जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, प्रथम, लखनऊ।
परिवाद संख्या-30/2018
उपस्थित:-श्री अरविन्द कुमार, अध्यक्ष।
श्री अशोक कुमार सिंह, सदस्य।
परिवाद प्रस्तुत करने की तारीख:-11.01.2018
परिवाद के निर्णय की तारीख:-22.03.2021
Rameshwar Prasad Sharma, aged about 62 years, son of Ram Narayan, Sharma, resident of 18/334, Indira Nagar, Lucknow.
....................Complainant.
Versus
Sampatti Prabandhak, Uttar Pradesh Awas Evam Vikas Parishad, Sampatti Prabandh Karyalaya, Indira Nagar, Near Bhootnath Market, Lucknow-226016. ...................... Opposite Party.
आदेश द्वारा-श्री अशोक कुमार सिंह, सदस्य।
निर्णय
परिवादी ने प्रस्तुत परिवाद विपक्षी से उसके घर को फ्रीहोल्ड विलेख प्राप्त करने, मानसिक उत्पीड़न के लिये 5,00,000.00 रूपये प्राप्त करने की प्रार्थना के साथ प्रस्तुत किया है।
संक्षेप में परिवाद के कथन इस प्रकार हैं कि उसने एक घर उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद लखनऊ से पट्टा विलेख के माध्यम से दिनॉंक 02.01.1989 को प्राप्त किया था। वर्ष 2002 में परिवादी द्वारा उक्त घर को फ्रीहोल्ड करने के लिये प्रार्थना पत्र दिया गया, जिसके उपरान्त विपक्षी द्वारा समस्त भुगतान रसीद की मॉंग की गयी जो उनके द्वारा विपक्षी को उपलब्ध करा दी गयी। परन्तु विपक्षी द्वारा फ्रीहोल्ड विलेख तैयार करने के विपरीत 21313.00 रूपये की मॉंग की गयी जो परिवादी द्वारा दिनॉंक 03.06.2004 को कर दी गयी। उक्त भुगतान के बाद भी विपक्षी द्वारा परिवादी के घर का फ्रीहोल्ड विलेख नहीं किया गया और जानबूझकर विलम्ब किया गया। जब परिवादी द्वारा मामले को आगे बढ़ाया गया तो विपक्षी द्वारा 21313.00 रूपये के साथ दण्ड ब्याज 93677.15.00 रूपये की मॉंग की गयी जिसके संबंध में परिवादी का कथन है कि यह एक मनमानी मॉंग थी। क्योंकि उनके द्वारा पूर्व में ही 21350.00 रूपये का भुगतान किया जा चुका था। परिवादी का कथन है कि विपक्षी द्वारा उन्हें जानबूझकर परेशान किया जा रहा है तथा उन्हें मानसिक कष्ट पहुँचाया जा रहा है, जिसके उपरान्त परिवादी द्वारा विपक्षी को एक विधिक नोटिस दिनॉंक 30.08.2017 को भेजा गया जिस पर विपक्षी द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी। परिवादी द्वारा पुन: दिनॉंक 01.11.2017 को विपक्षी को एक नोटिस उ0प्र0 आवास एवं विकास परिषद अधिनियम 1965 के सेक्शन 88 के अन्तर्गत दिया गया और अनुरोध किया गया कि उनके घर का फ्रीहोल्ड विलेख निष्पादित किया जाए। परन्तु विपक्षी द्वारा उस भी कोई कार्यवाही न कर अत्यधिक सेवा में कमी की गयी है। अत: परिवादी को मानसिक कष्ट एवं आर्थिक नुकसान पहुँचाया गया है।
