राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ।
सुरक्षित
अपील संख्या-1164/2009
(जिला उपभोक्ता फोरम, झांसी द्वारा परिवाद संख्या-25/2008 में पारित निर्णय दिनांक 10.06.2009 के विरूद्ध)
1.देवी श्यामा चैरिटेबिल ट्रस्ट, आफिस 4/21, एम.एल.बी. मेडिकल
कालेज कैम्पस झांसी-284128
2.डा0. दिनेश प्रताप, देवी श्यामा चैरिटेबिल ट्रस्ट, हेड आफिस-4/21
एम.एल.बी. मेडिकल कालेज कैम्पस, झांसी। .......अपीलार्थीगण@विपक्षीगण
बनाम
बंटा अहिरवार पुत्र श्री प्यारे लाल निवासी-मुहल्ला फतेहपुर बजरिया
महोबा, जनपद महोबा, उ0प्र0। .......प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
1. मा0 श्री राजेन्द्र सिंह, सदस्य।
2. मा0 श्री सुशील कुमार, सदस्य।
अपीलार्थी सं0 1 की ओर से उपस्थित : श्री वी0पी0 शर्मा, विद्वान
अधिवक्ता।
अपीलार्थी सं0 2 की ओर से उपस्थित : श्री बृजेन्द्र चौधरी के सहयोगी श्री
नीरज सिंह, विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : श्री आर0के0 मिश्रा, विद्वान
अधिवक्ता।
दिनांक 27.07.2021
मा0 श्री सुशील कुमार, सदस्य द्वारा उदघोषित
निर्णय
1. परिवाद संख्या 25/08 बंटा अहिरवार बनाम देवी श्यामा चैरिटेबिल व एक अन्य में पारित निर्णय/आदेश दि. 10.06.2009 के विरूद्ध यह अपील प्रस्तुत की गई है। इस निर्णय व आदेश द्वारा परिवाद स्वीकार करते हुए विपक्षीगण को निर्देशित किया गया कि परिवादी को अंकन रू. 50000/- बतौर क्षतिपूर्ति अदा करे तथा एक माह की अवधि के अंदर पुन: आपरेशन कर पीडि़त परिवादी का पेट सही किया जाए।
2. परिवाद के तथ्य सक्षेप में इस प्रकार हैं कि परिवादी दि. 04.09.03 को पेट के दर्द से पीडि़त हो गया। विपक्षी संख्या 1 के पास इलाज के लिए
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गया जहां पर रू. 4500/- जमा कराए गए। मेडिकल परीक्षण कराया गया। विभिन्न टेस्ट कराए गए, उसमें रू. 2000/- का खर्च हआ। मेडिकल परीक्षण के बाद डाक्टर द्वारा बताया गया मरीज की आंत उलझ गई है, जिसके लिए आपरेशन करना आवश्यक है। परिवादी, परिवार के लोगों ने अंकन रू. 12000/- जमा कराए। परिवादी का आपरेशन किया गया। परिवादी 25 दिन अस्पताल में भर्ती रहा और प्रतिदिन रू. 2500/- खर्च आता रहा, जबकि केवल रू. 12000/- का खर्च बताया गया था। आपरेशन के बाद परिवादी का पेट गुब्बारे की भांति फूल जाता था। परिवादी डाक्टर द्वारा बताए गए कसरत तथा दवाओं का नियमित सेवन करता रहा, परन्तु पेट ठीक नहीं हुआ। परिवादी पुन: 6 माह पश्चात डाक्टर के पास गया और अपना परीक्षण कराया। डाक्टर द्वारा 6 माह तक कसरत करने के लिए कहा गया। दि. 08.10.2007 को परिवादी के पेट में दर्द उत्पन्न हुआ और पेट गुब्बारे की तरह फूल गया तब विपक्षी संख्या 1 ने कहा कि पेट का पुन: आपरेशन होगा, जिसमें रू. 50000/- का खर्च आएगा। परिवादी ने अपने पेट को अन्य डाक्टरों को दिखाया तब सभी का यह कहना था कि विपक्षी संख्या 1 द्वारा आंतों का सही आपरेशन नहीं किया गया, इसलिए टांके नहीं लगाए गए। इस प्रकार विपक्षीगण द्वारा सेवा में त्रुटि की गई, इसलिए रू. 50000/- की क्षतिपूर्ति प्राप्त करने के लिए दावा प्रस्तुत किया गया।
