राज्य उपभोक्ता विवाद प्रतितोष आयोग, उ0 प्र0 लखनऊ
अपील संख्या 449 सन् 2010 सुरक्षित
(जिला उपभोक्ता फोरम, प्रथम आगरा के द्वारा परिवाद केस संख्या-452/2006 में पारित निर्णय/आदेश दिनांक-22-12-2009 के विरूद्ध)
Kotak Mahindra Old Mutual Life Insurance Ltd. 9th floor, godrej Coliseum, Behind Everard Nagar, sion(E), Mumbai 400 022 Through Sh. Ganesh Iyer Associate Vice President- Claims, aged 37 years. .......अपीलार्थी/विपक्षी
बनाम
Aditya Kardam D/0 Azad Kumar Kardam, Resident of B-1/2, New Raja-ki-mandi colony, Agra ...... प्रत्यर्थी/परिवादी
समक्ष:-
1-मा0 न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्र सिंह, अध्यक्ष।
2-मा0 श्री आर0सी0 चौधरी, सदस्य।
अधिवक्ता अपीलार्थी : श्री आर0पी0 सिंह, विद्वान अधिवक्ता।
अधिवक्ता प्रत्यर्थी : श्री एस0के0 वर्मा, विद्वान अधिवक्ता।
दिनांक: 13-11-2014
मा0 श्री आर0सी0 चौधरी, सदस्य, द्वारा उदघोषित।
निर्णय
मौजूदा अपील जिला उपभोक्ता फोरम प्रथम आगरा के द्वारा परिवाद केस संख्या-452/2006 में पारित निर्णय/आदेश दिनांक-22-12-2009 के विरूद्ध प्रस्तुत किया गया है। उपरोक्त निर्णय में यह आदेश किया गया है कि विपक्षी (बीमा कम्पनी) 45 दिन के अन्दर परिवादी को 4,92,200-00 रूपये (चार लाख बानबे हजार दो सौ रूपये) क्षतिपूर्ति तथा 2,000-00 रूपये वाद व्यय का भुगतान करें।”
संक्षेप में केस के तथ्य इस प्रकार से है कि परिवादिनी कुमारी आदित्य कर्दम ने परिवाद जिला उपभोक्ता फोरम, प्रथम आगरा के समक्ष दायर किया, जिसमें कहा गया है कि परिवादिनी की मां श्रीमती राधा कर्दम पालिसी संख्या-00328888 के द्वारा बीमित थी। बीमा की तिथि 18-05-05 थी, जो 10 वर्ष के लिए थी। वह 4,92,200-00 रूपये के लिए बीमित थी। प्रतिवर्ष प्रीमियम 50,048-00 रूपये थी। परिवादिनी की माता ने प्रीमियम की अदायगी समय-समय से किया। परिवादिनी की माता श्रीमती राधा कर्दम की दुर्भाग्य से दिनांक-25-01-
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2006 को मृत्यु हो गई। परिवादिनी अपनी मां के तरफ से नामिनी है, व पालिसी की रकम को प्राप्त करने का हकदार है। उसने क्लेम विपक्षी के समक्ष पेश किया, लेकिन विपक्षी ने क्लेम का भुगतान नहीं किया। पालिसी देने के बाद विपक्षी ने व उसके अधिकारियों ने जॉचपड़ताल किया और उसका मेडिकल चेकअप भी किया गया था और सभी औपचारिकताएं पूरी होने के बाद व मेडिकल जॉच के बाद ही पूर्ण संतुष्टि होने के उपरान्त विपक्षी ने बीमा पालिसी परिवादिनी की माता को दिया था और प्रतिवादीगण पालिसी की रकम देने के लिए उत्तरदायी है और उन्होंने बिना उचित कारण के क्लेम देने से इंकार कर दिया।
विपक्षीगण के तरफ से प्रतिवाद पत्र में कहा गया है कि परिवादिनी की माता ने बीमा पालिसी लेते समय महत्वपूर्ण सूचना अपने स्वास्थ्य के सम्बन्ध में छिपा लिया था और उक्त महत्वपूर्ण सूचना छिपाने से ही बीमा पालिसी उनका किया गया। प्रतिवादी ने यही समझा कि प्रपोजल फार्म में जो प्रश्नों का जवाब दिया गया है, वह सत्य है और उसी आधार पर पालिसी दिया गया। मृतका को 10 वर्ष पहले से टाइप-2 डायबिटीज की बीमारी थी, जिसको उसने प्रपोजल फार्म में नहीं बताया और जरूरी तथ्यों को छिपाने के कारण संविदा शुरू से ही शूंन्य हो गया। परिवादिनी की माता दिनांक-10-12 