विपक्षी ने अपना उत्तर पत्र प्रस्तुत करते हुए कथन किया कि परिषद का उद्देश्य पंजीकृत व्यक्तियों को भवन व भूखण्ड उपलब्ध कराना है किन्तु इसका यह आशय कदापि नहीं है कि मात्र परिषद की किसी योजना में पंजीकरण करा लेने से कोई व्यक्ति भवन व भूखण्ड प्राप्त करने का हकदार हो जाता है। परिषद के नियमों के अन्तर्गत किसी भी व्यक्ति को भवन व भूखण्ड देने के लिये परिषद बाध्य नहीं है और न ही कोई व्यक्ति पंजीकरण करा लेने से अधिनियम के अन्तर्गत उपभोक्ता हो जाता है। भूखण्ड और उस पर बनाया गया भवन पूर्ण रूप से अचल सम्पत्ति है और ऐसे मामले की सुनवाई सिविल न्यायालय में ही हो सकती है क्योंकि भूमि व भवन के संदर्भ में जो अनुबन्ध होता है वह मामला दीवानी न्यायालय में ही चलाया जा सकता है। माननीय फोरम को उपरोक्त स्थिति में परिवाद सुनने का क्षेत्राधिकार नहीं है। परिवादी ने 2002 में फ्रीहोल्ड डीड करने हेतु आवेदन किया है जिस पर विपक्षी ने बकाया धनराशि के भुगतान हेतु पत्रांक 3006 दिनॉंकित-08.05.2002, पत्रांक 11937 दिनॉंकित-21.11.2003, पत्रांक 913 दिनॉंकित-27.05.2004, एवं पत्रांक 1208 दिनॉंकित 20.05.2017 द्वारा अवशेष धनराशि का भुगतान करने हेतु सूचित किया गया जिसे परिवादी ने आज तक जमा नहीं किया। वर्तमान में भवन के विरूद्ध दिनॉंक-28.02.2018 तक 1,17,861.00 रूपया अवशेष है। विपक्षी द्वारा कोई भी विलम्ब जानबूझकर नहीं किया गया है बल्कि परिवादी द्वारा बकाया भुगतान समय से न करने के कारण विलम्ब हुआ है, जिसके लिये परिवादी स्वयं जिम्मेदार है। परिवादी द्वारा भेजी गयी विधिक नोटिस प्राप्त हुई है। परिवादी बकाया धनराशि जमा कर रजिस्ट्री करा सकता है। विपक्षी द्वारा किसी भी प्रकार की सेवाओं में कमी नहीं की गयी है। माननीय उच्च न्यायालय में जो रिट परिवादी व अन्य के द्वारा प्रस्तुत की गयी थी रिट के निरस्त होने के दौरान उपरोक्त बाकी सभी याचिकाकर्ता ने उस समय बकाया धनराशि जमाकर अपने भूखण्डों/भवनों का निबंधन करा लिया सिवाय परिवादी के, जिसके लिये परिवादी स्वयं जिम्मेदार है।
पत्रावली के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि परिवादी द्वारा एक घर उत्तर प्रदेश आवास एवं विकास परिषद लखनऊ से पट्टा विलेख के माध्यम से वर्ष 1989 में प्राप्त किया था और वर्ष 2002 में उसे फ्रीहोल्ड करने का प्रार्थना पत्र दिया जाने पर जो भुगतान की मॉंग की गयी उसका भुगतान 2004 में कर दिया गया। परन्तु फ्रीहोल्ड विलेख नहीं किया गया और जब मामले को आगे बढ़ाया गया तो दण्ड ब्याज सहित 93677.00 रूपये की मॉंग की गयी जो अनुचित बताते हुए परिवादी द्वारा भुगतान नहीं किया गया। परिवादी द्वारा विधिक नोटिस एवं विकास परिषद अधिनियम के सेक्शन-88 के अन्तर्गत नोटिस 2017 में दी गयी, परन्तु इसके बावजूद भी फ्रीहोल्ड विलेख नहीं किया गया। विपक्षी का तर्क है कि विलम्ब परिवादी के स्तर से किया गया और सूचित किये जाने के बावजूद भी परिवादी द्वारा दण्ड ब्याज सहित कुल धनराशि 1,17,163.00 रूपये का भुगतान नहीं किया गया। उक्त के संबंध में ऐसा प्रतीत होता है कि परिवादी द्वारा 