(सुरक्षित)
राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0प्र0, लखनऊ
अपील सं0- 856/2010
(जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उन्नाव द्वारा परिवाद सं0- 278/2005 में पारित निर्णय व आदेश दिनांक 16.03.2010 के विरुद्ध)
Mahindra and Mahindra Financial Services Limited, Having its Registered Office At Gateway Building, Apollo Bunder, Mumbai- 400001 And Having Its Local, Branch Office at Mahindra Tower IInd Floor, Opposite Hindustan Aeronautics Limited, Faizabad Road Lucknow Through its Legal Executive Mr. Arun Kumar Singh.
……..Appellant
Versus
Alok Singh Chauhan, Aged About 45 years, Son of Sri Ram Gobind Singh Chauhan, R/o House No. 125/1, Ram Lila Maidan, Adarsh Nagar, District Unnao.
……..Respondent
समक्ष:-
मा0 श्री विकास सक्सेना, सदस्य।
मा0 श्रीमती सुधा उपाध्याय, सदस्य।
अपीलार्थी की ओर से उपस्थित : श्री अदील अहमद, विद्वान अधिवक्ता।
प्रत्यर्थी की ओर से उपस्थित : श्री एस0यू0 खान, विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक:- 07.07.2023
मा0 श्री विकास सक्सेना, सदस्य द्वारा उद्घोषित
निर्णय
1. परिवाद सं0- 278/2005 आलोक सिंह चौहान बनाम महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा फाइनेंस सर्विस लि0 व एक अन्य में जिला उपभोक्ता आयोग, उन्नाव द्वारा पारित निर्णय व आदेश दि0 16.03.2010 के विरुद्ध यह अपील प्रस्तुत की गई है।
2. जिला उपभोक्ता आयोग ने प्रश्नगत निर्णय व आदेश के माध्यम से परिवाद स्वीकार करते हुए निम्नलिखित आदेश पारित किया है:-
‘’परिवाद एतदद्वारा स्वीकार किया जाता है तथा विपक्षी को निर्देशित किया जाता है कि वह परिवादी को मु0 रूपये 2,66,000/- की राशि प्रश्नगत जीप के मूल्य के रूप में अदा करें। इस राशि पर दिनांक 26.10.2005 से अदायगी की तिथि तक 12 प्रतिशत सालाना साधारण ब्याज देय होगा।
परिवाद की परिस्थितियों को देखते हुए पक्षकार परिवाद व्यय स्वयं वहन करेंगे।‘’
3. संक्षेप में परिवाद पत्र में प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन इस प्रकार है कि दि0 13.10.2003 को मु0 रू0 3,00,000/- (तीन लाख रूपये) उसने ऋण प्राप्त कर एक जीप दि0 04.10.2003 को क्रय की और प्रत्यर्थी/परिवादी ने जीप को टैक्सी के रूप में पंजीकरण कराया तथा जीविकोपार्जन करने लगा। उक्त ऋण की अदायगी के सम्बन्ध में पक्षकारों के मध्य एक करार दि0 13.10.2003 को निष्पादित किया गया, किन्तु इस करार की शर्तें अस्पष्ट थीं जिनको स्पष्ट करने का प्रत्यर्थी/परिवादी ने निवेदन किया, परन्तु परिवाद के विपक्षीगण ने अस्वीकार कर दिया। मु0 3,00,000/-रू0 मूलधन व 54,000/-रू0 ब्याज की अदायगी 36 किश्तों में करनी थी, यह अदायगी दि0 13.10.2003 से दि0 13.09.2006 तक होनी थी, परन्तु परिवाद के विपक्षी सं0- 1 द्वारा किश्तों की वापसी के विवरण में 31 माह में सम्पूर्ण धनराशि की वापसी दिखायी गई है और एक किश्त 11,420/-रू0 की दिखायी गई है। प्रत्यर्थी/परिवादी ने विरोध किया तो परिवाद के विपक्षी सं0- 1 ने कहा कि वह इसे समायोजित कर लेंगे। प्रत्यर्थी/परिवादी ने 11,420/-रू0 की मासिक किश्तों का भुगतान विपक्षी को प्रारम्भ किया। दि0 30.06.2004 तक प्रत्यर्थी/परिवादी ने बराबर किश्तों का भुगतान किया, परन्तु दि0 13.08.2004 को उक्त जीप दुर्घटनाग्रस्त हो गई, जिसमें