वर्ष से डायबिटीज से ग्रसित थी। जैसा कि जॉच से पता चला है कि डाक्टर अनीता पारिख, आगरा व आल इंडिया इन्स्ट्रीट्यूट आफ मेडिकल सांइसेज नई दिल्ली से इजाज के दौरान बीमाधारक के स्टेटमेंट दिनांक-23-03-2006 से स्पष्ट है कि मृतका 10 वर्ष पहले से डायबिटीज से पीडि़त थी। आल इंडिया इन्स्ट्रीट्यूट आफ मेडिकल सांइसेज नई दिल्ली की रिपोर्ट से स्पष्ट है कि वह इन्सुलिन लेती थी और यह कहा गया है कि परिवादिनी का परिवाद खारिज होने योग्य है।
इस सम्बन्ध में जिला उपभोक्ता फोरम के निर्णय/आदेश दिनांकित-22-12-2009 का अवलोकन किया गया। अपील के आधार का अवलोकन किया गया। दोनों पक्षों के तरफ से दाखिल किये गये लिखित बहस का अवलोकन किया गया। अपील के आधार में कहा गया है कि पालिसी लेने वाले व्यक्ति का मेडिकल
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परीक्षण कहे गये कथनों पर निर्भर होते है। पालिसी होल्डर का शत प्रतिशत सही मेडिकल परीक्षण तभी सम्भव है, जब बीमित द्वारा सारा जवाब सही दिया जाता है।
इस सम्बन्ध में प्रत्यर्थी के तरफ से कहा गया है कि कोई तथ्य छिपाया नहीं गया है। पालिसी लेते समय बीमा धारक को कोई बीमारी नहीं थी और यह भी कहा गया है कि पालिसी लेते समय बीमा कम्पनी के तरफ से डाक्टर ने परीक्षण किया था और कोई बीमारी इस प्रकार की नहीं पाई गई थी और उसके बाद ही बीमा किया गया था।
इस सम्बन्ध में प्रत्यर्थी/परिवादी के तरफ से निम्न रूलिंग दाखिल किया गया है:-
- ( 2014) सी.पी.जे.-221(एन.सी.) बजाज एलांज लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी लि0 बनाम राज कुमार प्रस्तुत किया गया है, जिसमें कहा गया है कि-
“Authorised doctor of Insurance Company examined insured, assessed fitness and after complete satisfaction policy was issued- It cannot be presumed that insured/deceased was aware of Multiple Myeloma/Blood Cancer and he concealed previous illness- Repudiation not justified.”
(2) प्रत्यर्थी/परिवादिनी के तरफ से ।।।(2014) सी.पी.जे.-340 (एन.सी.) न्यू इंडिया एसोंरेंस कम्पनी लिमिटेड बनाम राकेश कुमार, जिसमें डायबिटीज एवं हायपर टेंशन से सम्बन्धित बीमारी बीमा धारक को थी, जिसमें बीमा कम्पनी द्वारा उनका क्लेम खण्डित किया गया था। इस सम्बन्ध में माननीय राष्ट्रीय आयोग ने निम्न प्रकार से निर्णय दिया है:- “ Consumer Protection Act, 1986- Sections 2(1)(g)] 14(1)(d)] 21(b)- Insurance (Mediclaim)- Bypass surgery- Suppression of pre- existing disease alleged.- Claim repudiated- deficiency in service- District Forum allowed complaint - State Commission dismissed appeal-Hence
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revision— OP did not produce any evidence to prove that which medication and for how long the complainant was taking for diabetes/ hypertension- OP cannot apply hard and fast rule to presume that complainant was suffering for long duration i.e. before taking the policy- People can live for months, even years, without knowing they have he disease and it’s often discovered accidentally after routine medical check-ups Concealment not established- Repudiation not justified.”