2002 से फ्रीहोल्ड किये जाने की मॉंग की जा रही है और वर्ष 2004 में कुल मॉंग की गयी 21317.00 रूपये का भुगतान किया गया जिसे परिवादी ने जमा भी कर दिया। यदि और कोई धनराशि एवं दण्ड ब्याज अवशेष था तो वर्ष 2004 में परिवादी द्वारा भुगतान करते समय विपक्षी द्वारा परिवादी को सूचित करते हुए भुगतान प्राप्त करना चाहिए था। विपक्षी द्वारा ऐसा नहीं किया गया और बाद में दण्ड ब्याज सहित अत्यधिक धनराशि की मॉंग की जाने लगी जिसके अदा न करने पर फ्रीहोल्ड की कार्यवाही नहीं की जा रही है। परिवादी का तर्क इस आशय से औचित्यपूर्ण प्रतीत होता है कि वर्ष 2004 तक कोई दण्ड ब्याज/अर्थदण्ड नहीं था, परन्तु फ्रीहोल्ड की मॉंग किये जाने पर उसे लगा दिया गया। इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद ने भी इस मामले में इस्तक्षेप करने से इनकार करते हुए किश्त एवं ब्याज के भुगतान किये जाने का निर्देश दिया गया है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा भी अपने आदेश दिनॉंकित 30.01.2011 में भी ब्याज माफ किये जाने से इनकार करते हुए परिवादी को अवशेष धनराशि के साथ ब्याज दिये जाने का निर्देश दिया गया।
प्लाट/भवन का फ्रीहोल्ड करना किसी भी प्लाट/भवन धारक का अधिकार होना चाहिए और उसे उस संस्था/एजेन्सी द्वारा सुविधा प्रदान करनी चाहिए और अनावश्यक दण्डात्मक भार नहीं थोपना चाहिए। साथ ही साथ जो संस्था भूमि अर्जित कर भवन आवंटित करती है उसे आर्थिक नुकसान भी नहीं होना चाहिए। अत: परिवादी को सुविधा दिये जाने के औचित्य के साथ साथ विपक्षी के हितों की रक्षा में भी बल प्रतीत होता है। उभयपक्ष के तर्कों के आधार पर यह फोरम/आयोग इस निष्कर्ष पर पहुँचता है कि परिवादी के हितों के औचित्य के आधार पर आंशिक लाभ देते हुए विपक्षी के तर्कों को भी समायोजित कर आदेश दिया जाना औचित्यपूर्ण है।
आदेश
परिवादी का परिवाद आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए विपक्षी को निर्देश दिया जाता है कि वे परिवादी के प्रथम फ्रीहोल्ड आवेदन पत्र के समय जो भी उनके स्तर पर भुगतान देय था उसे उस पर बैंको द्वारा निर्धारित सामान्य ब्याज के साथ (बिना किसी अर्थ दण्ड) के परिवादी से प्राप्त कर इस निर्णय के 45 दिन के अन्दर परिवादी को भवन का फ्रीहोल्ड करना सुनिश्चित करें। परिवादी को निर्देशित किया जाता है कि इस अवधि में विपक्षी को उनके प्रथम फ्रीहोल्ड प्रार्थना पत्र के समय जो भुगतान देय था उस पर बैंको द्वारा निर्धारित सामान्य ब्याज के साथ (बिना किसी दण्ड ब्याज) के भुगतान कर प्लाट का फ्रीहोल्ड विपक्षी से प्राप्त करे। यदि उक्त अवधि में आदेश का अनुपालन उभयपक्ष में जो भी पक्ष अनुपालन नहीं करता है, उस पर निर्णय की तिथि से सम्पूर्ण धनराशि पर 12 प्रतिशत वार्षिक ब्याज भुगतेय होगा।
(अशोक कुमार सिंह (अरविन्द कुमार)
सदस्य अध्यक्ष
जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, प्रथम,
लखनऊ।