न्यायालय - जिला उपभोक्ता विवाद प्रतितोषण फोरम, दुर्ग (छ0ग0)
समक्ष -
अध्यक्ष - श्रीमती मैत्रेयी माथुर
सदस्य - श्रीमती शुभा सिंह,
प्रकरण क्र.सी.सी./13/52
प्रस्तुती दिनाँक 01.03.2013
भारत कुमार अग्रवाल आ.श्री के.एल.अग्रवाल, उम्र 63 वर्ष, निवासी-एफ.8, पंचशील नगर, छत्तीसगढ़ क्लब के पास, रायपुर (छ.ग.) - - - - परिवादी
विरूद्ध
छ.ग.गृह निर्माण मंडल परियोजना संभाग, दुर्ग मार्फत संपदा अधिकारी एवं कार्यपालन अभियंता, छ.ग. गृह निर्माण मंडल परियोजना संभाग, दुर्ग (छ.ग.) - - - - अनावेदक
आदेश
(आज दिनाँक 24 फरवरी 2015 को पारित)
श्रीमती मैत्रेयी माथुर-अध्यक्ष
परिवादी द्वारा अनावेदक से भवन निर्माण कार्य समय पर पूर्ण न कर एवं भवन पर आधिपत्य न प्रदान कर की गई सेवा में कमी के लिए 10,47,646रू. मय ब्याज, मानसिक कष्ट हेतु 3,00,000रू., वाद व्यय व अन्य अनुतोष 40,000रू. प्रतिमाह दिलाने हेतु यह परिवाद धारा-12 उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत प्रस्तुत किया है।
परिवाद-
(2) परिवादी का परिवाद संक्षेप में इस प्रकार है कि अनावेदक द्वारा संयुक्त आवास योजनांतर्गत ट्विीनसिटी, तालपुरी, भिलाई-दुर्ग में सर्वसुविधा युक्त कालोनी के निर्माण हेतु भूखण्डो/ भवनों के आबंटन की योजना सन् 2008-09 में प्रारंभ की गई। उक्त योजना के अंतर्गत परिवादी ने लिली हाऊस हेतु आवेदन दिया और उसके साथ पंजीयन शुल्क जमा किया था। अनावेदक द्वारा परिवादी के आवेदन को स्वीकार करते हुए लाटरी के द्वारा परिवादी को लिली हाऊस भूखण्ड क्र.404 आबंटित किया गया तथा पत्र दि.29.07.2009 के माध्यम से भूखंड का मूल्य एवं निर्माण लागत किश्तों में जमा करने की सूचना दी गई थी। अनावेदक द्वारा लिली हाउस क्र.404 के भूखण्ड का मूल्य 56000रू. प्रतिवर्ग मीटर की दर से भूखण्ड क्र.404 का कुल क्षेत्रफल 447.50 वर्ग मीटर का मूल्य कुल 25,06,000रू. निर्धारित किया गया था और समान्यतः पंजीयन राशि एवं अन्य 2 किश्तों की राशि के भुगतान के साथ भूखंड के लीजडीड का पंजीयन आवेदक के पक्ष में किया जाना था, इस सबंध में दि.26.11.11 के पत्र क्र.4813 आदेश द्वारा भी परिवादी को सूचित किया गया था। छ.ग. गृह निर्माण मंडल द्वारा रायपुर में भी विशेष आवास योजना पुरैना, रायपुर में प्रारंभ की गई थी, उस योजना के अंतर्गत भी भूखड के मूल्य पर भूखंड के लीज डीड का पंजीयन किया जाना था एवं स्ववित्तीय योजना के अंतर्गत भवन का निर्माण किया जाना था। उक्त योजना में भी भूखंड के लीजडीड का पंजीयन भूखंड के मूल्य पर किया गया था। परंतु अनावेदक द्वारा भूखंड एवं भवन दोनों के मूल्य के आधार पर पंजीयन कराया गया है, जो अनुबंध शर्त के विपरीत है और ऐसा कर अनावेदक ने सेवा में कमी की एवं अनुचित व्यापार प्रथा की है और इस प्रकार भवन का मूल्य शामिल कर पंजीयन कराने से पंजीयन में कुल 2,06,250रू. का अतिरिक्त व्यय कराया है जिसे वहन करने की जिम्मेदारी अनावेदक की है, अतः उक्त राशि मय ब्याज के दिलायी जावे, उक्त संबंध में मध्यप्रदेश गृह निर्माण मण्डल के अंतर्गत बने नियम ही लागू होंगे अतः मात्र भूखण्ड के मूल्य पर भूखण्ड का पंजीयन कराया जाना था, ऐसा न कर अनावेदक ने व्यवसायिक कदाचरण किया है। कुल 32,85,000रू. अनावेदक को परिवादी द्वारा जमा किया जा चुका है। अनावेदक के द्वारा करार केे अनुसार परिवादी को राशि प्राप्त कर लेनें के उपरंात भी उक्त भवन कार्य अपूर्ण स्थिति में रख कर एवं निर्धारित दो वर्ष के भीतर हस्तांतरित न कर सेवा में कमी की गई, अनावेदक द्वारा न तो भवन निर्माण कार्य पूरा किया गया है न ही रोड, सिवरेज, प्रकाश आदि की व्यवस्था की गई है, समयावधि में भवन का कब्जा मिलता तो परिवादी को 40,000रू. प्रतिमाह किराया अर्जित होता, जिससे परिवादी ऋण एवं ब्याज का भुगतान कर सकता था। इस प्रकार परिवादी को अगस्त 2011 से मार्च 2013 तक 20 माह का आठ लाख रूपये का नुकसान हुआ है तथा अनावेदक दि.01.04.2013 से कब्जा प्राप्ति तक भी 40,000रू. प्रतिमाह हर्जाना मय ब्याज देने का जिम्मेदार है। परिवादी को बतौर क्षतिपूर्ति 10,47,646रू. एवं उस पर 18 प्रतिशत वार्षिक की दर से भुगतान दिनंाक तक ब्याज की क्षतिपूर्ति व दिनंाक 01.04.13 से भवन का भौतिक आधिपत्य दिए जानें की दिनंाक तक 40,000रू. प्रतिमाह की दर से 18 प्रतिशत वार्षिक ब्याज सहित तथा परिवादी को भवन आधिपत्य में विलंब से हुए मानसिक कष्ट एवं क्षतिपूर्ति हेतु 3,00,000रू. दिलाया जावे तथा अनावेदक भवन निर्माण में हुई असाधारण 4 वर्ष की देरी के कारण निर्माण में हुई मूल्य वृद्धि परिवादी से वसूल करने का भी अधिकारी नहीं है।
जवाबदावाः-