प्रत्यर्थी/परिवादी का करीब 40,000/-रू0 खर्च हुआ और तीन माह का समय ठीक होने में लगा। उसके पश्चात दि0 10.11.2004 से प्रत्यर्थी/परिवादी ने पुन: किश्तों का भुगतान प्रारम्भ किया। चार किश्तें बकाया हो गईं। इसके सम्बन्ध में यह तय हुआ था कि भुगतान बाद में ले लिया जायेगा। जब प्रत्यर्थी/परिवादी किश्तों का भुगतान कर रहा था तो अपीलार्थी/विपक्षी सं0- 2 ने कहा कि पहले बकाया किश्त का भुगतान करें, अन्यथा गाड़ी खड़ी करा ली जायेगी। परिवाद के विपक्षी ने दि0 15 अगस्त 2005 से सितम्बर 2005 तक गाड़ी खड़ी करा ली उसके उपरांत उक्त गाड़ी प्रत्यर्थी/परिवादी को दि0 04.10.2005 को दे दी। प्रत्यर्थी/परिवादी उक्त गाड़ी की डेंटिंग-पेंटिंग करा रहा था और विभाग में लगाने वाला था। उक्त गाड़ी चन्द्रलोक टॉकीज उन्नाव के बगल में सागर गैरेज पर खड़ी हुई थी। दि0 25.10.2005 को परिवाद के विपक्षीगण के व्यक्तियों द्वारा उक्त गाड़ी ले ली गई और चालक से कागज पर हस्ताक्षर करा लिए। प्रत्यर्थी/परिवादी ने परिवाद के विपक्षीगण से प्रार्थना की, परन्तु उन्होंने कोई सुनवाई नहीं की, जिससे व्यथित होकर प्रत्यर्थी/परिवादी ने यह परिवाद प्रस्तुत किया है।
4. परिवाद के विपक्षीगण ने अपने प्रतिवाद पत्र में प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा 3,00,000/-रू0 का ऋण लेकर जीप क्रय करना स्वीकार किया है तथा यह भी कथन किया गया है कि प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा समय से किश्तों की अदायगी नहीं की गई है। पक्षकारों के मध्य दि0 30.10.2003 को अनुबंध निष्पादित हुआ था तथा इसके बाद कोई भी विवाद उत्पन्न होने पर केवल मुम्बई स्थित प्रधान कार्यालय को ही सुनवाई का क्षेत्राधिकार है और मध्यस्थता की भी व्यवस्था थी, परन्तु अब प्रत्यर्थी/परिवादी उपभोक्ता नहीं रह गया है। परिवाद के विपक्षीगण द्वारा सेवा में कोई त्रुटि नहीं की गई है। अत: परिवाद खारिज किए जाने योग्य है।
5. अपील के स्तर पर यह बिन्दु उठाया गया है कि विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग को प्रश्नगत परिवाद के विचारण एवं निस्तारण का क्षेत्राधिकार नहीं है। क्षेत्राधिकार के सम्बन्ध में परिवाद स्तर पर परिवाद के विपक्षीगण ने इस आशय का प्रतिवाद किया है कि पक्षकारों के मध्य हुए करार में यह शर्त थी कि उभयपक्ष के मध्य उत्पन्न किसी विवाद का निस्तारण मुम्बई के क्षेत्राधिकार को है, क्योंकि बीमे की पालिसी में अंकित है कि उभयपक्ष के मध्य किसी विवाद का निस्तारण पंचाट के माध्यम से मुम्बई को होगा। इस सम्बन्ध में जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा यह निर्णय उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1986 के अंतर्गत उपबंध में दिए गए हैं, जिसके अनुसार जहां पर वाद का कारण उत्पन्न होता है वहां पर उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत परिवाद लाया जा सकता है।
6. उपरोक्त तर्क में बल है, क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 11 में उपभोक्ता संरक्षण न्यायालय को क्षेत्राधिकार दिया गया है, जहां पर विपक्षी अथवा कार्यकर्ता रहता है। जहां पर उसका शाखा कार्यालय है अथवा जहां पर वाद का कारण उत्पन्न होता है। वहां पर परिवाद संयोजित किया जा सकता है।