3. विपक्षी संख्या 2 द्वारा प्रस्तुत किए गए लिखित कथन में उल्लेख है कि नि:शुल्क चिकित्सा परामर्श दिया गया था। रू. 45000/- बतौर फीस जमा नहीं कराए गए। परिवादी की आंतों का आपरेशन करना आवश्यक था, अंतत: उसकी मृत्यु हो सकती थी। दि. 18.09.03. का सही आपरेशन करने के पश्चात अस्पताल से छुट्टी दी गई थी। परिवादी लगभग आठ-नौ
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माह तक पुन: दिखाने क लिए आया। इस प्रकार आपरेशन में कोई कमी नहीं थी। ऐसा प्रतीत होता है कि उसने डाक्टर की सलाह पर अमल नहीं किया, इसलिए हार्निया बन चुका था। यह भी उल्लेख है कि विपक्षी संख्या 2 मेडिकल कालेज में सर्जरी के प्रोफेसर हैं और अपने कार्य में दक्ष हैं। हार्निया विकसित करने के लिए स्वयं परिवादी जिम्मेदार है, विपक्षी द्वारा किए गए आपरेशन में कोई त्रुटि नहीं थी।
4. दोनों पक्षकारों द्वारा अपने तर्क के समर्थन में प्रस्तुत की गई साक्ष्य पर विचार करने के पश्चात जिला उपभोक्ता मंच द्वारा यह निष्कर्ष दिया गया कि क्या आपरेशन के पश्चात भी परिवादी की बीमारी स्थिर रही थी और उसका पेट फूलने लगता था, इसलिए परिवाद स्वीकार करते हुए क्षतिपूर्ति का आदेश पारित किया गया है।
5. अपील इन आधारों पर प्रस्तुत की गई है कि जिला उपभोक्ता मंच द्वारा पारित किया गया निर्णय मात्र कल्पना एवं संभावनाओं पर आधारित है। परिवादी का आपरेशन दि. 05.09.03 को किया गया था, जबकि परिवाद वर्ष 2008 में प्रस्तुत किया गया है और देरी माफ करने का भी कोई अनुरोध नहीं किया गया है, इसलिए परिवाद संधारणीय नही है, बगैर किसी मेडिकल साक्ष्य के निर्णय पारित किया गया है। नि:शुल्क सेवाएं प्रदान की गई थी, केवल 50/- रूपये बिजली शुल्क के वसूल किए गए थे। मेडिकल सलाह न मानने के कारण परेशानियां विकसित हुई हैं। आपरेशन करने में किसी प्रकार की लापरवाही नहीं बरती गई। अपीलार्थी द्वारा प्रस्तुत की गई मेडिकल साक्ष्य पर विचार नहीं किया गया, कोई विशेषज्ञ साक्ष्य भी प्रस्तुत नहीं की गई।
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6. दोनों पक्षकारों के विद्वान अधिवक्ताओं को सुना। प्रश्नगत निर्णय व आदेश का अवलोकन किया गया।
7. परिवाद पत्र के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि परिवादी द्वारा दि. 04.09.03 को अपना मेडिकल परीक्षण कराया गया। परिवाद पत्र में आपरेशन की सही तिथि वर्णित नहीं है, अत: आभास मिलता है कि इस तिथि को आपरेशन किया गया, जबकि यह परिवाद वर्ष 2008 में प्रस्तुत किया गया है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 की धारा 24(क) जो वर्ष 1993 से अधिनियम में मौजूद है, के अनुसार वाद कारण उत्पन्न होने की तिथि से 2 वर्ष के भीतर परिवाद दाखिल किया जाएगा और यदि इस अवधि के पश्चात परिवाद दाखिल किया जाता है तब परिवाद ग्रहण नहीं किया