राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील सं0- 1014/2016
(सुरक्षित)
(जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष फोरम द्वितीय, लखनऊ द्वारा परिवाद सं0- 491/2010 में पारित आदेश दि0 12.01.2016 के विरूद्ध)
Aviva life insurance company india Limited registered office. 2nd floor, Prakashdeep building, 7, Tolstoy marg, New Delhi-110001. Head office. Opposite Golf course DLF, Phase-V, Sector-5, Gurgaon, Haryana.
………Appellant
Versus
Anil kumar pathak S/o Rambali pathak, R/o- Nilmatha, vijay nagar, Lucknow-226005
………. Opposite party
समक्ष:-
माननीय न्यायमूर्ति श्री अख्तर हुसैन खान, अध्यक्ष।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री बृजेन्द्र चौधरी, विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : श्री राघवेन्द्र प्रताप सिंह, विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक:- 23.06.2017
माननीय न्यायमूर्ति श्री अख्तर हुसैन खान, अध्यक्ष द्वारा उद्घोषित
निर्णय
परिवाद सं0- 491/2010 अनिल कुमार पाठक बनाम अवीवा लाइफ इंश्योरेंस कं0लि0 एवं एक अन्य में जिला फोरम द्वितीय, लखनऊ द्वारा पारित निर्णय और आदेश दि0 12.01.2016 के विरूद्ध यह अपील उपरोक्त परिवाद के विपक्षी अवीवा लाइफ इंश्योरेंस कं0लि0 की ओर से धारा 15 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत आयोग के समक्ष प्रस्तुत की गई है।
आक्षेपित निर्णय और आदेश के द्वारा जिला फोरम ने परिवाद विपक्षीगण के विरूद्ध आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए निम्न आदेश पारित किया है :-
‘’परिवादी का परिवाद आंशिक रूप से स्वीकार किया जाता है। विपक्षीगण को एकल एवं संयुक्त रूप से आदेशित किया जाता है कि वह इस निर्णय की तिथि से चार सप्ताह के अन्दर परिवादी को रू0 5,00,000/- मय ब्याज दौरान व आइंदा बशरह 9 (नौ) प्रतिशत साधारण वार्षिक ब्याज की दर के साथ अदा करें। इसके अतिरिक्त विपक्षीगण संयुक्त एवं एकल रूप में परिवादी को मानसिक व शारीरिक कष्ट हेतु रू0 20,000/- तथा रू0 5,000/- वाद व्यय अदा करेंगे, यदि विपक्षीगण उक्त निर्धारित अवधि के अन्दर परिवादी को यह धनराशि अदा नहीं करते हैं तो विपक्षीगण को समस्त धनराशि पर ता अदायगी तक 12 (बारह) प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर के साथ अदा करना पड़ेगा’’।
अपील की सुनवाई के समय अपीलार्थी की ओर से उनके विद्वान अधिवक्ता श्री बृजेन्द्र चौधरी और प्रत्यर्थी की ओर से उनके विद्वान अधिवक्ता श्री राघवेन्द्र प्रताप सिंह उपस्थित आये हैं।
मैंने उभयपक्ष के विद्वान अधिवक्तागण के तर्क को सुना है और आक्षेपित निर्णय और आदेश तथा पत्रावली का अवलोकन किया है।
अपील के निर्णय हेतु संक्षिप्त सुसंगत तथ्य इस प्रकार हैं कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने जिला फोरम के समक्ष उपरोक्त परिवाद इस कथन के साथ प्रस्तुत किया है कि उसकी पत्नी ने विपक्षी से बीमा पालिसी दि0 28.06.2007 को 50,000/-रू0 प्रीमियम जमा कर ली थी। यह पालिसी 20 वर्ष की थी और इसकी परिपक्वता तिथि 28.06.2007 थी तथा प्रीमियम धनराशि 50,000/-रू0 वार्षिक थी और इसकी बीमित धनराशि 5,00,000/-रू0 थी।