(3) अनावेदक का जवाबदावा इस आशय का प्रस्तुत है कि भू-खण्ड पंजीयन का कार्य उपपंजीयक कार्यालय द्वारा किया जाता है और उपपंजीयक के अनुसार विक्रय मूल्य भूखंड एव भवन दोनों की संयुक्त कीमत पर ही पंजीयन संभव है। इस संबंध मंे शासकीय विभाग द्वारा जो निर्णय लिया जावेगा एवं जो निर्देश जारी किया जावेगा वह आबंटी एवं मंडल दोनों पर बंधनकारी है। स्ववित्तीय योजना का अर्थ यही है कि भवन निर्माण की जो लागत आएगी उसका चरणबद्ध भुगतान आबंटिती द्वारा अनावेदक मंडल को करना होगा। भूखंड की कीमत पर पंजीयन कराने के संबंध में परिवादी अथवा रेसीडेन्ट्स एसोसिऐशन द्वारा माननीय मुख्यमंत्री, आवास एवं पर्यावरण मंत्री, मुख्य सचिव, आयुक्त गृह निर्माण मडल, जिलाध्यक्ष आदि से भी पत्राचार एवं संपर्क किया गया है, किंतु इस संबंध मे शासन ही अंतिम निर्णय ले सकता है एवं उक्त निर्णय सभी संबंधित पक्षों पर लागू होगा। आवेदक अथवा आवेदिका द्वारा आवेदन भी भवन खरीदने के लिए ही किया गया है न कि केवल भूखंड खरीदने के लिए और योजना भी भवन विक्रय करने की है न कि केवल भूखंड विक्रय करने की। अनावेदक मंडल ने यह भी निर्णय लिया है कि मंडल की योजनाओं में 6 माह से अधिक के विलंब की स्थिति में हितग्राहियों द्वारा जमा राशि वापस मांगने पर हितग्राहियो को 5 प्रतिशत ब्याज देते हुए पंजीयन राशि वापस की जावे। अनावेदक मंडल द्वारा भवन हस्तांतरण हेतु कोई भी तिथि निर्धारित नहीं की गई है। आवेदन पत्र एवं नियमावली में वर्णित शर्तों को परिवादी ने पढ़ समझ कर हस्ताक्षर किया था, जिसे परिवादी ने अपने परिवाद में उल्लेख न कर फोरम को भ्रमित किया है जबकि मण्डल द्वारा समय समय पर लागू किये गये नियम व शर्तों को मानने के लिए परिवादी बाध्य है। विज्ञापन में दर्शायी गई कीमत अनुमानित है, भवन का अंतिम मूल्य, वास्तविक व्यय के आधार पर मण्डल के समक्ष अधिकारी द्वारा निर्माण कार्य पूर्ण होने पर निर्धारित किया जावेगा, जो आबंटी पर मान्य एवं बंधनकारी होगा। आबंटन आदेश में किश्तों की वसूली हेतु तिथि एवं निर्माण की भौतिक स्थिति का जिक्र किया जाता है, परंतु कोई अंतिम कमिटमेंट नहीं की गई है। विभिन्न कारणों से निर्माण कार्य समय पर पूर्ण नहीं हो पाता। साईट कंडीशन के आधार पर कार्य का निष्पादन गुणवत्तापूर्ण कराया जा रहा है, वर्तमान में कार्य प्रगति पर है भवन निर्मण में किसी प्रकार की कोई त्रुटि या कमी पाई जाती है तो उसे अविलंब दूर किया जाता है। भवन पूर्णता पर भवन का हस्तांतरण आबंटी के पूर्ण संतुष्ट होने पर किया जाता है। नीति निर्धारण का कार्य शासन का है एवं शासन की नीति सभी पर बंधनकारी होती है, ऐसे मामलों में सुनवाई करने एवं निर्णय देने का अधिकार माननीय फोरम को नहीं है, नीति को चुनौती रिट याचिका के माध्यम से माननीय उच्च न्यायालय मे ही दी जा सकती है। नीति का पालन करने कहना सेवा मे त्रुटि या कमी की श्रेणी में नहीं आता। दस्तावेजों का पंजीयन का अधिकार शासन का है एवं यदि शासन की यह नीति है कि भूखंड एवं भवन के संयुक्त मूल्य पर पंजीयन कराना होगा तो उसका पालन करने आबंटी एवं अनावेदक मंडल दोनों ही बाध्य हैं। अनावेदक ने यह कहीं नहीं कहा है कि यदि पंजीयन कार्यालय भूखंड एवं भवन के संयुक्त मूल्य पर पंजीयन कराने कहता है तो ऐसी स्थिती में अनावेदक उसका व्यय वहन करेगा, यह पूर्व में ही स्पष्ट किया जा चुका है कि आवेदक/आबंटी आवेदन प्रस्तुत कर आबंटन निरस्त करवाकर मण्डल के नियमानुसार राशि प्राप्त कर सकता है। परिवादी का आवेदन पत्र सव्यय निरस्त किए जाने योग्य है अतः निरस्त किया जावे।
(4) उभयपक्ष के अभिकथनों के आधार पर प्रकरण मे निम्न विचारणीय प्रश्न उत्पन्न होते हैं, जिनके निष्कर्ष निम्नानुसार हैं:-
1. क्या परिवादी, अनावेदक से क्षतिपूर्ति 10,47,646रू. मय ब्याज प्राप्त करने का अधिकारी है? हाँं
2. क्या परिवादी, अनावेदक से दि.01.04.13 से भवन का भौतिक आधिपत्य दिए जाने की तारीख तक 40,000रू. प्रतिमाह की दर से किराया राशि प्राप्त करने का अधिकारी है? हाँ
3. क्या परिवादी, अनावेदक से मानसिक परेशानी के एवज में 3,00,000रू. प्राप्त करने का अधिकारी है? हाँ
4. अन्य सहायता एवं वाद व्यय? आदेशानुसार परिवाद स्वीकृत
निष्कर्ष के आधार
(5) प्रकरण का अवलोकन कर सभी विचारणीय प्रश्नों का निराकरण एक साथ किया जा रहा है।
फोरम का निष्कर्षः-
(6) प्रकरण का अवलोकन करने पर हम यह पाते है कि एनेक्चर-1 अनुसार अनावेदक द्वारा ट्विीनसिटी, तालपुरी, रूआंबांधा की आवासीय योजना प्रारंभ की गई थी, जिसके संबंध में परिवादी ने तालपुरी योजना के अनुसार भूखण्ड क्रय करने और स्ववित्तीय योजना के आधार पर भवन निर्माण करने का निश्चय कर एनेक्चर-1 अनुसार लिली हाऊस भूखण्ड का पंजीयन कराया था।
(7) दस्तावेजों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि दि.29.07.2009 को अभिकथित लिली हाउस के लिए भूखण्ड आबंटन परिवर्तन स्वीकार करते हुए लाटरी द्वारा दि.09.02.2009 को लिली हाउस भूखण्ड क्र.404 आबंटित किया गया, जिसकी कार्यवाही एनेक्चर-2 दि.29.07.2009 अनुसार और एनेक्चर-4 प्रमाण पत्र दि.26.11.2009 से होती है।
(8) प्रकरण के अवलोकन से स्पष्ट है कि एनेक्चर-11 अनुसार जो की संयुक्त आवासीय योजना के संबंध में आवेदन पत्र एवं नियम पुस्तिका है में यह उल्लेख है कि स्ववित्तीय योजना के अंतर्गत भवन हेतु प्रस्तावित मूल्य का निर्धारण किया जावेगा, मूल्य निर्धारण उपरांत ऐसे भूखण्ड का विलेख मण्डल द्वारा आबंटित भूखण्ड के संबंध में राशि प्राप्त कर निष्पादित किया जावेगा। आबंटियों के पक्ष में निष्पादित विलेख आबंटन प्रपत्र सभी जमा रहेगा तथा पूर्ण राशि प्राप्त होने पर उसे मुक्त किया जावेगा।