जाएगा। यद्यपि पर्याप्त कारण दर्शित करने पर देरी माफ की जा सकती है। परिवाद पत्र में वाद कारण 8 अक्टूबर 2007 को उत्पन्न होना बताया गया है, जब परिवादी का पेट गुब्बारे की तरह फूल गया। जो व्यक्ति वर्ष 2003 में गंभीर रूप से बीमार हो उसका आपरेशन किया गया हो तब वर्ष 2007 में उस आपरेशन के कारण पेट फूलने को वाद कारण उत्पन्न हुआ नहीं माना जा सकता। चूंकि आपरेशन के कारण बीमारी का बढ़ना बताया गया है, इसलिए आपरेशन के पश्चात ही वाद कारण उत्पन्न हो सकता है न कि 4 साल से अधिक की अवधि के पश्चात वर्ष 2007 में, इसलिए वाद कारण उत्पन्न होने का एक भ्रामक एवं ग्रहण न किए जाने योग्य आधार वर्णित किया गया है। देरी माफ कराने का कोई आवेदन प्रस्तुत नहीं किया गया है न ही देरी माफ करने के लिए कोई निष्कर्ष दिया गया है, अत: अधिनियम की धारा 24(क) की व्यवस्था के अनुसार वर्ष 2003 में किए गए आपरेशन को वर्ष 2007 में वाद कारण दर्शित करने के आधार पर वाद कारण उत्पन्न
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हाने का Colourable(छदम) सहारा लिया गया, जो विधि के अंतर्गत अनुज्ञेय नहीं है, अत: स्पष्ट है कि समयावधि के पश्चात प्रस्तुत किए गए परिवाद को अधिनियम की धारा 24(क) की व्यवस्था के विपरीत जाकर ग्रहण किया गया है, अत: इस आधार पर भी परिवाद खारिज होने योग्य है, परन्तु चूंकि किसी उच्च न्यायिक संस्था द्वारा यदि यह माना जा सकता है कि परिवाद समयावधि के अंदर प्रस्तुत किया गया है, इसलिए गुणदोष के बिन्दु पर भी किया जाता है।
8. परिवाद पत्र में डाक्टर की लापरवाही का कोई तरीका, कार्य चालन नहीं सुझाया गया है, केवल यह उल्लेख किया गया है कि परिवादी ने डाक्टर की सलाह के अनुसार दवाओं का नियमित सेवन किया और कसरत किया, परन्तु पेट फूलना बंद नहीं हुआ और 8 अक्टूबर 2007 को पेट में दर्द उत्पन्न हुआ। किसी भी बीमारी का शत-प्रतिशत इलाज करने की कोई भी डाक्टर गारंटी नहीं दे सकता। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत केवल इस बिन्दु पर विचार स्पष्ट है कि क्या डाक्टर द्वारा इलाज के दौरान कोई लापरवाही बरती गई। इस अवधि के अंतर्गत इस बिन्दु पर विचार नहीं किया जाना है कि क्या इलाज के पश्चात मरीज पूर्णत: ठीक हुआ ? पूर्णत: ठीक होने की गारंटी केवल ईश्वर ले सकता है, यदि ऐसा संभव हो, इंसान पूर्णत: ठीक करने की कोई गारंटी नहीं ले सकता, इसलिए पूर्णत: ठीक न होने के आधार पर प्रस्तुत किया गया परिवाद उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत संधारणीय नहीं है। लापरवाही का कोई भी तथ्य परिवाद पत्र में अंकित नहीं किया गया है, अत: स्पष्ट साक्ष्य से भी साबित नहीं किया गया है।
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9. परिवाद पत्र में एक अन्य उल्लेख यह कहा गया है कि परिवादी ने अन्य डाक्टरों को दिखाया, जिनके द्वारा बताया गया कि आपरेशन द्वारा सही टांके नहीं लगाए गए, लेकिन इन डाक्टर साहब का नाम अंकित नहीं किया गया है, जिन्हें दिखाया गया और जिन्होंने अपनी राय प्रकट की है, इसलिए यह उल्लेख भी भ्रामक है कि किसी अन्य डाक्टर द्वारा दिखाया और उनके द्वारा बताया गया कि सही टांके नहीं लगाए गए।