परिवाद पत्र के अनुसार प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन है कि पालिसी लेने के बाद उसकी पत्नी की मृत्यु दि0 29.07.2017 को हो गई तब उसने बीमित धनराशि प्राप्त करने हेतु अपनी पत्नी के नामिनी के रूप में आवेदन प्रस्तुत किया तो उसका आवेदन अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा इस आधार पर निरस्त कर दिया गया कि बीमित व्यक्ति ने अपने पेशे के सम्बन्ध में गलत जानकारी प्रस्ताव फार्म में दी है। तब प्रत्यर्थी/परिवादी ने अपीलार्थी/विपक्षी को कानूनी नोटिस भेजा, फिर भी कोई कार्यवाही नहीं की गई। अत: विवश होकर प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद जिला फोरम के समक्ष प्रस्तुत किया है।
अपीलार्थी/विपक्षी की ओर से जवाब दावा प्रस्तुत कर कथन किया गया है कि बीमित व्यक्ति ने प्रस्ताव फार्म में स्वयं को मैनेजर (प्रशासन) के पद पर एक स्कूल में कार्यरत बताया है जब कि वह किसी स्कूल में कार्यरत नहीं थीं। अत: उसने महत्वपूर्ण तथ्य छिपाकर पालिसी धोखे से ली है। इस कारण अपीलार्थी/विपक्षी ने प्रत्यर्थी/परिवादी का दावा निरस्त कर दिया है।
जिला फोरम ने उभयपक्ष के अभिकथन एवं उनकी ओर से प्रस्तुत न्याय निर्णयों तथा साक्ष्यों पर विचार करने के उपरांत यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि बीमित व्यक्ति ने प्रस्ताव फार्म में अपने को स्कूल का मैनेजर बताया है तो इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता है। जिला फोरम ने यह भी निष्कर्ष निकाला है कि बीमित की मृत्यु हुई है और वह मृत्यु के समय स्वस्थ थी। अत: अपीलार्थी/विपक्षी ने प्रत्यर्थी/परिवादी को बीमित धनराशि अदा न कर सेवा में कमी की है। अत: जिला फोरम ने परिवाद आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए उपरोक्त प्रकार से आदेश पारित किया है।
अपीलार्थी बीमा कम्पनी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि बीमित व्यक्ति ने गलत तथ्य दर्शित कर पालिसी प्राप्त की है। अत: बीमा कम्पनी द्वारा उसे अस्वीकार किये जाने हेतु उचित आधार है। जिला फोरम ने जो आक्षेपित निर्णय व आदेश पारित किया है वह त्रुटिपूर्ण एवं विधि विरूद्ध है।
अपीलार्थी बीमा कम्पनी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि बीमित महिला ने अपने को आर्मी पब्लिक स्कूल सदर बाजार कैण्ट में प्रशासनिक के पद पर कार्यरत दर्शित कर पालिसी प्राप्त की थी जब कि वह वहां कार्यरत नहीं थी। अत: यह स्पष्ट है कि उसने महत्वपूर्ण तथ्य के संदर्भ में अपीलार्थी बीमा कम्पनी को गुमराह करके बीमा पालिसी प्राप्त की है।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी श्रीमती चन्द्रा पाठक ने दि0 28.06.2007 को अपीलार्थी के अभिकर्ता के माध्यम से एक पालिसी लिया था और प्रथम किश्त वार्षिक 50,000/-रू0 अदा कर पालिसी प्राप्त किया था। प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी अपनी पत्नी का पालिसी में नामिनी है और उसकी पत्नी की आकस्मिक मृत्यु दि0 29.07.2007 को हो गई। अत: वह बीमित धनराशि पाने का अधिकारी है।