(9) एनेक्चर-2 दि.28.07.2009 के अनुसार परिवादी को तालिका अनुसार रकम जमा करने की सूचना दी गई अर्थात् दि.29.07.09 को एनेक्चर-2 अनुसार तालिका क्र.4 में प्रथम किश्त प्लिन्थ स्तर पर या चार माह के भीतर जो भी पहले हो 8.45 लाख रूपये जमा करने थे। एनेक्चर-7 अनुसार अनावेदक द्वारा निष्पादित दस्तावेज के मुताबिक परिवादी ने पंजीयन 2008 में कराया और प्रथम किश्त की राशि 2009 में देय की थी। एनेक्चर-8 के अनुसार परिवादी ने अनावेदक को पत्र लिखा कि उसने दि.08.09.2008 से 24.04.2012 तक अनावेदक को 32,85,000रू. का भुगतान किया है, इन परिस्थितियों में दस्तावेजों के अवलोकन से स्पष्ट है कि परिवादी ने सन् 2008 में पंजीयन कराया तब अनावेदक को प्रथम किश्त से 20 माह होने पर भवन का निर्माण कार्य पूर्ण कर भवन का आधिपत्य 2010 तक परिवादी को सौंप देना था।
(10) यदि हम एनेक्चर-2 निष्पादन दि.29.07.09 का अवलोकन करें तो आबंटन के 4 माह के अंदर प्लिन्थ स्तर का काम होना था, 8 माह के अंदर लेंटर का काम होना था, 12 माह के भीतर प्रथम तल के लेंटर का काम होना था, 16 माह के भीतर स्लेब कास्टिंग का काम होना था और एनेक्चर-2 सिरियल-8 के अनुसार 20 माह होने पर जब पंचम किश्त जमा होनी थी, फ्लोरिंग, वाटर सप्लाई, बिजली का कार्य इस स्तर तक हो जाना था, अर्थात् उत्प्रेररण यही निकलता है कि पंजीयन के 20 माह के भीतर निर्माण कार्य पूरा होना था। परिवादी का तर्क है कि उसने पंजीयन राशि भी समय से जमा की, किश्त की राशि भी समय से जमा की, परंतु अनावेदक ने जब निर्माण कार्य पूरा नहीं किया तब उसने एनेक्चर-8 की नोटिस अनावेदक को दी। एनेक्चर-8 की नोटिस में भी लिखा है कि निर्माण कार्य 30.09.2010 तक होने के पश्चात् निर्माण किये गये भवन परिवादी को सौंप दिया जाना था। एनेक्चर-8 के दस्तावेज से यह सिद्ध होता है कि एनेक्चर-8 के पत्राचार दि.12.10.2012 किये जाने तक भवन का प्रथम तल का लेंटर स्तर तक का कार्य भी पूरा नहीं हो सका था, जबकि एनेक्चर-2 में पंचम किश्त के पश्चात् छठवीं किश्त अन्य चार्जेस के संबंध उल्लेख है, अर्थात् एनेक्चर-2 में पंचम किश्त तक समस्त निर्माण कार्य पूरा किया जाना था, और इस प्रकार अनावेदक द्वारा जारी दस्तावेज एनेक्चर-2 से ही सिद्ध होता है कि निर्माण की समयावधि निश्चित थी, इन परिस्थितियों में अनावेदक इस बचाव का लाभ नहीं ले सकता है कि उसने निर्माण कार्य पूरा होने की समयावधि का करार नहीं किया था।
(11) इस प्रकरण के अवलोकन से स्पष्ट है कि सन् 2008 की योजना और पंजीयन तक परिवादी द्वारा इतनी मोटी राशि अदा करने के पश्चात् भी अनावेदक ने ना तो भवन निर्माण कार्य पूरा किया न ही रोड, सिवरेज, प्रकाश आदि की सुविधा दो वर्ष के भीतर कर भवन का आधिपत्य परिवादी को सौंपा है अन्यथा कम से कम आज की स्थिति में परिवादी को अनावेदक के विरूद्ध कोई शिकायत नहीं रहती।
(12) परिवादी का तर्क है कि उसने आज तक उक्त प्रयोजन हेतु 32,85,000रू. जमा किये, जबकि अनावेदक द्वारा अनुबंध के अनुसार भूखण्ड के मूल्य 25,06,000रू. प्रीमियम के मान से परिवादी के पक्ष में अभिकथित लीज़ डीड का पंजीयन कराना था, परंतु अनावेदक ने भूखण्ड और भवन को मिलाकर अनुमानिक मूल्य के आधार पर पंजीयन कराया जो कि अनुबंध की शर्तों के विपरीत था। अतः अनावेदक ने ऐसा कर सेवा में निम्नता और अनुचित व्यापार प्रथा की है।
(13) एनेक्चर-5 के अवलोकन से स्पष्ट है कि उसने कंडिका-’ब’ में भूखण्ड शब्द का उल्लेख है अर्थात् उस समय अनावेदक का आशय भवन की कीमत को भी संलग्न करने का नहीं था और यदि अनावेदक का ऐसा आशय था तो अनावेदक को एनेक्चर-1 में एक अलग काॅलम रखना था और यह स्पष्ट करना था कि पंजीयन भूखण्ड और भवन दोनों को मिलाने पर निर्धारित रहेगा जैसा कि एनेक्चर-2 में भी काॅलम-9 में विभिन्न मद के बारे में उल्लेख है तब सन् 2009 में निष्पादित एनेक्चर-2 में भी अनावेदक को यह स्पष्ट लिखना था कि भूखण्ड और भवन दोनों के आधार पर पंजीयन राशि निर्धारित होगी, यदि ऐसा अनावेदक ने नहीं लिखा है तो यह माना जायेगा कि अनावेदक ने परिवादी को अंधेरे में रखा और फिर दिग्भ्रमित करते हुए निर्माण कार्य में इतने साल लगा दिये, जिससे स्वाभाविक तौर पर रजिस्ट्री चार्जेस में भी वृद्धि हुई और इस प्रकार से हर तरफ से परिवादी को पैसों की चोट लगाने का अनावेदक ने अनुचित आधार बनाया। परिवादी को समय पर घर भी नहीं मिला और उसे इतनी बड़ी राशि अनावेदक के पास जमा करने के कारण उस राशि से वंचित रहना पड़ा, जबकि परिवादी के तर्क के अनुसार उसकी योजना थी कि वह बैंक से कर्ज लेकर भवन हेतु पैसा पटायेगा और दो साल में भवन का कब्जा मिलने पर उक्त भवन को किराये पर दे और स्वयं किराये की राशि से बैंक के कर्ज की राशि अदा करेगा। निश्चित रूप से अनावेदक ने परिवादी को भ्रम में रखा, दिग्भ्रमित करने की कोशिश की अन्यथा शुरू से ही अनावेदक सिम्पल और साफ शब्दों में स्पष्ट करता कि रजिस्ट्री की राशि किन आधारों पर निर्धारित होगी। परिवादी की मानसिक पीड़ा उसके द्वारा अनावेदक के लिखे गये एनेक्चर-8 से ही सिद्ध होती है कि किस प्रकार परिवादी, अनावेदक द्वारा किये गये घोर विलम्ब के कारण हताश होकर एनेक्चर-8 का पत्र अनावेदक को लिखा है, जबकि एनेक्चर-10 अनुसार परिवादी को बैंक में कर्ज लेने के फलस्वरूप बड़ी-बड़ी राशि ब्याज के संबंध में इतनी लम्बी अवधि से अदा करनी पड़ रही है और स्थिति यही है कि परिवादी को अभी तक उक्त भवन निवास हेतु प्रदान नहीं किया गया है। अनावेदक ने निर्माण कार्य में खुद देर की है तब किसी भी परिस्थिति में किसी भी मद में मूल्य वृद्धि वह परिवादी से वसूलने का अधिकारी नहीं माना जा सकता।