अपीलकर्ता के तरफ से भी लिखित बहस दाखिल किया गया तथा निगरानी संख्या-2040/2009 में माननीय एन.सी.डी.आर.सी. नई दिल्ली द्वारा पारित निर्णय दिनांकित- जनवरी 2012 को पास किये गये निर्णय की प्रति दाखिल की गई, लेकिन यह प्रमाणित प्रति नहीं है और इसमें किसी किताब का साइटेशन नहीं है। निर्णय की तिथि भी नहीं लिखा है। मैंने उक्त निगरानी में पारित निर्णय का अवलोकन किया।
जिला उपभोक्ता फोरम ने अपने निर्णय में कहा है कि साधारणतया डायबिटीज ऐसा रोग नहीं है, जिससे कि निकट भविष्य में किसी भी समय मृत्यु सम्भावित हो। देश की जनता का अच्छा प्रतिशत डायबिटीज से पीडि़त है, जिसमें कुछ लोगों को उक्त रोग की जानकारी है और कुछ को नहीं है। ऐसे रोगी उक्त रोग के होते हुए भी वर्षो जीवित रहते है और डायबिटीज ऐसी बीमारी नहीं है कि किसी भी व्यक्ति की अचानक मृत्यु हो जाय।
मौजूदा केस में बीमा क्लेम खण्डित करते समय यही कहा गया है कि आल इंडिया इन्स्टीट्यूट आफ मेडिकल साइसेंज नई दिल्ली के डाक्टर एस.सी. तिवारी के द्वारा मृतका की बीमारी का संक्षिप्त विवरण दाखिल किया गया है। जिससे स्पष्ट है कि वह पहले से ही बीमारी से ग्रसित थी। इस सम्बन्ध में इस डाक्टर का शपथ पत्र या बयान नहीं कराया गया है और यह भी मौजूदा प्रकरण में सामने नहीं आया है कि मृतका की बीमारी के बारे में डाक्टर एस.सी.तिवारी
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को मरीज ने बताया था या किसी अन्य ने बताया। यह भी तथ्य स्पष्ट है कि प्रपोजल फार्म दिनांक-07-04-2005 को भरा गया था, जिसे बीमा कम्पनी के तरफ से दिनांक-18-05-05 को स्वीकार किया गया और मृतका की मृत्यु दिनांक-25-01-06 को हुआ है और मृतका आल इंडिया इन्स्टीट्यूट आफ मेडिकल साईसेज नई दिल्ली में दिनांक-10-11-2005 को भर्ती हुई थी और यह भी स्पष्ट है कि बीमा पालिसी लेते समय मृतका का स्वस्थ्य परीक्षण बीमा कम्पनी के अधिकृत डाक्टर द्वारा कराया गया था, जिसमें कोई कमी नहीं पाई गई थी और यह नहीं कहा जा सकता है कि पालिसी लेने की तिथि से आल इंडिया इन्स्टीट्यूट आफ मेडिकल साइसेंज नई दिल्ली में भर्ती होने के दौरान बीमा धारक की अचानक तबियत खराब हुई हो और उसको पहले इस बीमारी के बारे में जानकारी न रही हो।
इस सम्बन्ध में जिला उपभोक्ता फोरम ने भी अपने निर्णय में कहा है कि चिकित्सा जगत में काफी प्रगति हुई है आज ऐसे साधन उपलब्ध है, जिससे डायबिटीज होने अथवा न होने की जॉच तुरन्त की जा सकती है। ऐसी दशा में बीमा कम्पनी की भी जिम्मेदारी थी कि वह मृतका को पालिसी जारी करने से पहले यह जानने की कोशिश करती कि मृतका किसी रोग से ग्रसित है, अथवा नहीं? यह भी कहा गया है कि आम अनुभव की बात है कि बीमा पालिसी जारी करते समय बीमा कम्पनियां उपभोक्ता को लुभावने सपने दिखाती है और जब क्लेम देने की बात आती है तब कोई न कोई बहाना अथवा आधार ढूढ़ने का प्रयास करती है, ताकि उपभोक्ता को क्लेम देने से वंचित किया जाय। जिला उपभोक्ता फोरम ने अपने निर्णय में यह भी कहा है कि बीमा कम्पनी ने उस चिकित्सक का प्रमाण पत्र भी दाखिल नहीं किया है, जिसने बीमा पालिसी जारी करने से पूर्व चिकित्सीय परीक्षण किया गया था, यदि उक्त चिकित्सा प्रमाण पत्र प्रस्तुत किया गया होता तो उससे पता लगता कि मृतका ने चिकित्सक को क्या बताया तथा चिकित्सक ने मृतका को किसी रोग से ग्रसित होना पाया अथवा नहीं।
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इस प्रकार से उपरोक्त तथ्यों को देखते हुए जिला उपभोक्ता फोरम ने जो निष्कर्ष दिया है, वह विधि सम्मत है, उसमें हस्तक्षेप किये जाने की कोई गुंजाइश नहीं है।