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि बीमा पालिसी का प्रपोजल फार्म प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी बीमित श्रीमती चन्द्रा पाठक ने स्वयं नहीं भरा था, फार्म अपीलार्थी के एजेंट द्वारा भरा गया था। एजेंट ने जो बातें पूछी वह सारी बातें उसने बतायी थी जिसे एजेंट ने डायरी में नोट कर लिया था। प्रपोजल फार्म के पैरा 14 व 15 में मृतका को आर्मी स्कूल में प्रशासनिक के पद पर जो कार्यरत बतलाया गया है वह बीमा एजेंट की त्रुटि है। उसने प्रपोजल फार्म में प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी के स्थान पर यह विवरण दूसरे व्यक्ति का अंकित कर दिया है।
प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि अपीलार्थी/विपक्षी के एजेंट ने प्रपोजल फार्म भरने में गलती की है। अत: एजेंट की इस गलती के आधार पर अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा प्रत्यर्थी/परिवादी का दावा अस्वीकार किया जाना विधि की दृष्टि से उचित नहीं है। अत: जिला फोरम ने प्रत्यर्थी/परिवादी का परिवाद स्वीकार कर कोई गलती नहीं की है।
मैंने उभयपक्ष के तर्क पर विचार किया है।
निर्विवाद रूप से जो प्रस्ताव प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी का प्रश्नगत बीमा पालिसी हेतु भरा गया है उसके कालम 14, 15 और 17 में उसे मैनेजिंग प्रशासनिक, प्रशासक के पद पर आर्मी पब्लिक स्कूल सदर बाजार कैण्ट, लखनऊ में कार्यरत दर्शित किया गया है। निर्विवाद रूप से प्रत्यर्थी/परिवादी की बीमित पत्नी आर्मी पब्लिक स्कूल सदर बाजार कैण्ट में कभी कार्यरत नहीं रही है। अत: बीमा पालिसी में यह तथ्य गलत अंकित है। प्रत्यर्थी/परिवादी के अनुसार यह प्रविष्टि बीमा एजेंट जिसने फार्म भरा है उसकी गलती का परिणाम है, परन्तु बीमा पालिसी के प्रस्ताव पर हिन्दी में स्पष्ट रूप से बीमित व्यक्ति द्वारा अंकित किया गया है कि मुझे पालिसी के सम्बन्ध में सब कुछ हिन्दी में समझा दिया गया है। इसके साथ ही प्रपोजल फार्म पर प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी का हस्ताक्षर है। अत: यह माना जायेगा कि इसमें अंकित सभी प्रविष्टियों की जानकारी बीमित व्यक्ति श्रीमती चन्द्रा पाठक द्वारा दी गई है। यदि बीमा पालिसी का यह प्रस्ताव एजेंट द्वारा भरा गया है तो भी इस पर हस्ताक्षर करने के बाद यही माना जायेगा कि प्रस्तावक बीमित व्यक्ति ने यह कथन किया है और इसके लिए वह ही उत्तरदायी माना जायेगा।
इस संदर्भ में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मेसर्स ग्रासिम इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम अग्रवाल स्टील (2010) 1 S.C.C. 87 के वाद में दिया गया निर्णय महत्वपूर्ण है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि “When a party has signed any document it is to be presumed that the same was read properly unless fraud is proved.