(14) एनेक्चर-2 का पत्र जारी करने से इस बात को सिद्ध करता है कि अनावेदक ने अपने ग्राहक को यह विश्वास दिलाया कि उक्त अवधि में निर्माण कार्य पूरा होगा, यदि उसने उक्त अवधि में निर्माण कार्य की सारी औपचारिकताएं पूर्ण करने के पश्चात् मकान का कब्जा परिवादी को नहीं दिया है तो वह निश्चित रूप से घोर सेवा में निम्नता एवं व्यवसायिक दुराचरण है और इस स्थिति में हम अनावेदक को निर्माणकर्ता की श्रेणी में रखते है इस बचाव का लाभ नहीं देते है कि पंजीयन के संबंध शासन ही अंतिम निर्णय ले सकता है निश्चित रूप से यह प्रकरण अनावेदक द्वारा किये गये सेवा में निम्नता एवं व्यवसायिक दुराचरण की पराकाष्ठा को सिद्ध करता है और परिवादी जैसे अन्य ग्राहकों को भी आर्थिक और मानसिक रूप से व्यथित किये जाने का ज्वलंत उदाहरण है, क्योंकि प्रकरण के अवलोकन से स्पष्ट है कि इस अभिकथित योजना के अंतर्गत अनेकोनेक भवन के निर्माण की योजना थी और किसी भी भवन के संबंध में अनावेदक ने यह तथ्य सिद्ध नहीं किया है कि अन्य भवनों का भी निर्माण कार्य पूरा कर दिया गया है, जैसा कि एनेक्चर-1 से ही सिद्ध होता है कि कंडिका-3 में विभिन्न केटेगरी के अनेकोनेक भवन निर्माण की योजना है, एनेक्चर-1 के अनुसार कुल भवन की संख्या 890 है, जिससे यह कल्पना की जा सकती है कि अनावेदक ने 890 ग्राहकों के संबंध में इतनी मोटी राशि 2009 से प्राप्त की और परिवादी के तर्क अनुसार आज तक निर्माण कार्य कर समस्त औपचारिक्ताएं पूर्ण कर निवास हेतु अपने ग्राहक को नहीं सौंपा, यह एक सामाजिक चेतना का विषय है कि जब छ.ग. गृह निर्माण मण्डल जब इस प्रकार का कदाचरण करेगा तो जन सामान्य अपने को कितना असुरक्षित महसूस करेगा और प्रायवेट बिल्डर्स के समक्ष क्या उदाहरण रहेगा।
(15) स्वयं अनावेदक द्वारा 2008 से वर्तमान तक मकान बनाने में विलम्ब किया गया और फिर परिवादी पर ही मूल्यों में वृद्धि का बोझ डालने की चेष्ठा की गई है यदि वास्तव में अनावेदक ने योजना के तहत निर्माण कार्य समय पर किया होता तो मूल्य में ऐसी वृद्धि नहीं होती ओर न ही परिवादी को आर्थिक बोझ का सामना करना पड़ता। सन् 2008 से 2015 के बीच अनेकों साल का अंतराल है, इतनी देरी न ही परिवादी ने अनुमानिता की होगी और न ही उसके पास इतनी देरी से निर्माण कार्य करने के फलस्वरूप मूल्य में वृद्धि की मूल्य चुकाने की क्षमता होगी, यह स्थिति अनावेदक के विरूद्ध घोर सेवा में निम्नता एवं व्यवसायिक दुराचरण को सिद्ध करती है कि पांच सालों से अधिक समय की देरी स्वयं अनावेदक ने की है और फिर मूल्य में वृद्धि भी परिवादी जैसे ग्राहकों पर निर्धारित की जायेगी ऐसी सोच रखी है। वास्तव में ऐसी वृद्धि अधिरोपित करना केवल उसी परिस्थिति में मान्य की जायेगी जब थोड़ी बहुत देरी होती है न की 5-5 साल निर्माण कार्य नहीं किया जाये और फिर मूल्य वृद्धि का भार ग्राहकों पर थोपा जाये।
(16) प्रकरण के अवलोकन से हम यह पाते हैं कि परिवादी को अभिकथित स्थान का आबंटन 2008 में हुआ था और तब से लेकर ऐसा भी सिद्ध नहीं है कि परिवादी ने किश्तों की राशि की अदायगी में चूक की है यदि अनावेदकगण निर्माण कार्य शीघ्रातिशीघ्र करते तो इतनी लम्बी अवधि लगने का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता, जब कोई अपने मेहनत की गाढ़ी कमाई की मोटी रकम अपने घर को बनाने के लिए लगाता है तो वह यही आशय रखता है कि उसको अपने गाढ़ी कमाई की इतनी मोटी रकम अपना घर निर्धारित अवधि में प्राप्त करने के लिए लगायेगा, जब अनावेदक ने ग्राहकों को यह सपना दिखाया है कि वह उक्त योजना के अंतर्गत उन्हें घर निर्माण कार्य करके देगा तो अनावेदक का यह कर्तव्य था कि जब परिवादी से इतनी मोटी रकम घर हेतु लगाई है तो उसे निर्धारित अवधि में निर्माण कार्य करना था। इतनी मोटी रकम अनावेदक द्वारा प्राप्त कर लेना और शीघ्रताशीघ्र निर्माण कार्य कर परिवादी को मकान का कब्जा न देना अपने आप में व्यवसायिक दुराचरण है और इस स्थिति में यदि अनावेदक के द्वारा कारित की गई देरी और गलतियों से निर्माण लागत में वृद्धि होती है तो उसकी जिम्मेदारी परिवादी पर अधिरोपित करना व्यवसायिक कदाचरण होगा। जबकि पहले से ही मकान खरीदने की रकम इतनी छोटी नहीं थी कि परिवादी समय-समय पर अनावेदक के कारण देरी में निर्माण के वृद्धि और अन्य चार्जेस की राशियों को पुनः प्रबंध कर अनावेदक को अदा करें। अनावेदक का यह कर्तव्य था कि वह फ्लैट आबंटन के समय ही समस्त राशियों का विवरण देता, जिससे परिवादी के पास विकल्प रहता कि वह इतनी अधिक और राशि अनावेदक को अदा कर फ्लैट प्राप्त करना चाहता है कि नहीं। इतनी लंबी अवधि के पश्चात् इतनी बड़ी राशि आंकलन करना अनावेदक के व्यापारिक कदाचरण की श्रेणी में आता है जबकि आबंटन हुए वर्ष 2008 की स्थिति में करीब 7 वर्ष हो चुके हैं।