मौजूदा केस में जिला उपभोक्ता फोरम के द्वारा निर्णय दिनांक-22-12-2009 को पारित किया गया है, जिसकी सत्यप्रतिलिपि दिनांक-04-01-2010 को अपीलकर्ता को प्राप्त हुई है। अपीलकर्ता ने अपील दिनांक-16-03-2010 को दाखिल किया है और इस बिलम्ब से अपील दाखिल करने के सम्बन्ध में शपथ पत्र भी दिया है, जिसमें कहा है कि उसकी प्रमाणित प्रति दिनांक-04-01-2010 को प्राप्त हुआ है और अपने प्रार्थना पत्र में यह कहा है कि उसकी कारपोरेट आफिस मुम्बई में है और अपील लखनऊ में दाखिल करना था और कारपोरेट आफिस ने मौजूदा अपील को दाखिल करने के लिए अधिवक्ता रखा और कोरियर के द्वारा सभी पत्राचार वगैरह नई दिल्ली से मुम्बई और उसके बाद मुम्बई से नई दिल्ली में समय लगा और इस प्रकार से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के अर्न्तगत जो समय-सीमा दिया गया है, उसके अन्दर अपील दायर नहीं हो सका। प्रार्थना पत्र में तिथिवार ऐसा वर्णन नहीं किया गया है कि किस आधार पर देरी हुआ है, केवल यही कहा गया है कि पत्राचार की वजह से उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम में दिये गये समय-सीमा के अर्न्तगत अपील दायर नहीं हो सका।
आर0बी0 रामलिंगम बनाम आर0बी0 भवनेश्वरी, 2009 (2) Scale 108 के मामले में तथा अंशुल अग्रवाल बनाम न्यू ओखला इण्डस्ट्रियल डवलपमेंट अथॉरिटी, IV (2011) CPJ 63 (SC) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह अवधारित किया गया है कि न्यायालय को प्रत्येक मामले में यह देखना है और परीक्षण करना है कि क्या अपील में हुई देरी को अपीलार्थी ने जिस प्रकार से स्पष्ट किया है, क्या उसका कोई औचित्य है? क्योंकि देरी को क्षमा किए जाने के सम्बन्ध में यही मूल परीक्षण है, जिसे मार्गदर्शक के रूप में अपनाया जाना चाहिए कि क्या अपीलार्थी ने उचित विद्वता एवं सदभावना के साथ कार्य किया है और क्या अपील में हुई देरी स्वाभाविक देरी है। उपभोक्ता संरक्षण मामलों में
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अपील योजित किए जाने में हुई देरी को क्षमा किए जाने के लिए इसे देखा जाना अति आवश्यक है क्योंकि उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 में अपील प्रस्तुत किए जाने के जो प्राविधान दिए गए हैं, उन प्राविधानों के पीछे मामलों को तेजी से निर्णीत किए जाने का उद्देश्य रहा है और यदि अत्यन्त देरी से प्रस्तुत की गयी अपील को बिना सदभाविक देरी के प्रश्न पर विचार किए हुए अंगीकार कर लिया जाता है तो इससे उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम के प्राविधानानुसार उपभोक्ता के अधिकारों का संरक्षण सम्बन्धी उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।
इस प्रकार से हम यह पाते है कि प्रार्थना पत्र संतोषजनक नहीं है और हम यह पाते है कि अपील समय से नहीं दाखिल किया गया है और अपील कालबाधित है और कालबाधित होने की वजह से भी अपील खारिज होने योग्य है।
उपरोक्त दोनों आधारों पर हम इस मत के है कि अपीलकर्ता की अपील खारिज होने योग्य है।
आदेश
अपीलकर्ता की अपील खारिज की जाती है तथा जिला उपभोक्ता फोरम प्रथम आगरा के द्वारा परिवाद केस संख्या-452/2006 में पारित निर्णय/आदेश दिनांक-22-12-2009 की पुष्टि की जाती है।
उभय पक्ष अपना- अपना अपील व्यय स्वयं वहन करेगें।
( न्यायमूर्ति वीरेन्द्र सिंह ) ( आर0सी0 चौधरी )
अध्यक्ष सदस्य
आर0सी0वर्मा आशु0-ग्रेड-2
कोर्ट नं0-1