7. प्रस्तुत मामले में प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन इस प्रकार आया है कि वाहन खरीदने के लिए जनपद उन्नाव में ऋण प्रदान किया गया है। इस कथन का अपीलार्थी/विपक्षी सं0- 2 की ओर से वादोत्तर अथवा अपील के मेमों में विरोध नहीं किया गया है। इसके अतिरिक्त प्रत्यर्थी/परिवादी का यह भी कथन है कि प्रत्यर्थी/परिवादी के वाहन को दि0 25.10.2005 को कानपुर की ओर से जाते हुए उन्नाव में अवैध रूप से कब्जे में ले लिया जिससे वाद का कारण उत्पन्न हुआ। इस कथन का भी अपीलार्थी/विपक्षी की ओर से कोई विरोध नहीं किया गया है। अत: वाद का कारण जो प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा अवैध रूप से वाहन को अपने कब्जे में अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा लिए जाने का लिया गया है वह जनपद उन्नाव के क्षेत्राधिकार के अंतर्गत है। इसलिए धारा 11(c) के अनुसार वाद का कारण जनपद उन्नाव में उत्पन्न होना परिलक्षित होता है। अत: विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग, उन्नाव का स्थानीय क्षेत्राधिकार वर्जित नहीं है।
8. अपील के स्तर पर यह भी बिन्दु उठाया गया है कि उभयपक्ष के मध्य हुए संविदा में मध्यस्थ/पंचाट के माध्यम से उभयपक्ष के विवाद का निस्तारण का उपबंध है। इसलिए भी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत वाद अपवर्जित है। अपीलार्थी/विपक्षी के इस तर्क में भी कोई बल प्रतीत नहीं होता है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट विधिक व्यवस्था है कि पंचाट का उपबंध उपभोक्ता एवं सेवा प्रदाता के मध्य करार होने से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम का क्षेत्राधिकार बाधित नहीं होता है। इस सम्बन्ध में मा0 राष्ट्रीय आयोग द्वारा अफताब सिंह बनाम एम0आर0एम0एफ0जी0 लैण्ड प्रकाशित III(2017) C.P.J. पृष्ठ 270 (एन0सी0) में पारित निर्णय में स्पष्ट रूप से यह अवधारित किया गया है कि उभयपक्ष के मध्य हुए करार में यदि आर्बीट्रेशन के माध्यम से विवाद के निस्तारण किए जाने की शर्त दी गई है तो यह शर्त उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत लाये गए वाद को अपवर्जित नहीं करती है और उक्त उपबंध के बावजूद उपभोक्ता न्यायालय को वाद के श्रवण एवं निस्तारण का क्षेत्राधिकार रहता है।
9. अपील में मुख्य रूप से यह भी बिन्दु उठाया गया कि प्रश्नगत वाहन व्यावसायिक रूप से प्रयोग किया जा रहा था एवं व्यावसायिक रूप से प्रयोग किए जाने के कारण प्रत्यर्थी/परिवादी उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आता है। इस सम्बन्ध में यह तर्क दिया गया कि प्रत्यर्थी/परिवादी ने अपने परिवाद पत्र में यह स्वीकार किया है कि प्रश्नगत वाहन एक ड्राइवर द्वारा चलाया जा रहा था, जिससे स्पष्ट है कि यह वाहन किराये पर चल रहा था जिसका व्यावसायिक प्रयोग हो रहा था।
10. उक्त तर्क के सम्बन्ध में परिवाद पत्र के अवलोकन से परिवाद पत्र की धारा 10 एवं 11 में यह वर्णित किया गया है कि प्रश्नगत वाहन डेंटिंग व पेंटिंग के लिए गैरेज जा रहा था। उक्त वाहन को चन्द्रलोक टॉकीज, (उन्नाव) के बगल में सागर गैरेज को सुपुर्द किया गया था। उक्त गैरज से एक चालक शैलेन्द्र कुमार ले जा रहा था तभी वाहन को अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा अपने कब्जे में जबर्दस्ती ले लिया गया। परिवाद में उक्त कथन के अतिरिक्त अन्य कोई ऐसा कथन नहीं आया है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि प्रश्नगत वाहन व्यावसायिक दृष्टि से चलाया जा