(17) अनावेदक द्वारा जारी दस्तावेजों से ही स्पष्ट है कि सन् 2009 में उन्होंने किश्त की तक कितने स्तर तक कितना काम, कितनी राशि में होगा की योजना बनाई थी और तदानुसार परिवादी ने अपनी आर्थिक स्थिति को देखते हुए घर लेने की योजना बनाई थी, परंतु प्रकरण के दस्तावेजों से स्पष्ट हो जाता है कि अनावेदक ने मकान बनाने मंे अत्यधिक विलंब किया, अतः उसका खांमियाज़ा परिवादी देने का जिम्मेदार नहीं है और न ही इतने अधिक विलम्ब के कारण मूल्य वृद्धि की राशि अदा करने का जिम्मेदार है।
(18) अनावेदक ने अपने जवाबदावा में कहीं भी यह सिद्ध नहीं किया है कि उसने मूल्य वृद्धि का विचार पहले से ही क्यों बनाया जबकि कंडिका-1 के ’’ब’’ में लिखा गया है कि भवन के मूल्य में 10 प्रतिशत से अधिक वृद्धि संभावित होने आवेदक को अवगत कराया जाकर सहमति प्राप्त की जावेगी। स्वभाविक है कि यदि अनावेदक समय अनुसार जिम्मेदारी से निर्माण कार्य कराता और उसके लिए पहले से ही विस्तृत योजना बनाता तो इतनी देरी होने की संभावना ही नहीं रहती, परंतु अनावेदक के जवाबदावा से ही यह स्पष्ट होता है कि उसने देरी करने का और फिर जवाबदावा की कंडिका-3 और 4 अनुसार यह मन बना लिया था कि वह अपने ग्राहकों को निर्धारित समय पर भवन निर्माण पूर्ण कर देने में तत्पर नहीं रहेगा इसीलिए उसने ऐसे भी दस्तावेज निष्पादित किये कि जमा राशि वापिस चाहने पर 10 प्रतिशत काटकर जमा की राशि रिफण्ड की जायेगी और योजना के 6 माह से अधिक के विलंब की स्थिति में ग्राहकों को 5 प्रतिशत ब्याज देते हुए पंजीयन राशि वापस की जायेगी। यदि वास्तव में अनावेदक इस बात की संवेदनशीलता रखता और इस बात को गंभीरता से लेता कि कोई भी व्यक्ति अपने घर को बनाने का जो सपना देखता है उसके लिए वह सालो साल कड़ी मेहनत करता है और फिर घर हेतु अन्य खचों को देखते हुए अनुमानित मूल्य अपने योजना के अनुकूल पैसा जुटाता है। अनावेदक के व्यवसायिक दुराचरण की पराकाष्ठा है कि 6-7 साल तक ग्राहकों का पैसा रखने के पश्चात् अनावेदक अपने जवाबदावा में उल्लेख करता है कि 5 प्रतिशत ब्याज की राशि के साथ ग्राहक अपना जमा किया गया पैसा वापस ले सकता है। यह अनावेदक के घोर सेवा में निम्नता एवं व्यवसायिक दुराचरण का प्रतीक है कि उसने इतने सारे ग्राहकांे से इतनी मोटी राशि प्राप्त कर ली और समाज में यह उदाहरण दिया कि वे असत्य आधार बनाकर इतनी सारे ग्राहकों की मोटी-मोटी रकम सालोसाल अपने पास रख सकते हैं न ही निर्माण कार्य करायेंगे और न ही ग्राहकों के प्रति संवेदनशील रवैया रखंगे और जब फिर देरी होगी तो जवाबदावा की कंडिका-4 के अनुसार यह बचाव लेंगे कि विभिन्न कारणों से निर्माण कार्य समय पर पूर्ण नहीं हो पाता है और यह भी बचाव लिया कि उन्होंने यह नहीं बताया था कि निर्माण कार्य कितने दिन में पूरा होगा, अर्थात् निर्माण की समय सीमा निर्धारित नहीं थी, जबकि जनसाधारण यही अनुमान लगायेगा कि यदि अन्तिम किश्त की तिथि और निर्माण की स्टेज बतायी गई है (एनेक्चर-2) तो वहीं से समय सीमा का निर्धारिण होगा, एनेक्चर-2 के काॅलम 8 से स्पष्ट है कि 20 माह की अवधि तो निर्माण समाप्ति की निर्धारित थी ही।
(19) अनावेदक का यह कर्तव्य था कि उन्होंने जिन ठेकेदारों को कार्य सौंपा था उसकी संतोषप्रद माॅनीटरिंग कराते और शीघ्रताशीघ्र उनसे कार्य पूरा कराते परन्तु अनावेदकगण ने कहीं भी यह सिद्ध नहीं किया है कि उन्होंने परिवादी से मोटी रकम लेने के पश्चात् अपने ठेकेदारों से भवन निर्माण हेतु कड़ाई से शीघ्रता से निर्माण कार्य संपन्न करने हेतु कोई भी ठोस कदम उठाया जिससे यही सिद्ध होता है कि अनावेदकगण, परिवादी जैसे अन्य 890 व्यक्तियों की भी मेहनत की कमाई हुई मोटी रकम प्राप्त किये परन्तु इतनी लंबी अवधि बीत जाने के पश्चात् भी निर्माण कार्य पूरा कर परिवादी जैसे अन्य आबंटियों को समय पर कब्जा प्रदान नहीं किया। यदि अनावेदकगण शीघ्रताशीघ्र तत्परता से निर्माण कर्य कराते तो यह स्थिति उत्पन्न नहीं होती। अनावेदकगण ने कहीं भी यह उल्लेख नहीं किया है कि उसने आबंटन के पश्चात् भवन का निर्माण कार्य संपन्न कराने में इतनी अधिक देरी क्यों की। परिवादी का तर्क है कि अनावेदक ने समयावधि में कब्जा नहीं सौंपा है और इस प्रकार सेवा में निम्नता एवं अनुचित व्यापार प्रथा की है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति जब अतनी बड़ी रकम घर बनाने के लिए लगाया है और अनावेदक द्वारा आकारण इनती लम्बी देरी की जा रही है तो वह निश्चित रूप से किराये के घर में रहने के लिए बाध्य है जब कि परिवादी का तर्क है कि उसने अपने आर्थिक स्टेट्स के अनुसार यह योजना बनाई थी कि यदि दो साल में इतनी मोटी राशि लगाकर निर्मित भवन का कब्जा प्राप्त करता है तो फिर उसे किराये में रहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, अर्थात् परिवादी को इतनी मोटी राशि अनावेदक को देकर इतनी लम्बी अवधि तक उक्त राशि से वंचित होना पड़ा, वहीं निश्चित रूप से अनेकों ग्राहकों को किराये के घर में रहने के लिए बाध्य होना पड़ा, जबकि परिवादी का तर्क है कि जहंा अनावेदक ने इतना अधिक विलंब किया है वहीं भविष्य में कितना विलम्ब होगा उसका आंकलन लगाया जाना मुश्किल है, क्योंकि अनावेदक द्वारा भवन का निर्माण कार्य तो पूरा ही नहीं किया गया है और मूल्य वृद्धि की कीमत अनावेदक द्वारा वसूली जा रही है, जिसमें पंजीयन की राशि भी शामिल कर ली गई है, क्योंकि साल दर साल पंजीयन की राशि में भी बढ़ोतरी होती है। निर्माण मूल्य का यही आशय होता है कि निर्माण कार्य समय अवधि में किया जायेगा और थोड़ी बहुत मूल्य वृद्धि का आंकलन किया जायेगा तब अन्तिम किश्त निर्धारित होगी। परिवादी का तर्क है कि भवन निर्माण पूर्ण नहीं किया गया और न ही रोड, सिवरेज, प्रकाश आदि की व्यवस्था कर दो वर्ष में भवन का आधिपत्य परिवादी को सौंपा गया और इतनी लम्बी अवधि तक बिना किसी कारण के मकान का निर्माण पूर्ण नहीं किया, जिससे यही सिद्ध होता है कि अनावेदक ने लोगों से राशि वसूलने के आशय से योजना बिना इन्फास्ट्रचर और माॅनीटरिंग के चालू कर दी।
