ओर से परिवाद की पोषणीयता के सन्दर्भ में यधपि संशोधन द्वारा परिवाद पत्र में एक नया पैरा सं0-11-ए जोड़ा गया है, किन्तु उस पैरा में वर्णित विधिक स्थिति के सम्बन्ध में अवसर दिऐ जाने के बावजूद परिवादीगण के अधिवक्ता ने अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं किया।
11- इस संशोधन द्वारा यह अभिकथित किया गया है कि Repealing and Amending (Second) Act, 2015 (अधिनियम संख्या 19 of 2015) द्वारा दिनांक 14/5/2015 से कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन (अमैन्डमैन्ट) एक्ट, 2002 रिपील कर दिया गया है अंत: उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 2 (1) (डी) के सन्दर्भ में विपक्षी द्वारा परिवाद की पोषणीयता के सम्बन्ध में उठाई गई आपत्ति निरर्थक हो गई है।
12- प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 के निस्तारण हेतु परिवाद के पैरा संख्या 11-A में उठाई गई आपत्ति के सम्बन्ध में विधिक स्थिति स्पष्ट किया जाना आवश्यक है।
13- The Repealing and Amending Act द्वारा की गई रिपील का क्या प्रभाव होगा यह प्रश्न सम्भवत: पहली बार मा0 कलकत्ता उच्च न्यायालय के समक्ष खुदावख्श बनाम मैनेजर, केलेडोनियन प्रेस के मामले में उठा था। मा0 कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा खुदावख्श बनाम मैनेजर, केलेडोनियन प्रेस, ए.आई.आर. 1954 कलकत्ता पृष्ठ-484 के उक्त मामले में निम्न व्यवस्था दी :-
“ Such Acts have no legislative effect, but are designed for editorial revision, being intended only to excise dead matter from the statute book and to reduce its volume. Mostly, they expurgate amending Acts, because having imparted the amendments to the main Acts, those Acts have served their purpose and have no further reason for their existence. At times, inconsistencies are also removed by repealing and amending Acts. The only object of such Acts which in England, are called Statute Law Revision Acts, is legislative springcleaning and they are not intended to make any change in the law. Even so, they are guarded by saving clauses drawn with elaborate care, of which Section 3 of the Repealing and Amending Act of 1950 is itself an apt illustration. Besides providing for other savings, that section says that the Act shall not affect "any principle or rule of law * * notwithstanding that the same may have been * * * derived by, in, or from any enactment hereby repealed."
14- जेठानन्द वेटब बनाम स्टेट आफ देहली, ए.आई.आर.1960 सुप्रीम कोर्ट पृष्ठ-89 के मामले में मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने निम्न व्यवस्था दी :-
“ The general object of a repealing and amending Act is stated in Halsbury's Laws of England, 2nd Edition, Vol. 31, at p. 563, thus: "A statute Law Revision Act does not alter the law, but simply strikes out certain enactments which have become unnecessary. It invariably contains elaborate provisos." In Khuda Bux v. Manager, Caledonian Press Chakravartti, C.J., neatly brings out the purpose and scope of such Acts.”
15- के0के0 वासुदेव कुरू बनाम यूनियन आफ इण्डिया आदि, ए.आई.आर. 2003 बोम्बे पृष्ठ-64 के मामले में मा0 बम्वई उच्च न्यायालय द्वारा निम्न अभिमत दिया गया है :-
“ In our opinion, the legal position is well settled. Since the Amending Act has already been enacted and implemented by making necessary amendment and insertion in the original Act, the Amending Act has lost its utility as its purpose has already been served. Hence, the Amending Act was repealed 'as a whole'. We find no infirmity or illegality in such action. We see no reason to grant any relief to the petitioner. The petition deserves to be dismissed and is accordingly dismissed. No costs.”
16- मा0 कलकत्ता उच्च न्यायालय, मा0 सर्वोच्च न्यायालय तथा मा0 मुम्बई उच्च न्यायालय की उपरोक्त विधि व्यवस्थाओं के दृष्टिगत कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन (अमैन्डमैन्ट) एक्ट, 2002 रिपील हो जाने के बावजूद विधिक स्थिति अब भी यही है कि परिवादीगण ने विपक्षी बैंक से ऋण चॅूकि व्यवसायिक प्रयोजनार्थ लिया था अत: कन्ज्यूमर प्रोटेक्शन एक्ट 1986 की धारा 2 (1) (डी) की व्यवस्थानुसार वे ‘’ उपभोक्ता’’ नहीं हैं और इस फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है।
17- पत्रावली में अवस्थित नोटिस कागज संख्या 3/10 और नोटिस कागज संख्या 3/12 के अवलोकन से प्रकट है कि परिवादी संख्या-1 व 2 को विपक्षी बैंक ने कुल 4,30,00,000/- रूपया का ऋण स्वीकृत किया था। परिवाद के पैरा संख्या 6 में परिवादी ने 313.46 लाख रूपये की देयता अपनी ओर स्वीकार की है। परिवाद के अवलोकन से स्पष्ट है कि परिवादीगण और विपक्षी के मध्य विवाद ऋण की अदायगी से सम्बन्धित है। इस फोरम का आर्थिक क्षेत्राधिकार 20 लाख रूपया तक है। प्रथम दृष्टया फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है।
18- परिवादीगण को विपक्षी बैंक से ऋण लेना स्वीकार है। उन्हें यह भी स्वीकार है कि ऋण की पूरी अदायगी वे बैंक को अभी तक नहीं कर पाऐ हैं। उनका खाता एन.पी.ए. हो चुका है। जिस सम्पत्ति की टाईटिल डीडस परिवादीगण विपक्षी से वापिस चाहते हैं वे ऋण के सापेक्ष बैंक के पास साम्य बन्धक हैं जब तक बैंक के ऋण की पूरी अदायगी नहीं हो जाती तब तक बैंक को उक्त टाईटिल डीडस बतौर साम्य बन्धक अपने पास रखने का अधिकार है। परिवादीगण का प्रथम दृष्टया केस नहीं बनता। सुविधा संतुलन भी परिवादीगण के पक्ष में नहीं है। यदि अन्तरिम निषे|ज्ञा आदेश दिनांकित 06/3/2013 मन्सूख कर दिया जाता है तो परिवादीगण को अपूर्णीय क्षति होने की सम्भावना नहीं है।
19- उपरोक्त विवेचना के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि आक्षेपित आदेश दिनांक 6/3/2013 स्थिर रहने योग्य नहीं है। अन्यथा भी इस फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है और यह परिवाद फोरम में पोषणीय भी नहीं है। विपक्षी का प्रार्थना पत्र कागज संख्या- 8 स्वीकार होने योग्य है और परिवादीगण की आपत्तियां तदानुसार खारिज होने योग्य हैं।
20- प्रार्थना पत्र कागज सं0-8 स्वीकार किया जाता है। इसके विरूद्ध दाखिल परिवादीगण की आपत्तियां खारिज की जाती हैं। चॅूंकि फोरम में यह परिवाद पोषणीय नहीं है और इस फोरम को परिवाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है अत: परिवाद खारिज किया जाता है।
(श्रीमती मंजू श्रीवास्तव) (सुश्री अजरा खान) (पवन कुमार जैन)
सदस्य सदस्य अध्यक्ष
- 0उ0फो0-।। मुरादाबाद जि0उ0फो0-।। मुरादाबाद जि0उ0फो0-।। मुरादाबाद
20.04.2016 20.04.2016 20.04.2016