रहा था। जहां तक उपरोक्त कथन का प्रश्न है, उक्त अभिकथन से स्वत: स्पष्ट हो जाता है कि मात्र डेंटिंग-पेंटिंग के उपरांत वाहन गैरेज से निकाला जा रहा था। मात्र यह कथन स्पष्ट नहीं करता है कि वाहन को व्यावसायिक दृष्टि से ड्राइवर द्वारा लगातार चलाया जा रहा हो। अत: अपीलार्थी/विपक्षी का यह तर्क मानने योग्य नहीं है कि वाहन व्यावसायिक रूप में चलाया जा रहा था और इस कारण प्रत्यर्थी/परिवादी उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम की धारा 2(1)(d) के अंतर्गत उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आता है तथा परिवाद पोषणीय नहीं है।
11. उपरोक्त निष्कर्ष से यह स्पष्ट है कि क्षेत्राधिकार सम्बन्धी आपत्तियां जो अपील के स्तर पर उठायी गई हैं वे मानने योग्य नहीं हैं, जहां तक गुण-दोष का प्रश्न है अपीलार्थी/विपक्षी ने यह कथन किया है कि प्रश्नगत वाहन को अपीलार्थी/विपक्षी ने अपने कब्जे में दि0 25.10.2005 को लिया है। इस सम्बन्ध में अपीलार्थी/विपक्षी का कथन है कि प्रत्यर्थी/परिवादी अपने द्वारा लिए गए ऋण की अदायगी में डिफाल्टर रहा है और उसके द्वारा किश्तों की अदायगी समय से नहीं की गई थी। इस कारण बीमा की शर्तों के अनुसार प्रश्नगत वाहन को नियमानुसार अपीलार्थी/विपक्षी ने अपने कब्जे में लिया है।
12. इसके विपरीत प्रत्यर्थी/परिवादी का कथन इस प्रकार आया है कि अपीलार्थी/विपक्षी ऋणदाता ने बिना किसी सूचना के बल पूर्वक प्रश्नगत वाहन को उपरोक्त तिथि पर अपने कब्जे में अपने गुंडों की सहायता से एवं आयुद्ध के प्रभाव से अपने कब्जे में ले लिया था। उभयपक्ष के मध्य इस प्रश्न का विवाद है कि क्या बीमा की शर्तों के अनुसार बिना सूचना एवं नोटिस के अपीलार्थी/विपक्षी प्रश्नगत वाहन को अपने कब्जे में ले सकता था अथवा नहीं। इस सम्बन्ध में मा0 सर्वोच्च न्यायालय द्वारा मैग्मा फिनकार्प लि0 बनाम राजेश कुमार तिवारी सिविल अपील नं0- 5622/2019 में पारित निर्णय के प्रस्तर 81-90 में यह अवधारित किया गया है कि प्रश्नगत वाहन को ऋणदाता द्वारा नोटिस के उपरांत ही अपने कब्जे में लिया जा सकता है अथवा अपने कब्जे में लेने के पूर्व ऋणी को नोटिस दिया जाना आवश्यक है। यह उभयपक्ष के मध्य हुए करार पर निर्भर करता है। यदि दोनों पक्ष के मध्य हुए करार में प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा कब्जे लिए जाने का उपबंध सीधे दिया हुआ है जो करार से स्पष्ट होता है। ऐसी दशा में नोटिस दिया जाना आवश्यक है।
13. मा0 सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय को दृष्टिगत करते हुए प्रस्तुत मामले के उपबंध देखा जाना आवश्यक है। बीमा पालिसी की शर्त सं0- 14 निम्नलिखित प्रकार से है:-
Consequences upon event of default:
………………………………………………………………………………………………………………………..
(i) Upon notice to the Borrower terminate this agreement.
(ii) Demand that the Borrower should return the Product to the lenders at the risk and expense of the borrower, in the same condition it was delivered to him (Ordinary wear and tear Excepted) at such Location as the lender may designate and upon failure of the borrower to do so within the period of demand the lender agents/allies agent and constituted attorney of the borrower can enter upon premises where the product is located and take immediate possession.