(20) यदि अनावेदक के कंडिका-4 का अवलोकन करें तो यह जवाबदावा जो कि सन् 2013 में प्रस्तुत किया गया है में उल्लेख है कि विभिन्न कारणों से निर्माण कार्य समय पर पूर्ण नहीं हो पाता, वर्तमान में कार्य प्रगति पर है, अर्थात् निश्चित रूप से यही सिद्ध होता है कि 2013 तक मकान का निर्माण कार्य पूरा नहीं हुआ है, अर्थात् अनावेदक का अपने जवाबदावा में यह उल्लेख करना कि विभिन्न कारणों से निर्माण कार्य समय पर पूर्ण नहीं हो पाता तो यही स्थिति सामने आती है कि इतनी मोटी रकम लगने के पश्चात् भी अनावेदक ने परिवादी के संबंध में कोई संतोषप्रद एवं सद्व्यवहार नहीं अपनाया, यह भी सिद्ध होता है कि अनावेदक ने ग्राहकों से उनकी मेहनत की गाढ़ी कमाई की मोटी-मोटी रकम तो वसूल कर ली, परंतु अपने ठेकेदारों की समय समय पर निर्माण करने की गति की माॅनीटरिंग नहीं की, क्योंकि इस संबंध में अनावेदक ने कोई दस्तावेज प्रस्तुत नहीं किया है कि जब निर्माण कार्य में अत्यधिक देरी होने लगी और ग्राहकों में असंतोष होने लगा तब उन्होंने ऐसी कमेटी गठित की या ऐसी माॅनीटरिंग की कि निर्माण कार्य समय पर क्यों नहीं हो रहा है, जब अनावेदक ने भवन निर्माण का पूरा जिम्मा लिया और परिवादी से इतनी मोटी रकम वसूली तो परिवादी एक ग्राहक हुआ और जब ग्राहकों ने सेवाएं प्राप्त करने हेतु मूल्य चुकाया है तो विभिन्न कारणों से निर्माण कार्य नहीं होने का बचाव अनावेदक नहीं ले सकता है।
(21) किसी व्यक्ति की इतनी मोटी रकम इतने लम्बे समय से अपने पास रखने का अनावेदक को गंभीरता से लेना था और निर्माण कार्य सम्पन्न करने हेतु समुचित कार्यवाही करनी थी, जो कि अनावेदक ने करना सिद्ध नहीं किया है बल्कि यदि हम जवाबदावा का अवलोकन करें तो अनावेदक ने अत्यंत ही हल्केपन से यह बचाव लिया है कि विभिन्न कारणों से निर्माण कार्य समय पर नहीं होते और जमा राशि वापिस मांग करने पर जमा की गई राशि को वापस प्राप्त करने का भी प्रावधान था, जब अनावेदक जैसे निर्माणकर्ता इस प्रकार की व्यवसायिक दुराचरण करेंगे तो प्रायवेट बिल्डिरों से जनसाधारण कितने परेशान होंगे इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है और यह सामाजिक चेतना का विषय है कि क्या निर्माणकर्ता को इतनी छूट दी जा सकती है कि वे जन साधारण की इतनी मोटी रकम इतनी लम्बे समय से अपने पास रखे और उसपर गंभीरता से कार्यवाही नहीं करे, जबकि अनावेदक को निर्माण कार्य सम्पन्न करने में त्वरित कार्यवाही करनी थी जो कि अनावेदक ने सिद्ध नहीं किया है। अनावेदक ने आबंटन पश्चात् निर्माण पूरा करने में इतने अधिक सालों की देरी क्यों कि इसका कोई भी संतोषप्रद स्पष्टीकरण अनावेदक ने सिद्ध नहीं किया है, स्वयं अनावेदक ने इतने सालों की देरी की तो इसलिए अनावेदक को इस बात का लाभ नहीं दिया जा सकता कि उसने पहले इतनी मोटी रकम जो परिवादी से ली थी वह अनुमानित रकम थी यदि अनावेदक शीघ्रातिशीघ्र निर्माण कार्य करते तो बढ़ी हुई राशि प्राप्त करने की आवश्यकता ही नहीं रहती और जो मोटी रकम परिवादी ने दी थी, उसी में अनावेदक अन्य प्रभार की राशि शामिल कर परिवादी से कुल राशि की मांग कर सकता था, इतनी लम्बी अवधि से इतनी मोटी रकम रखकर निश्चित तौर पर अनावेदक ने उस रकम का क्या और कब उपयोग किया, यह स्पष्ट सिद्ध नहीं किया है, स्वभाविक है कि अनावेदक ने अन्य ग्राहकों से ऐसा ही किया होगा, जोकि अपने आप में गंभीर सोच का विषय है जो निश्चित तौर पर अनावेदक के व्यवसायिक दुराचरण और सेवा में निम्नता को सिद्ध करता है। इतनी लम्बी अवधि तक इतनी मोटी-मोटी राशियां यदि अनावेदक ने अपने पास रखी है तो अनावेदक किसी भी प्रकार का बचाव पाने का अधिकारी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि प्रकरण के अवलोकन से स्पष्ट है कि जो भी नियम एवं शर्त अधिरोपित है वह अनावेदक के पक्ष में ही है उसमें कहीं भी यह शर्त नहीं है यदि अनावेदक निर्माण में अत्याधिक विलम्ब कारित करेगा तो उस पर क्या शास्ति अधिरोपित होगा और उस संबंध में क्या शर्त व नियम होंगे, नियम और शर्त तभी लागू होते हैं जब अनावेदक ने समय सारणी का पालन किया होता, क्योंकि परिवादी ने इतनी मोटी रकम सद्भावनापूर्वक इसी आशय से लगाई थी कि वह इतनी राशि निर्धारित अवधि में देने के लिए अपने को सक्षम पाया और उसने कल्पना भी नहीं की होगी कि अनावेदक इतनी लम्बी अवधि निर्माण कार्य में लगा देगा और फिर भी स्थिति सालो गुजर जाने पर यही बनी रहेगी कि निर्माण कार्य पूरा नहीं होगा एवं उसे निवास योग्य घर प्राप्त नहीं होगा। निश्चित रूप से यह स्थिति परिवादी के लिए घोर मानसिक वेदना का कारण बनी, जिसके एवज में यदि परिवादी ने अनावेदक से 3,00,000रू. की मांग की है तो उसे अत्यधिक नहीं माना जा सकता है।