प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी के साथ धोखा किया गया है यह अभिकथित और साबित नहीं है।
अत: उपरोक्त विवेचना के आधार पर यह स्पष्ट है कि प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी ने बीमा पालिसी के प्रस्ताव में आय व व्यवसाय के सम्बन्ध में गलत सूचना दिया है। अब प्रश्न यह है कि व्यवसाय एवं आय के सम्बन्ध में सूचना बीमा पालिसी के लिए महत्वपूर्ण है और व्यवसाय और आय के सम्बन्ध में गलत सूचना दिये जाने के आधार पर दावा बीमा अस्वीकार किया जाना उचित है।
प्रत्यर्थी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि व्यवसाय एवं आय के आधार पर न तो प्रीमियम धनराशि और न बीमित धनराशि निर्धारित होती है न ही व्यवसाय एवं आय बीमा पालिसी का आधार है। अत: यह तथ्य बीमा पालिसी के लिए मैटेरियल फैक्ट नहीं है। अत: आय और व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रपोजल फार्म में गलत सूचना अंकित किये जाने के आधार पर दावा बीमा निरस्त नहीं किया जा सकता है। आय और व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रस्ताव में किये गये कथन का सत्यापन बीमा कम्पनी कर सकती थी, परन्तु उसने आय और व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रपोजल फार्म के कथन का सत्यापन नहीं किया है जिससे यह स्पष्ट है कि बीमा कम्पनी ने इसे पालिसी हेतु मैटेरियल फैक्ट नहीं माना है।
अपीलार्थी/विपक्षी बीमा कम्पनी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के विद्वान अधिवक्ता का तर्क आधार युक्त नहीं है। बीमा पालिसी के लिए आय और व्यवसाय महत्वपूर्ण तथ्य है, क्योंकि इस आधार पर बीमा कम्पनी यह सुनिश्चित करती है कि प्रस्तावक पालिसी लेने हेतु सक्षम है या नहीं।
मैंने उभयपक्ष के तर्क पर विचार किया है।
मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने P.C. Chacko and another Vs. Chairman, Life Insurance Corporation of India and others Civil Appeal 5322/2007 के वाद में पारित निर्णय दि0 20.11.2007 में मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा Life Insurance Corporation of India & Ors. Vs. Smt. Asha Goel & Anr. (2001) S.C.C. 160 में पारित पूर्व निर्णय का हवाला दिया है जिसमें मा0 सर्वोच्च न्यायालय ने निम्न मत व्यक्त किया है :-
“The contracts of insurance including the contract of life assurance are contracts uberrima fides and every fact of material must be disclosed, otherwise, there is good ground for rescission of the contract. The duty to disclose material facts continues right up to the conclusion of the contract and also implies any material alteration in the character of the risk which may take place between the proposal and its acceptance. If there are any misstatements or suppression of material facts, the policy can be called in question. For determination of the question whether there has been suppression of any material fact it may be necessary to also examine whether the suppression relates to a fact which is in the exclusive knowledge of the person intending to take the policy and it could not be ascertained by reasonable enquiry by a prudent person.”
प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी आर्मी पब्लिक स्कूल सदर बाजार कैण्ट, लखनऊ में मैनेजिंग प्रशासक के पद पर कार्यरत थीं। यह तथ्य ऐसा है जिसकी जानकारी प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी के अलावा इस कथित स्कूल से प्राप्त की जा सकती थी। अत: ऐसी स्थिति में यह नहीं कहा जा सकता है कि इस तथ्य की जानकारी केवल प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी को ही थी और किसी को नहीं। अपीलार्थी बीमा कम्पनी ने प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी द्वारा प्रस्ताव में आय और व्यवसाय के सम्बन्ध में दी गई सूचना का सत्यापन सम्बन्धित विद्यालय से किये बिना ही बीमा पालिसी जारी की है, इतना ही नहीं अपीलार्थी बीमा कम्पनी ने इस संदर्भ में प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी द्वारा प्रस्ताव फार्म में दी गई सूचना का कोई प्रमाण भी नहीं मांगा है और प्रत्यर्थी/परिवादी की पत्नी को बीमा पालिसी जारी कर दी है। अत: स्वयं अपीलार्थी बीमा कम्पनी के व्यवहार से यह जाहिर होता है कि उसकी निगाह में आय और व्यवसाय से सम्बन्धित तथ्य पालिसी हेतु महत्वपूर्ण नहीं रहा है। प्रत्यर्थी/परिवादी के द्वारा आय और व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रपोजल फार्म में किये गये कथन का सत्यापन बीमा कम्पनी द्वारा आसानी से किया जा सकता था, परन्तु उसने उसका सत्यापन नहीं किया है। अत: इसे सप्रेसन आफ मैटेरियल फैक्ट मानकर बीमा कम्पनी द्वारा प्रत्यर्थी/परिवादी का दावा निरस्त किया जाना आशा गोयल के उपरोक्त वाद में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के आधार पर विधि सम्मत नहीं है।
मा0 सर्वोच्च न्यायालय Life Insurance Corporation of India & Ors. Vs. Smt. Asha Goel & Anr. के उपरोक्त वाद में स्पष्ट रूप से यह भी कहा है कि मात्र तकनीकी और रूटीन तरीके से बीमा दावा निरस्त नहीं किया जाना चाहिए। मा0 सर्वोच्च न्यायालय के इस निर्णय का संगत अंश निम्न है :-
Therefore, the approach of the Corporation in the matter of repudiation of a policy admittedly issued by it should be one of extreme care and caution. It should not be dealt with in a mechanical and routine manner.