14. उक्त उपबंध से स्पष्ट होता है कि उभयपक्ष के मध्य हुए करार में यह स्पष्ट रूप से दिया गया था कि ऋणी द्वारा किश्तों की अदायगी में डिफाल्ट किए जाने पर प्रश्नगत वाहन को अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा अपने कब्जे में लिए जाने के पूर्व एक नोटिस दिया जाना आवश्यक था जिसमें यह उल्लिखित हो कि ऋण के बदले दी गई वस्तु ऋणी द्वारा ऋणदाता को वापस कर दी जाए। इस प्रकार का कोई नोटिस अपीलार्थी/विपक्षी द्वारा प्रश्नगत वाहन को अपने कब्जे में लिए जाने से पूर्व दिया जाना परिलक्षित नहीं होता है। वाहन को कब्जे में लिए जाने के उपरांत पत्र दि0 08.11.2005 दिया गया जिसकी प्रतिलिपि अभिलेख पर है। इस पत्र में स्पष्ट रूप से अंकित है कि प्रत्यर्थी/परिवादी द्वारा ऋण में डिफाल्ट किए जाने पर प्रश्नगत वाहन अपीलार्थी/विपक्षी फाइनेंस कम्पनी ने अपनी अभिरक्षा में ले लिया है जिससे स्पष्ट है कि वाहन को कब्जे में लिए जाने के पूर्व पालिसी की शर्त सं0- 14 के अनुसार ऐसी कोई डिमाण्ड नोटिस नहीं दी गई थी। अत: यह कब्जा उचित नहीं माना जा सकता है। विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा उचित प्रकार से समस्त तथ्यों एवं परिस्थितियों को दृष्टिगत करते हुए प्रश्नगत जीप का मूल्य दिलवाये जाने का आदेश पारित किया गया है। अत: प्रश्नगत निर्णय व आदेश में हस्तक्षेप करने का कोई औचित्य प्रतीत नहीं होता है। अतएव उक्त धनराशि वापस दिलवाये जाने का निष्कर्ष पुष्ट होने योग्य है।
15. अपीलार्थी/विपक्षी के विद्वान अधिवक्ता द्वारा अन्य तर्कों के साथ-साथ यह भी कथन किया गया कि विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग ने 12 प्रतिशत साधारण वार्षिक ब्याज दि0 26.10.2005 से वास्तविक अदायगी तक अदा करने हेतु आदेशित किया है, जो अत्यधिक है।
16. पत्रावली के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि प्रश्नगत निर्णय व आदेश साक्ष्य पर आधारित है, जिसमें किसी प्रकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता नहीं है, परन्तु प्रत्यर्थी/परिवादी को देय राशि पर 12 प्रतिशत साधारण वार्षिक ब्याज दि0 26.10.2005 से वास्तविक अदायगी तक अदा करने हेतु आदेशित किया गया है, जो अत्यधिक है। अत: ब्याज दर 12 प्रतिशत साधारण वार्षिक के स्थान पर ब्याज 09 प्रतिशत साधारण वार्षिक की दर से सुनिश्चित किया जाना न्यायोचित प्रतीत होता है। तदनुसार अपील आंशिक रूप से स्वीकार किए जाने योग्य है।
आदेश
17. अपील आंशिक रूप से स्वीकार की जाती है। विद्वान जिला उपभोक्ता आयोग द्वारा पारित निर्णय व आदेश दि0 16.03.2010 परिवर्तित करते हुए परिवाद के विपक्षीगण महिन्द्रा एण्ड महिन्द्रा फाइनेंस सर्विस लि0 को निर्देशित किया जाता है कि वे 09 प्रतिशत साधारण वार्षिक की दर से ब्याज दि0 26.10.2005 से वास्तविक अदायगी की तिथि तक प्रत्यर्थी/परिवादी को अदा करें। शेष निर्णय व आदेश की पुष्टि की जाती है।
अपील में उभयपक्ष अपना-अपना व्यय स्वयं वहन करेंगे।
प्रस्तुत अपील में अपीलार्थी द्वारा यदि कोई धनराशि जमा की गई हो तो उक्त जमा धनराशि अर्जित ब्याज सहित सम्बन्धित जिला उपभोक्ता आयोग को यथाशीघ्र विधि के अनुसार निस्तारण हेतु प्रेषित की जाए।
आशुलिपिक से अपेक्षा की जाती है कि वह इस निर्णय व आदेश को आयोग की वेबसाइट पर नियमानुसार यथाशीघ्र अपलोड कर दें।
(सुधा उपाध्याय) (विकास सक्सेना)
सदस्य सदस्य
शेर सिंह, आशु0,
कोर्ट नं0- 3