(22) परिवादी का यह भी तर्क है कि अनावेदक द्वारा अभिकथित योजना के अंतर्गत भूखण्ड के मूल्य पर भूखण्ड लीज़ डीड का पंजीयन किया जाना था एवं स्ववित्तीय योजना के अंतर्गत भवन का निर्माण किया जाना था। अनावेदक ने योजना में भूखण्ड के लीज़ डीड का पंजीयन भूखण्ड के मूल्य पर किया जाना बताया था, जिससे प्रेरित होकर मण्डल के सर्व सुविधा युक्त इंटरनेशनल काॅलीनी का निर्माण कार्य की योजना और उस बाबत् मण्डल के आश्वासन पर भरोसा कर अभिकथित भूखण्ड पंजीयन कराया था और इतनी मोटी रकम किश्तों में जमा की थी, परंतु अनावेदक द्वारा भूखण्ड के साथ भवन का निर्मित मूल्य मिलाकर भूखण्ड एवं भवन दोनों के मूल्य के आधार पर पंजीयन कराया है जो कि अनुबंध के शर्तों के विपरीत है और इस प्रकार अनावेदक द्वारा घोर व्यवसायिक दुराचरण एवं सेवा में निम्नता की है। अनावेदक भवन विक्रय नहीं कर रहा है मात्र भूखण्ड की लीज निर्धारित किया है और इस प्रकार अनावेदक ने भवन का मूल्य शामिल कर पंजीयन कराने में 2,06,250रू. का अतिरिक्त खर्च परिवादी पर थोप दिया है, जिसे अनावेदक वापस करने का जिम्मेदार है। अनावेदक ने बचाव लिया है कि पंजीयन का कार्य उप पंजीयक द्वारा किया जाता है और उप पंजीयक के अनुसार भूखण्ड और भवन दोनों की संयुक्त कीमत पर पंजीयन संभव है तो परिवादी द्वारा उप पंजीयक को पक्षकार बनाया जाना आवश्यक था। हम अनावेदक के इन तर्कों से सहमत नहीं है, जब एनेक्चर-5 अनुसार कंडिका-ब में अनावेदक ने भूखण्ड के मूल्य का उल्लेख किया है और एनेक्चर-15 अनुसार प्लाट को लीज आउट किया है तब भूखण्ड और भवन सम्मिलित रहा है के आधार पर पंजीयन कराया जाना निश्चित रूप से घोर व्यवसायिक दुराचरण और सेवा में निम्नता की श्रेणी में आता है।
(23) परिवादी ने यह भी तर्क प्रस्तुत किया है कि अनावेदक ने यह भी माना है कि निर्मित भवन की लागत को सम्मिलित कर पंजीयन कार्यवाही से हितग्राही में असंतोष और आक्रोश है जो कि अनावेदक द्वारा प्रस्तुत दस्तावेज एनेक्चर डी.4 से स्पष्ट होता है। परिवादी द्वारा प्रस्तुत एनेक्चर-13 दस्तावेज प्रस्तुत करते हुए यह तर्क किया गया है कि म.प्र.गृह निर्माण मण्डल भोपाल द्वारा परिपत्र जारी किया गया था कि भूखण्ड के मूल्य पर ही स्टैम्प और पंजीयन शुल्क अधिरोपित होगा, यदि स्ववित्तीय योजना के अंतर्गत भवन निर्माण है, अनावेदक ने इसके विरोध में ऐसा कोई भी साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की है कि एनेक्चर-15 में लीज़ डीड में पहले ही लाईन प्लाट शब्द का उल्लेख इसी आशय से किया गया है और इस स्थिति में हम अनावेदक द्वारा निर्माण कार्य में अत्याधिक देरी किये जाने के कारण भी हम परिवादी पर पंजीयन की अतिरिक्त राशि का बोझ देने का आधार नहीं पाते है और परिवादी के इस तर्क से सहमत होते हैं कि छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण 01 नवम्बर सन 2000 से हुआ है इसके पूर्व म.प्र. राज्य के अंतर्गत कार्यरत था एवं 01.11.2000 के पूर्व म.प्र. गृह निर्माण मंडल के अंतर्गत स्ववित्तीय के तहत निर्माण कराए जाने वाले भवनों के सबंध में मात्र भूखंड पर पंजीयन करने का नियम प्रभावशील था जो 01.11.2000 के पूर्व तक लागू था और ऐसे समस्त नियम, अध्यादेश एवं अधिसूचनाऐं जो छ.ग. राज्य बनने के दिवस पर प्रभावनशील थे छ.ग. राज्य द्वारा उनका अनुकूलन किया गया और छ.ग. राज्य बनने के बाद भी प्रभवशील है और इस आधार पर भी आवेदक के पक्ष में मात्र भूखण्ड के मूल्य पर भूखंड का पंजीयन किया जाना था। भवन के मूल्य को शामिल कर की गई पंजीयन की कार्यवाही जहां आवेदक के साथ हुए अनुबंध के शर्तों के विपरीत है वहीं वह मंडल के द्वारा स्ववित्तीय योजना के अंतर्गत किए जा रहे भवनों के निर्माण से संबंधित मण्डल के निमयों के विपरीत है और ऐसा करके मण्डल ने अपने आवेदक से किए करार एवं अपने स्वयं के नियमों के विपरीत कार्य किया है और मंडल पंजीयन संबंधित अतिरिक्त व्यय के लिए आवेदक के प्रति पूर्णतः जवाबदार है और देनदार है।
(24) अनावेदक द्वारा एनेक्चर-13 को निरस्त करते हुए कोई अन्य नियम बनाया जाना सिद्ध नहीं कया है क्योंकि एनेक्चर डी.4 ज्ञापन क्र.2557/2226/2012/वाक.(पं.)/पांच रायपुर, दि.31.08.2012 केवल अभिमत है और इस स्थिति में यह सिद्ध होता है कि एनेक्चर-3 के नियम अभी भी प्रभावशील है, फलस्वरूप परिवादी का तर्क स्वीकार योग्य पाया जाता है कि राशि जमा करने पर अनावेदक को करार के अनुसार भूखण्ड के मूल्य 25,06000रू. प्रीमियम के मान से परिवादी के पक्ष में भूखण्ड के लीजडीड का पंजीयन करना था, परंतु ऐसा न कर भूखण्ड के साथ भवन का अनुमानित मूल्य 27,50,000रू. को मिलाकर भूखण्ड एवं भवन दोनों के मूल्य के आधार पर पंजीयन कराया है, जो अनुबंध के शर्त के विपरीत है एवं उसका स्पष्ट रूप से उल्लंघन किया गया है एवं ऐसा कर अनावेदक द्वारा सेवा में कमी की गई है और उनका कार्य अनुचित व्यापार प्रथा की श्रेणी में आता है।