10. अपीलार्थी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा यह बहस की गई है कि प्रस्तुत केस में लापरवाही के तथ्यों को साबित करने के लिए मेडिकल बोर्ड की रिपोर्ट प्राप्त करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। परिवादी/प्रत्यर्थी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि लापरवाही के प्रत्यक्ष साक्ष्य मौजूद होने की स्थ्िाति में मेडिकल बोर्ड से राय प्राप्त करना आवश्यक नहीं है। परिवादी/प्रत्यर्थी के विद्वान अधिवक्ता का यह तर्क विधिसम्मत है कि यदि लापरवाही की प्रत्यक्ष साक्ष्य पत्रावली पर मौजूद है तब मेडिकल बोर्ड से राय प्राप्त करना आवश्यक नहीं है, परन्तु जैसाकि ऊपर उल्लेख किया गया है कि डाक्टर की लापरवाही का उल्लेख तक नहीं किया गया है, साबित होने का तो कोई अवसर ही नहीं है। प्रत्यर्थी की ओर से नजीर अनिल कुमार मित्तल बनाम नीलम गुप्ता 4(2015) सीपीजे, 597 एन.सी. प्रस्तुत की गई है। इस केस में श्रीमती नीलम गुप्ता ने दि. 04.12.1988 को एक पुरूष बालक को जन्म दिया। डाक्टर द्वारा Blood Transfusion की सलाह दी गई और एक बोतल B+Ve खून चढ़ाया गया, इसके बाद पीडि़ता चार बार गर्भवती हुई, परन्तु चारो बार Fetal loss हुआ। जब मरीज ने अपने खून का टेस्ट कराया तब पाया उसके खून की श्रेणी ओ.पी.-1 है, इसलिए डाक्टर द्वारा B+Ve खून चढ़ाने को लापरवाही माना गया है। प्रस्तुत केस में इस
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प्रकृति की कोई लापरवाही दर्शित नहीं की गई, अत: उपरोक्त नजीर का कोई लाभ परिवादी/प्रत्यर्थी को प्रदान नहीं किया जा सकता है।
11. उपरोक्त विवेचना का निष्कर्ष यह है कि डाक्टर की लापरवाही का तथ्य साबित नहीं है। जिला उपभोक्ता मंच ने मात्र कल्पना एवं संभावनाओं पर अपना निर्णय पारित किाय है। डाक्टर द्वारा आपरेशन के समय कारित लापरवाही पर कोई निष्कर्ष नहीं दिया। वाद कारण उत्पन्न होते समय यानी वर्ष 2007 में मरीज के पेट फूलने को यह नहीं कहा जा सकता कि डाक्टर द्वारा आपरेशन में लापरवाही बरती गई हो। आपरेशन के समय लापरवाही का तथ्य स्पष्ट रूप से साबित करना चाहिए था, जो नहीं किया गया है। वर्ष 2007 में पेट फूलने की बीमारी के अनेक कारण हो सकते हैं न कि डाक्टर द्वारा किया गया आपरेशन। उपरोक्त विवेचन का निष्कर्ष यह है कि अपील स्वीकार होने योग्य है।
आदेश
12. अपील स्वीकार की जाती है। जिला उपभोक्ता मंच द्वारा पारित निर्णय एवं आदेश अपास्त किया जाता है। परिवाद खारिज किया जाता है।
उभय पक्ष अपना-अपना अपीलीय व्यय स्वयं वहन करेंगे।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस आदेश को आयोग की वेबसाइड पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।
(राजेन्द्र सिंह) (सुशील कुमार) सदस्य सदस्य
राकेश, पी0ए0-2,
कोर्ट-3