उपरोक्त विवेचना के आधार पर मैं इस मत का हूँ कि जिला फोरम ने जो यह निष्कर्ष निकाला है कि अपीलार्थी बीमा कम्पनी ने प्रत्यर्थी/परिवादी का दावा बीमा निरस्त कर गलती की है और सेवा में त्रुटि की है उसे विधि विरूद्ध अथवा त्रुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है। अत: जिला फोरम ने अपीलार्थी/विपक्षीगण को जो बीमित धनराशि 5,00,000/-रू0 प्रत्यर्थी/परिवादी को अदा करने हेतु आदेशित किया है वह अनुचित और अवैधानिक नहीं कहा जा सकता है।
जिला फोरम ने बीमित धनराशि पर प्रत्यर्थी/परिवादी को 09 प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज परिवाद प्रस्तुत करने की तिथि से अदायगी की तिथि तक दिया है यह ब्याज दर उचित और युक्ति संगत प्रतीत होती है। इसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है।
जिला फोरम ने प्रत्यर्थी/परिवादी को 20,000/-रू0 क्षतिपूर्ति मानसिक व शारीरिक कष्ट हेतु प्रदान की है। चूँकि बीमित धनराशि पर प्रत्यर्थी/परिवादी को ब्याज दिया गया है। ऐसी स्थिति में मैं इस मत का हूँ कि जिला फोरम ने जो 20,000/-रू0 शारीरिक व मानसिक कष्ट हेतु क्षतिपूर्ति प्रदान की है वह अनुचित है और उसे अपास्त किया जाना आवश्यक है।
जिला फोरम ने जो 5,000/-रू0 वाद व्यय दिलाया है वह उचित है उसमें किसी हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है। जिला फोरम ने निर्धारित अवधि में क्षतिपूर्ति की धनराशि अदा न करने पर जो 12 प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज अदा करने का आदेश दिया है मेरी राय में उसे अपास्त किया जाना उचित है।
उपरोक्त निष्कर्षों के आधार पर अपील आंशिक रूप से स्वीकार की जाती है और जिला फोरम द्वारा जो अपीलार्थी/विपक्षीगण को 20,000/-रू0 मानसिक व शारीरिक कष्ट के मद में क्षतिपूर्ति के रूप में प्रत्यर्थी/परिवादी को देने हेतु आदेशित किया है उसे अपास्त किया जाता है। इसके साथ ही जिला फोरम ने जो यह आदेशित किया है कि चार सप्ताह के अन्दर बीमाकृत धनराशि 09 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की दर से अदा न किये जाने पर अपीलार्थी/विपक्षीगण 12 प्रतिशत वार्षिक की दर ब्याज देने हेतु उत्तरदायी होंगे उसे भी अपास्त किया जाता है।
जिला फोरम द्वारा पारित आक्षेपित निर्णय और आदेश का शेष अंश यथावत रहेगा। अपीलार्थी/विपक्षीगण प्रत्यर्थी/परिवादी को बीमित धनराशि 5,00,000/-रू0 परिवाद प्रस्तुत करने की तिथि से अदायगी की तिथि तक 09 प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज सहित अदा करेंगे। साथ ही जिला फोरम द्वारा आदेशित 5,000/-रू0 वाद व्यय भी अदा करेंगे।
अपील में उभयपक्ष अपना-अपना वाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।
(न्यायमूर्ति अख्तर हुसैन खान)
अध्यक्ष
शेर सिंह आशु0
कोर्ट नं0-1