(25) परिवादी का तर्क है कि छत्तीसगढ़ राज्य का निर्माण 01 नवम्बर सन 2000 से हुआ है इसके पूर्व म.प्र. राज्य के अंतर्गत कार्यरत था एवं 01.11.2000 के पूर्व म.प्र. गृह निर्माण मंडल के अंतर्गत स्ववित्तीय के तहत निर्माण कराए जाने वाले भवनों के सबंध में मात्र भूखंड पर पंजीयन करने का नियम प्रभावशील था जो 01.11.2000 के पूर्व तक लागू था और ऐसे समस्त नियम, अध्यादेश एवं अधिसूचनाऐं जो छ.ग. राज्य बनने के दिवस पर प्रभावनशील थे छ.ग. राज्य द्वारा उनका अनुकूलन किया गया और छ.ग. राज्य बनने के बाद भी प्रभवशील है और इस आधार पर भी आवेदक के पक्ष में मात्र भूखण्ड के मूल्य पर भूखंड का पंजीयन किया जाना था। भवन के मूल्य को शामिल कर की गई पंजीयन की कार्यवाही जहां आवेदक के साथ हुए अनुबंध के शर्तों के विपरीत है वहीं वह मंडल के द्वारा स्ववित्तीय योजना के अंतर्गत किए जा रहे भवनों के निर्माण से संबंधित मण्डल के निमयों के विपरीत है और ऐसा करके मण्डल ने अपने आवेदक से किए करार एवं अपने स्वयं के नियमों के विपरीत कार्य किया है और मंडल पंजीयन संबंधित अतिरिक्त व्यय के लिए आवेदक के प्रति पूर्णतः जवाबदार है और देनदार है हम परिवादी के इन तर्को से असहमत होने का कोई कारण नहीं पाते हैं।
(26) हम परिवादी के इस तर्क को भी नजरअंदाज नहीं कर सकते है कि परिवादी ने बैंक से कर्ज लेकर और निजी बचत से अभिकथत भूखण्ड अनावेदक से क्र करने की योजना बनाई और यदि अनावेदक समय सारणी अनुसार भवन का निर्माण कार्य पूरा कर परिवादी को कब्जा सौंप देता तो वह प्रति वर्ष 40,000रू. किराया अर्जित कर सकता था और साथ ही ऋण और ब्याज का भुगतान कर सकता है, परंतु अनावेदक ने निर्धारित अवधि में निर्माण कार्य नहीं किया, जिससे परिवादी को 40,000रू. प्रतिमाह किराये की राशि का भी नुकसान हुआ उसे मय ब्याज दिलाया जावे, निश्चित रूप से अनावेदक ने निर्माण कार्य में घोर देरी की है जबकि उसके बारे में कोई भी संतोषप्रद कारण प्रस्तुत नहीं किया है और अपने ग्राहक की मेहनत की मोटी रकम बिना किसी औचित्य के अपने पास रखा है और उस योजना के अंतर्गत निश्चित रूप से अनेकोंनेक लोगों की मेहनत की कमाई भी अपने पास रखा, जबकि निर्धारित अवधि में निर्माण कार्य नहीं किया ओर फिर पंजीयन की अतिरिक्त राशि वसूल ली जिसके जमा करने के फलस्वरूप परिवादी को ब्याज का भी नुकसान हुआ अतः परिवादी ग्राहक को उच्चतम ब्याज दिलाया जाना ही उचित होगा, क्योंकि उसकी मेहनत की गाढ़ी कमाई जहां एक ओर इतने लम्बे समय है, अनावेदक के पास अनुपयोगी रही है वहीं परिवादी को राशि और भवन के सुख से लम्बे समय में वंचित होकर मानसिक वेदनाओं से गुजरना पड़ा है और इस प्रकार परिवादी परिवाद पत्र के चरण-9 के अनुसार राशि भी अनावेदक से प्राप्त करने का अधिकारी है, उक्त राशि का निम्नानुसार वर्णन किया जा रहा है:-
1. भूखंड के लीजडीड के पंजीयन में आया अतिरिक्त व्यय-2,06,250रू
2. अतिरिक्त पंजीन राशि पर पंजीयन तिथि 19.01.12 से 41,396रू
दि.31.03.13 तक 18 प्रतिशत की दर से ब्याज
3. दो वर्ष की अवधि में भवन निर्ताण कर कब्जा प्रदान 8,00,000रू
न करनें के फलस्वरूप 40,000रू की दर से
दि.01.08.11 से दि.31.03.13 तक 20 माह की क्षति . .
योग 10,47,646रू.
(27) उपरोक्त विवेचना से यह भी निष्कर्षित होता है कि चूंकि परिवादी ने सेवाएं प्राप्त करने हेतु अनावेदक को एक मोटी राशि का मूल्य अदा किया है अतः परिवादी उपभोक्ता की श्रेणी में आता है एवं अनावेदक सीधे-सीधे एक बिल्डर्स की श्रेणी में रखा जाता है, फलस्वरूप हम अनावेदक के इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि इस फोरम को वाद सुनवाई का क्षेत्राधिकार नहीं है।
(28) फलस्वरूप हम परिवादी का दावा और उसके शपथपत्र पर अविश्वास करने का कोई आधार नहीं पाते हैं। कोई व्यक्ति यदि इतनी मोटी रकम मकान के लिये देता है, और उसे कब्जा प्रदान नहीं किया जाता है और इतने सालों तक असमंजस की स्थिति में रखा जाता है, तो निश्चित तौर पर उसे मानसिक वेदना होगी। फलस्वरूप हम परिवादी का दावा स्वीकार करते हैं और यह निर्णित करते हैं कि अनावेदक परिवादी से किसी भी प्रकार की मूल्य वृद्धि की राशि प्राप्त करने का अधिकार नहीं है।
(29) अतः उपरोक्त संपूर्ण विवेचना के आधार पर हम परिवादी द्वारा प्रस्तुत परिवाद स्वीकार करते है और यह आदेश देते हैं अनावेदक परिवादी से एनेक्चर-2 दि.29.07.2009 की राशि के अलावा मूल्य वृद्धि के मद में कोई राशि वसूलने का अधिकारी नहीं है तथा अनावेदक, परिवादी को आदेश दिनांक से एक माह की अवधि के भीतर निम्नानुसार राशि अदा करे:-
(अ) अनावेदक, परिवादी को क्षतिपूर्ति 10,47,646रू. (दस लाख सैतालीस हजार छः सौ छियालीस रूपये) अदा करे।
(ब) अनावेदक, परिवादी को उक्त राशि पर परिवाद प्रस्तुती दिनांक 01.03.2013 से भुगतान दिनांक तक 18 प्रतिशत वार्षिक की दर से ब्याज भी प्रदान करें।
(स) अनावेदक, परिवादी को दिनंाक 01.04.2013 से भवन का भौतिक आधिपत्य दिए जाने की तारीख तक 40,000रू. (चालीस हजार रूपये) प्रतिमाह की दर से किराया राशि भी अदा करे।
(द) अनावेदक, परिवादी को उपरोक्त कृत्य के कारण हुए मानसिक कष्ट के लिए 3,00,000रू. (तीन लाख रूपये) अदा करेे।
(इ) अनावेदक, परिवादी को वाद व्यय के रूप में 10,000रू. (दस हजार रूपये) भी अदा करे।